"व्यथा"
"व्यथा"
हम अपनी बेटी के यहाँ पूना रहने आते हैं, कई दिन रहते बच्चों में ख़ूब मन लगता है । मेरे पति का मिलनसार नैचर है।सबसे हालचाल जानना यहाँ तक की सिक्योरिटी गार्ड जो दिन-रात ड्यूटी करतें हैं , अक्सर उनके दुख-सुख में शरीक़ रहना ।
सिक्योरिटी गार्ड भी मेरे पति से बड़े ख़ुश रहतें हैं । कभी - कभी उन्हें चाय -नाश्ते के लिए पैसे दे देतें थे ।
वो सारे सिक्योरिटी गार्ड मेरे पति से कहते "अरे" साहब आप और आपके दामादऔर बेटी आप सब बहुत ही रहम दिल हैं ।यहाँ सोसाइटी में पहला परिवार है कि हम से इतने अच्छे से बात करतें , यहाँ के ये आईटी कम्पनी वाले तो बहुत रौब झाड़ते हैं अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं हम से बात करना ।
मेरे पति घर आकर सुना रहें थे कि एक सिक्योरिटी गार्ड बता रहा था "साहब " पूना की मंहगाई का ये आलम है के हम ग़रीब लोग 3000 हज़ार रुपये महीना कमाने वाले हम एक टाइम की सब्जी तक नहीं ख़रीद पातें। मेरे पति को गार्ड ने बताया कि साहब यहाँ आईटी वाले हर तरफ रहतें है। इन्हें लाखो रुपये सैलरी मिलती है और बड़ी- बड़ी गाड़ी से आते है , कोई भाव- ताव करते नहीं दुकान वाले से सब्जी ख़रीदी और फुर्र से गाड़ी से में बैठ निकल जातें हैं। हम दुकान में सब्जी लेने जाएं तो*भाव आसमान छूते* पचास रुपये किलो टमाटर मिलते हैं। अब क्या ग़रीब खाएं और क्या घर को पैसा भेजें । हम छोटे गाँव से अपने परिवार को छोड़कर रोज़गार के लिए आतें हैं ।
मगर झुग्गी का किराया और रुखी - सूखी खा कर जैसे- तैसे गुज़ारा करतें हैं ,चार पैसा जोड़ कर घर भेजना होता है, बूढ़े माँ- बाप और पत्नी, बच्चों के लिए वहाँ गाँव में कोई मजदूरी नहीं मिलती तो शहरों का रुख़ करतें हैं। यही "व्यथा" है हम ग़रीबों की ।