चुटकी भर सिंदूर का बदला
चुटकी भर सिंदूर का बदला
ये न समझी मैं कि क्या था
भरना तुम्हारा मेरी माँग
मेरी खुशी की रंगत या
तुम्हारी बंदिश की सलाखें..!
चुटकी सिंदूर के कतरें भर
जाने से माँग में
जुड़ गई मैं जन्मों जन्म तक तुमसे
पर नहीं जुड़ पाए तुम सिंदूर भरने वाले..!
सम्मोहन सा तुमसे यूँ लिपटे रहना
मुझे मेरे हर दर्द से
निजात नहीं पाने देता..!
जो कि पाना चाहती हूँ
लंबे वक्त के लिए अब
समझ रहे हो ना
मैं क्या कहना चाहती हूँ ?
झील नहीं बहकर जा सकती खुद कहीं
बस दो चार बूँद उड़ेल दो तुम
मेरी आँखों से कुछ तो
कम हो गम के कतरें..!
माना महज़ ड़ाल से गिरा पत्ता हूँ
कोई हरसिंगार या
मनमोहक अमलतास तो नहीं
तो क्या लाज़मी है ये बर्ताव तुम्हारा..
कि मिटने के कगार पर खड़ी
शाख को काटने कुल्हाड़ी सा वार कर दो..!
हालात ये है कि मैं खुद
दरिया तक नहीं जा पाऊँगी,
पर ये ख्याल काफ़ी है
मेरी प्यास बुझाने कि मैं
चाहूँ तो नामुमकिन भी नहीं,
तो क्या तुम यही मान लोगे
कि मुझे तुम्हारी जरुरत ही नहीं..!
हाथ थामें अपने अज़ीज़ का
अनंत की ड़गर पे जाऊँ
क्या कुछ ज्यादा माँग लिया ?
अरे तुम बेफ़िक्र रहो
ये मेरे दिल की ख़्वाहिशों का मजमा है
छँट जाएगा तुम्हें करीब ना पाकर....
कहा था ना मैंने
कभी ले चलो मुझे
बनारस के घाट
हनीमून संग गंगा भी नहाते,
लो अब उस ख़्वाहिश ने
नया रुप ले लिया
आ गया आख़री वक्त..!
बस दो बूँद गंगाजल
तुम्हारे ही हाथों जीभ पर रख दो तो
निजात पाऊँ हर दर्द, मोह और बंधन से..!
खैर आज भी दम तोड़ दिया,
एकतरफ़ा अंधे दिल की
लाचार तमन्नाओं ने,
देखो ना कहाँ सुनी
आज भी मेरी कोई बात,
अब आख़री आँच से
भस्मीभूत ही कर दो
मेरा अस्तित्व
कि तुम निजात पाओ
मेरी ख़्वाहिशों से।।