शमां सी पिघलती रही
शमां सी पिघलती रही
रात भर मैं शमां सी पिघलती रही।
दे उजाला तमों को निगलती रही ।।
तो कभी पुष्प बनकर यहां से वहां।
राह पर भारती के बिखरती रही ।।
नारियाँ हैं नहीं आज सुरक्षित यहां।
देखकर दुर्दशा मैं बिलखती रही ।।
वासना से घिरे लोग देखो ज़रा।
बच्चियाँ भी घरों में सिसकती रही ।।
लाड से पालना था कि दुख से बचा।
देख अपने डरी सी सिमटती रही ।।
सत्य से भी भली ये बुराई लगी।
प्रेम-रिश्ते सभी मैं बिसरती रही ।।