वक़्त के साथ (दुसरा भाग )...
वक़्त के साथ (दुसरा भाग )...
सरिता को अब समझ आ गयी की अपने बच्चों की और खुद की देखभाल उसको ही करनी होगी। अपने दुकान में पहुँचकर वो कुर्सी में बैठी। दुकान के दो कर्मचारी गोपाल और सूरज सरिता को देखकर ख़ुश हुए। दोनों अपने काम पे लग गये। थोड़ी देर बाद ग्राहक कम हुए और सरिता दोनों को बोली, "देखो तुम्हारे असित भइया के समय से जैसा काम होता था वैसे तुम लोग करो। मैं रोज दुकान आया करूँगी। तुम लोग थोड़ा मुझे समझा देना कैसे और कहाँ दवा रखा जाता है। बाकी मैं धीरे धीरे समझ लुंगी। मैं रोज ग्यारह बजे आऊँगी फिर तीन बजे जाकर खाना खा लिया करूँगी। तुम लोग जैसे पहले एक से तीन बजे के अन्दर एक एक करके खाने जाते थे वैसे जाना। तुम लोग आने के बाद मैं जाऊंगी और फिर शाम को छ बजे वापस आ जाऊंगी। रात को दश बजे हम दुकान बन्द करके जाएंगे। कल के किसी का पैसे देना है तो रात को बता के मेरे से चेक रख लिया करोगे। अगर तुम लोगों को कुछ कहना है तो बोलो, हाँ ये पास का जो कमरा है थोड़ा साफ रखना कल से।" इतना सब सरिता से सुनकर गोपाल और सूरज ख़ुश होकर बोले, "आप जैसे बोले वैसा हम करेंगे।" फिर सरिता कुछ चेक बनाकर रख दी उनको पूछकर। दुकान का काम सँभालने का जो डर सरिता को था वो अब चली गयी। फिर रात के दस बजे दुकान बन्द करके उस दिन का व्यापार के पैसे गिनकर वो अपनी झोली में डाली, उसके साथ पिछले दिनों का सारा हिसाब का खाता भी रख ली।
घर पहुँचकर सरिता हाथ मुंह धोने के बाद रोटी और सब्जी बना के बच्चों को दी और खुद भी खा ली। खाते खाते सरिता बच्चों को बोली, "अशोक तुम्हारा तो अब तीसरी साल हुआ। तुम मन लगाकर पढ़ाई में ध्यान देना। तुमको अपनी कालेज से आने को थोड़ा देर होता है, इसीलिए कल शाम से आरती मेरे साथ जाएगी और अपनी दुकान की बगल वाले कमरे में बैठकर पड़ेगी। फिर मेरे साथ घर आएगी। तुम आते वक़्त दुकान से घर की चाबी लेकर आ जाना। आरती को ठीक से पढ़ाई करना है और जैसे वो उसके पापा को बोलती थी की उसे आई.ऐ. एस बनना है, उसके लिए पूरी तैयारी करनी है। अब तुम दोनों को सिर्फ अपने पढ़ाई और लक्ष के और ध्यान देना है। बाकी सब मुझपर छोड़ दो। जैसे तुम्हारे पापा बोलते थे की वक़्त के साथ चलो और खुद को बदलो, मैं वही करूँगी।" सबका खाना ख़तम हुआ और सब सोने के लिए चले गये। आरती सरिता के साथ उसकी कमरे में गयी।
आरती अब सोचने लगी की उसकी माँ अचानक कैसे बदल गयी। इतनी सारी जिम्मेदारी खुद अपने कंधों पर ले ली। वो बहुत ख़ुश हुई और सोची की अपनी माँ की कुछ मदद करेगी। उसने सरिता के ओर देखी और पास आकर बोली, "माँ कल से सुबह उठकर आप नहाने के अन्दर मुझे बोल देना कौन सी सब्जियाँ काटनी है, मैं काट के रख दूंगी। और सुबह की चाय नाश्ता मैं बना लुंगी। हाँ थोड़ी गड़बड़ होने से मुझे सीखा देना।" आरती से ये बात सुनकर सरिता प्यार से उसे गले लगा ली और उसकी आँखों से आँसू टपक पड़ी। वो बोली, "ठीक है मेरी राज कुमारी। तुझे इतने काम के साथ पढ़ाई करने में तकलीफ नहीं होंगी!" आरती बोली, "तकलीफ कैसी। अपनी घर के काम खुद सब मिलकर करने से बहुत आसान होगा। और फिर मुझे भी तो वक़्त के साथ थोड़ी बदलना होगा। तब तो हम सारे लक्ष हासिल कर सकते है।" सरिता अपनी सत्रह साल की बेटी से ये सुनकर ख़ुश हुई और सोची की जिन्दगी कैसे वक़्त के साथ बदल जाती है।
