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Rashmi Prabha

Inspirational

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Rashmi Prabha

Inspirational

आम और खास से परे - सच कहा न ?

आम और खास से परे - सच कहा न ?

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मैं आम नहीं पर उसी समूह में रहती हूँ

दिन और रात को जीने के लिए !

मैं खास भी नहीं 

जिसे तुम नाम से पहचान लो …

मैं -

आम और खास से परे एक रहस्य हूँ !

ढाल लिया है मैंने अपने आप को

एक किताब में जिसके पन्नों से

आवाज़ आती है …

मैं एक बोलनेवाली किताब हूँ 

जिसे तुम चाहोगे पढ़ना

पर वह तुम्हें सुनाई देगा वह भी,

मेरी आवाज़ में !

तुम पढ़कर सुनाना भी चाहो किसी को

तो तुम्हारी धड़कनों से प्रतिध्वनित होकर

तुम्हारे स्वर में मेरी ही आवाज़ गूँजेगी !


मेरे शब्द तुम्हारे अन्तर में

समाहित होकर

उसकी बनावट बदल देंगे

तब तक -

जब तक तुम मुझे पढ़ोगे

और सोचोगे

… अतिशयोक्ति नहीं होगी

यदि कहूँ

कि खुद को ढूँढते रह जाओगे !


उदहारण ले लो -

प्रेम !

कहते हैं लोग,

प्रेम फूल और भँवरा है

यह कथन

मात्र एक अल्हड़ उम्र का ख्याल है

उस उम्र से आगे समय कहता है

प्रेम ईश्वर भी है, राक्षस भी

प्रेम अनश्वर है तो नश्वर भी

चयन तुम्हारा,नियति तुम्हारी

परिणाम अदृश्य …

विश्वास हो तो भी, प्रेम मर जाता है

शक हो तो भी, प्रेम जी लेता है

प्रेम वक़्त का मोहताज नहीं

प्रेम अकेला भी सफ़र कर लेता है

कोई प्रेम के बाद भी प्रेम करता है

तार्किक अस्त्र-शस्त्रों से

सही होता है, पूर्ण होता है


दूसरी तरफ

कोई एक प्रेम का स्नान कर अधूरा होता है !

हम क्या चाहते हैं, क्या नहीं चाहते

इससे अलग एक पटरी होती है ज़िन्दगी की

जिसके समतल-ढलाव का ज्ञान मौके पर होता है

दुर्घटना - तुम्हारी असफलता हो

ज़रूरी नहीं

अक्सर सफलता के द्वार उसके बाद ही खुलते हैं

....पर अगर तुमने असफलता को स्वीकार

कर लिया तो मुमकिन है

सफलता तुम्हारे दरवाज़े तक आकर

बिना किसी दस्तक के लौट जाये !


आश्चर्य की बात मत करो

हतोत्साहित सिर्फ़ तुम नहीं होते

सफलता भी हतोत्साहित होती है

उसका इंतजार न हो

तो वह अपना रूख मोड़ लेती है !

पाना-खोना

हमारे परोक्ष और अपरोक्ष सत्य पर निर्भर है !

तुम-हम जो सोचते और देखते हैं

वह सच हो - मुमकिन नहीं

.... सच को देखना

सच का होना दृष्टि,मन, मस्तिष्क की चाक पर

घूमता रहता है

रुई की तरह धुनता जाता है

अंततः जब उसका तेज़ समक्ष होता है

उसकी तलाश में रहनेवाले गुम हो जाते हैं

या याददाश्त कमजोर हो जाती है

या … सत्य अर्थहीन हो जाता है !


आँख बंद होते

जिस सच को हम सजहता से कह-सुन के

स्वीकार करते हैं

वहाँ शरीर से पृथक हुई आत्मा

अट्टाहास करती है, फिर सिसकती है

इस अट्टाहास और रुदन में कई

अबोले सच होते हैं

जो दिल की धड़कन रोक कर

शरीर को साथ ले जाते हैं !

मैंने उस अट्टाहास और रुदन के बीच

अपने आप को एक गहरी खाई में देखा है

पहाड़ों से टकराकर आती प्रतिध्वनित

सिसकियों में स्नान किया है

फिर रेत में विलीन शब्द ढूँढे हैं

एहसासों की चाक पर उन्हें आकृति दी है

… जो पूर्ण नहीं होते

कोई न कोई हिस्सा टेढ़ा रह जाता है

या दरका हुआ

पर शायद जीवन की पूर्णता इसी अपूर्णता में है

क्यूँ ? सच कहा न ?



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