पेड़ और जीवन
पेड़ और जीवन
पेड़ों के उस झुरमुट में
फँसकर, हाँ फँसकर ही शायद
गहराई की सीमा नापते हैं।
वो एक अजीब सा सुकून
खोजती, मेरी अलसाई आँखें
शायद तपते थक चुकी हो जैसे,
या फिर अरसे कुछ
प्रेम दर्शाता दिखा ना हो
समय का कोई भान नहीं।
ये दिन है या रात
ऋतुएँ भी महसूस नहीं अब
जाड़े की ठिठुरन या
ग्रीष्म की चुभन नहीं।
बस शून्य है सब
भीतर और बाहर भी
कटते पेड़ों सा,
अर्धनग्न अवस्था में,
बस जड़ों को टिकाये
कुछ आशा कुछ निराशा लिये
उन्हीं झुरमुट की ओट से
जीवन को झाँकती है,
पर निश्चयी,बहनों को
कटता देख
खुद का इंतज़ार करती
मानो मेरी ही भांति असहाय,
अपनी हरी पत्तियों को
नज़र भर देखने को
घबराती है
फिर मुझसे ही ढोंग करती,
अंधे होने का चुपचाप-मौन
संध्या बेला थी शायद
फिर चिड़ियों के चहकते स्वर
घर लौट आने की ख़ुशी थी शायद,
या घर ना पाने का रुदन
कोई अंतर ना जान पड़ता है
फिर रात्रि की सिहरन
कुछ मूंदे कुछ खुले नयन,
या नींद का हो अभिनय
सब शांत, सब मौन
और एकांत खोजता जीवन।।