दिव्य प्रेम
दिव्य प्रेम
तूने मोह की नगरी से झाँका
मेरे उर में उठी एक चेतना
हरसू हर नज़ारा जीवंत हो गया
आज मुझे प्रेम अनंत हो गया।
रोम-रोम आज मेरा संत हो गया
बैराग छँट गया न द्वेष है न कोई राग
खाली दिल उजियारा ज्वलंत हो गया
शेष ना बचा है कुछ कर दिया समर्पित।
दिव्य तेरी रूह से शाश्वत हो गया
जोगी तेरे जोग से गिरह जो बँध गई
और सारी सुर्खियाँ बेमन सी हो गई
काल चाहे बीते युग नाद एक बस गया।
शब्द तेरे लब पे टिके मंत्र हो गया
आराधना है एक गुप्त मन ही मन रटे हैं मन
देवता की वंदना में बीते मेरे पल
सकल विश्व जाने एक जाँ है दो बदन।
ढोंग ना करे कभी मैं प्रिया है तू प्रियतम
आज दो दिलों को प्रेम ही अनंत हो गया।