ग़ज़ल :-
ग़ज़ल :-
वक़्ते आख़िर भी बेक़रारी है
इन्तज़ारी सी इन्तज़ारी है।
दिल तलबगार है अज़ाबों का
जाने दर्दों से कितनी यारी है।
तेरे अक्सो नुक़ूश लिखते रहे
ज़िन्दगी हमने यूँ गुज़ारी है।
शब ने पहने हैं इश्क़ के ज़ेवर
चाँद पर आज रात भारी है।
होश में आने ही नहीं देती
इश्क़ की भी अजब ख़ुमारी है।
वो तिरे जिस्म की महक,वो छुअन
वो नशा अब तलक भी तारी है।
इश्क़ की मेरे इन्तहा है ये
वक़्ते आख़िर भी इन्तज़ारी है।
रंग भरते रहे यूँ ख़्वाबों में
उम्र कुछ इस तरह गुज़ारी है।
ज़र्रा ज़र्रा रहे उजाले में
रौशनी की जवाबदारी है।