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Zuhair Abbas

Abstract

4.9  

Zuhair Abbas

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अनजान एहसास

अनजान एहसास

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249


कभी मायूसी में बैठकर खयालों के

आगोश में सिमटना

कभी आती हुई यादों पर मुसकुराते मुसकुराते

आंखों का नम होना।


कभी खिड़की पर बैठकर

आती हुई बारिश की ठण्डी फुहार पर

रूखसारों को भीगोना।


कभी मचलती हवाओं में

बाहें फैलाकर अपने बाज़ुओं में

हवाओं को कैद करना।


कभी तारीकी से मोहब्बत इतनी की

जलते हुऐ शमा बुझाकर

किसी अनजान एहसास की

मौजुदगी का एहसास करना।


कभी रात की खामोशी में

अपने ही एहसासात से बातें करना,

कभी छुपकर दिन भर के सवालात पर

खुद ही से सवाल करना‌।


कभी ज़िंदगी के हर मसले को

अपने ही तरीके से लफ्जों में समझाकर

किताबों मे छुपा देना और कभी चोरी से

उन्हें पढ़कर खुद ही में सौ खामियां गिना देना।


कभी किसी के तंज़ पर मुस्कुराकर

खुद से मुकर जाना और कभी तनहाइयों में

उन्हीं तलखियों पर आंसुओं में बह जाना।


कभी खुद से नाराज़ इतना,

कभी खुद से ही से दिल लगा लेना,

कभी इन्तज़ार में खुशियों की

जिंदगी को जी लेना।


कभी वक्त पर भरोसा किए

ज़िन्दगी को नई रौशनी देना,

कभी फिर एक कल के लिए

नई सुबहा का इन्तज़ार करना।


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