यादों का दर्पण
यादों का दर्पण
आज सफाई में जब बाबूजी का कुछ सामान मिला तो उनकी एक बात याद आ गई। वे कहा करते थे-
"बेटा डायरी यादों का दर्पण होती है।"
टेबल पर करीने से बाबूजी की उस अनमोल सम्पत्ति को सजाया और बैठकर उसे देखने लगी तो चलचित्र की भाँति आंखों में कई रंग तैरने लगे।
अभी कुछ आठ साल की रही हूँगी,अवचेतन मन देखने लगा- "सुनो जी आज दूध वाले का और किराने वाले का हिसाब कर दिया है, जरा डायरी में अटका लेना।" माँ की आवाज से बाबूजी तुरन्त जाग्रत हो आना पैसे के हिसाब से लेकर बबलू और मेरे जन्मदिन तक को अटका रखते थे। चूँकि माँ को शब्द ज्ञान नहीं था पर हिसाब उंगलियों पर कर लेती थी, सो अटकाने का काम बाबूजी का।
किसी उत्सव या बुलावे पर गिफ्ट की बात होती तो सजेशन मिलता- "अरे बढ़िया सी डायरी पेन का सेट दो, ये फूल का गुलदस्ता दो दिन में मुरझा जाएगा, लेकिन डायरी में अंकित यादों का दर्पण हमेशा सुंदर चित्र दिखायेगा।"
माँ और में एक दूसरे को देख मुस्कुरा देते।
"वाह रे डायरी प्रेम !" अचानक डोरबेल बजी तो चोंक गई। गेट खोला तो पतिदेव का पदार्पण हो चुका था।
"सुनो वो तुम्हारे मोबाइल में नोट पेड डाउनलोड है क्या ? मेरा मोबाइल थोड़ा गड़बड़ है जरा आज का हिसाब तो लिखना, कल बॉस को बताना है कहीं भूल न जाऊँ।" और मैं खोई देख रही थी उस नॉट पेड को जो इलेक्ट्रॉनिक नहीं था पर हां, भूलने भी नहीं देगा।
"बोलिये, मैं नोट कर रही हूँ।"
