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Jyotsna Saxena

Abstract

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Jyotsna Saxena

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स्त्री हूँ मैं

स्त्री हूँ मैं

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कभी आकाश बनती हूँ नदी सी मैं थिरकती हूँ

तपी हूँ धूप में भी खूब कंचन सी चमकती हूँ


नुची हैं कोपलें मेरी बनी फिर बोन्साई सी जड़ें भी

कट गई मेरी सजी संवरी सी दिखती हूँ


चली वनवास भूली राजसी वो ठाठ कोमल सी परीक्षा दे के

अग्नि की खरी तब ही उतरती हूँ गुलों से बन गए पत्थर


बदी नेकी सभी भूले डरी सी झांकती

झिर से अहिल्या बन सिसकती हूँ


कभी रत्नावली सीता छला सदियों से

अपनों ने दिया है ताड़ना

अधिकार तुलसीदास रचती हूँ।


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