फूंक वाली उड़ान
फूंक वाली उड़ान
बनाना अपने हाथों से एरोप्लेन, फाड़कर किताबों के पन्ने।
एरोप्लेन-एरोप्लेन वाला खेल, खेला बहुत जब थे हम नन्हे-मुन्ने।।
बनकर फिर पायलट खुद, उड़ाते थे उसे मारकर फूंक।
फूंक में होती थी ताकत बहुत, ताकि प्लेन कहीं दूर जाकर हो रूक।।
मुझे खेलता देख, होते थे दादा-दादी मेरे संग खुश।
कहते थे, कागज का प्लेन उड़ाने में मिलता है नाजाने तुझे कौन सा सुख।।
हम कब उड़ेंगे प्लेन में, अक्सर उनसे पूछती थी जब होता था सर के ऊपर से रवाना।
वो मुस्कुरा कर कहते थे, बेटा तू बड़े होकर खुद भी उड़ना और हमें भी उड़ाना।।
खेल-खेल में गुजर गया बचपन, और फिर वो दिन आया।
देखते-देखते काबिल हो गई मैं, और दादा-दादी का आशीर्वाद रंग लाया।।
असली हवाई जहाज में उड़, जब मैंने छुआ पहली बार आसमान।
आंखों से झलकी खुशी, और याद आ गई वो फूंक वाली उड़ान।।
खुशी का उनकी नहीं था ठिकाना जब उड़ाया, दादा-दादी को उनके अस्सी में।
भावुक होकर कह पड़े, बातों में कहीं बात को सच कर दिखाया इस बच्ची ने।।
प्लेन में बैठे हुए, चुपके से बनाकर कागज का प्लेन, उन्होंने मुझे चौका दिया।
इस बार उन्होंने मारी फूंक उसमें, और हमने फूंक वाली उड़ान को फिर से जिया।।