सुबह सुबह जब सरिता नींद से जागी और कमरे से बाहर आई तो देखी उसकी बेटा अशोक सारे घर और किचन का झाड़ू पोंछा लगा चूका है। सारे बर्तन को भी साफ कर चूका है। वो अशोक से बोली, "अरे बेटा तुम कियूँ इतना तकलीफ उठाया? मैं तो सब कर लेती। तुमको अभी अपनी कालेज भी जाना है।" अशोक बोला," तकलीफ कैसी माँ। अपना काम तो मैंने किया। अब मैं जाकर नहा लेता हूँ। फिर तैयार होकर कालेज निकलूंगा। अब हम सबको अपनी अपनी जिन्दगी जीने के रास्ते वक़्त के साथ बदलनी होंगी। जैसे तुमने बदल ली। और ये तो पापा हम सबको बोलते थे। "ये कहकर अशोक नहाने चला गया। सरिता नाश्ता की तैयारी कर रही थी तो आरती आकर बोली, "मुझे बोलो माँ क्या बनाऊंगी। अब मैं चाय बनाने जा रही हूँ। और सब्जियाँ निकाल के रख दो, मैं काट लुंगी। तुम भी जाकर तैयार हो जाओ। भाई के नाश्ता करते करते मैं भी तैयार हों जाऊंगी।" सरिता आरती को बोली क्या नाश्ता बनाना है और जाकर सब्जियाँ लायी जिसको आरती काटकर रखेगी। वो खुद अपनी सूबे का सारे काम निपटाने अपनी कमरे में चली गयी। जब सरिता नहा धोकर बाहर आयी तो देखी आरती चाय लाकर उसको दी और नहाने चली गयी। सरिता जाकर किचन में देखी की आरती ने उपमा बना दिया है और सब्जियाँ काटकर रख दी। तबतक अशोक तैयार होकर आ गया। उसे नाश्ता देकर सरिता बोली, "तुम दोपहर को आते वक़्त दुकान से चाबी लेकर आना। मैं खाना बनाकर जाऊँगी, तुम आकर खा लेना। बाद में आकर खा लूंगी और आरती भी कालेज से तबतक आ जायेगी। "सरिता की बात ख़त्म होते होते आरती आ गयी और अशोक को पूछी, "भैया बोल नाश्ता कैसा बना ? मैं बनाई हूँ। आज से रोज में बनाऊंगी।" अशोक मुस्कुराते हुए आरती को छेड़ने के लिए बोला," अच्छा, इसीलिए आज ऐसा लग रहा है।" आरती फिर सरिता की ओर देखी तो सरिता बोली, "अरे नहीं, तुम अच्छा बनायीं हों। अशोक तुम्हें छेड़ने के लिए ऐसा बोल रहा है।" सब अपने नाश्ता ख़तम किए। अशोक और आरती कालेज निकल गए। सरिता नाश्ते का प्लेट को साफ की और खाना बनाने लग गई। तब दस बज रहा था। उसे ग्यारह बजे दुकान पहुँचना है। खाना बनाकर वो किचन में रख दी और तैयार होकर दुकान के लिए निकली। तब वो असित के तस्वीर के सामने जाकर खड़ी हुई और रोते हुए बोली, "देखो मैं , अशोक और आरती सब वक़्त के साथ खुद को बदलना शुरू कर दिए। अस्पताल में तो यही कहा करते थे। अब हम सबको आशीर्वाद दीजिए की हम सब इसमें कामयाब होकर आपकी बात का पालन करने में सफल होंगे।" इतने बोलकर अपनी आँसू पोंछकर सरिता दरवाजा बन्द करके दुकान निकल गयी।
