फागुन के बिखरे रंग...!
फागुन के बिखरे रंग...!
कुछ भूली बिसरी यादें
कुछ फागुन के बिखरे रंग
देख नजारे अजब प्रकृति के
बेताब हो रहा ये मन।
खेतों में बालियां पक रही
आमों की डालियां बौंरां गई
महुआ नतमस्तक हो बिछने को
गुलाल संग इस फागुन में आ गई।
लहलहा रही है पीली सरसों
नई कोपलों संग मन मचल रहा
पुरवाई भी मग्न डोल डोल कर
बसंत ऋतु संग चहक रहा।
चंदन महके, केसर है घुली
चहक रहे बाग उपवन
आओ सखियों खेलें फागुन
मदमस्त फागुन के संग।
मन टेसू सा हुआ बावरा
प्रेम रंग जब यूं मन बसा
उमड़ घुमड़ कर प्रेम के बादल
पिया संग छाया नशा अलबेला।
हंसी ठिठोली मस्ती मन में
खेले होली पिया वर संग
देख इस फागुनी रंग को
मस्त मग्न हुए ये दो नैन।
कोयल कूके बाग में
घोले मिश्री सा राग
गिले शिकवे भुला कर हम सब
गाएं इस फागुनी ऋतु का फाग।
