मैं कपास की लकड़ी सी
मैं कपास की लकड़ी सी
मैं कपास की लकड़ी सी
तुम पीपल की छाया
मै बदरंग कमलिनी सी
तुम पेय जल की काया।
स्नेह ललित का राग कहां
साथी मेरे साज कहां
चलो रुख मोड़ लेते है
इन भेदों को तोड़ देते हैं।
साथ चलो मेरे कदम संग
ऐसी कोई बात कहां
भेदभाव की परिभाषा में
हम दोनों का साथ कहां।
प्रेम खेल में प्रियतम
हम दोनों का मेल कहां
हम कच्ची मिट्टी के घड़े
तड़ से लग के चटक जाए
फिर टूट के बिखर जाए।
बिखर बिलख कर एक दुहाई
फिर होती है जगहसाई
कितनी दर्द सहकर साजन
कर लेते जग से रुसवाई।
मिलोगे फिर उस जन्म में
ये वादा करते जाते हैं
प्रेम की पीड़ा सह कर भी
कभी ना भुला पाते हैं
हर दुख सह जाते
खुदा तुम्हें बनाते हैं।।