Archana k. Shankar

Abstract Drama Romance

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Archana k. Shankar

Abstract Drama Romance

वो तो एक छलिया था!!

वो तो एक छलिया था!!

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अपने आलमारी को साफ़ करते हुए मोहिनी के हाथ पुराना एल्बम लगा शादी के पहले की तस्वीरों को देखते देखते मन का हर कोना भीग गया!

बचपन की तस्वीर माँ पापा की गोद मे बैठी मोहिनी, भाई बहनों के साथ उछालती कुदती मोहिनी! सारे भाई बहनों जन्मदिन के तस्वीरें! ये सारी तस्वीरें देख उसके ह्रदय मे ही मायके ने जैसे फिर जन्म ले लिया, वो फिर उन पलों को जीने लगी तस्वीरें देखते देखते एक ऐसी तस्वीर हाथ लगी जिसे देख वो चौक सी गई.. स्कूल बारहवीं के फेयरवेल की तस्वीर!

और उस तस्वीर में वो था राजीव! उसे तस्वीर में देख आज भी वो नजरें चुराने लगी लगा जैसे किसी ने बिजली का झटका दे दिया था दिमाग एकदम सुन्न पड़ गया..

"ओह क्या कर दिया था मैंने!!"

. सोचते हुए अतीत के उस दौर में चली गई जिस दौर से उसे नफ़रत सा था और प्यार भी.. वो अपनी कहानी खुद को सुनाने लगी..


कैसे दसवीं पास करने के बाद ग्यारहवीं में मेरा एडमिशन शहर के सबसे महंगे स्कूल में हुआ मेरी ही जिद्द थी माँ से कि बाबु जी से कहिये कि अब मैं इस छोटे से स्कूल में नहीं पढ़ूंगी और मेरी सारी सहेलियों ने भी उसी स्कूल में एडमिशन लिया है!

बहुत जिद्द की कई दिनों तक खाना पीना छोड़ दिया तब बाबु जी मेरा एडमिशन कराया था उस स्कूल में आज उस जिद्द पर गुस्सा आता है चार भाई बहनों के परवरिश के लिए बाबु जी को जी-तोड़ मेहनत करनी होती थी सरकारी नौकरी ऊपर से खाली समय में बड़े बड़े दुकानों के अकाउंट देखते ताकि घर में कुछ अतिरिक्त पैसा आ सके.. हम भाई बहनों के किसी शौक को पूरा करने ना हिचकते!

स्कूल में एडमिशन करा दिया गया पूरी तैयारी से स्कूल में पहुंची अपने दोस्तों का सारा गैंग था वहाँ सो कोई परेशानी नहीं हुई हम सब ने स्कूल को जल्दी ही अपना लिया... पढ़ने में अच्छी थी सो सभी शिक्षकों की प्रिय हो गई, एक तरह से कहा जाएं क्लास को लीड करने लगी मैं!

समय के साथ पुराने सहपाठियों से मेल मिलाप हुआ सभी अच्छे थे को लेकिन राजीव को कैसे भूल सकरी हूँ जिसकी निगाहें हर वक़्त मेरे पर होती, मैं जब उसे देखती तो वो मुस्करा रहा होता जैसे कह रहा हो कि हाँ मैं तुम्हें निहार रहा था!

उसके ढीठ नजरों को देख मैं शर्मा जाती और उतना ही गुस्सा आता, अब तो सहेलियाँ भी उसको लेकर छेड़ने लगी मुझे, हर वक़्त उसकी नहरें मुझपर होती ये मुझे पता था, देखने में क्लास का सबसे स्मार्ट लड़का और रहन सहन से अच्छे घर का समझ आता। क्लास की सारी लड़कियां उस पर मारती थी एक मैं ही थी जो उसे घास नहीं डालती, लेकिन उसका भी उसे फर्क़ नहीं पड़ता, धीरे धीरे ही सही मुझे उसकी नजरों की आदत सी हो गई जब वो इर्दगिर्द नहीं होता तो दिल में अजीब सी बेचैनी सी होती, मन होता कि खूब रो लूँ!


ये क्या था प्यार? उसने अपने नजरों के खेल में मुझे परास्त कर दिया, अब मैं भी धीरे धीरे उसके नजदीक खींचती चली गई! आँखों आँखों मे जाने कितनी बातें कहीं और सुनी जाने लगी, जाने कितनी कशिश थी उसकी आँखों में कि जब भी गहराई से मेरी आँखों मे झाँक भर लेता मैं मदहोश सी हो जाती.. कानों के पास जैसे किसी ने जलते अंगारे रख दिये हों ऐसा प्रतीत होता आँखें मूँद सी जाती, जो भी था वो नजरों का जादूगर था!

क्लास में आते जाते उठते बैठते मेरे हाथों को छू कर जाता, तब एक बिजली सी दौड़ जाती मेरे रोम रोम में! कुछ दिनों में चिट्ठी पत्री का दौर शुरू हो गया क्लास में सभी की नजरों से छुप कर पत्र मेरे पास छोड़ जाता, उन प्रेम पत्रों को रात भर जाग कर हजारों बार पढ़ती, रातों की नींद गायब सी हो गई हाँ सुबह होने से पहले उन पत्रों को अपने स्कूल बैग में सहेजना नहीं भूलती क्यों कि बड़े से घर में चार भाई बहनों के बीच ये खेल कभी भी पकड़ा जा सकता था।

उस तस्वीर के नीचे वो पत्र भी पड़े थे पुराने पीले अपने अस्तित्व को खोते हुए से.. और सही पूछो तो उनका अस्तित्व था भी नहीं, उनमें लिखे सारे शब्द बेमानी से ही थे, फरेबी से छलिया जिन्होंने उसके अस्तित्व और हृदय को छला था..


प्यार का लुका छिपी का ये खेल बहुत दिनों तक नहीं चल पाया एक दिन माँ ने कहा..


"बिट्टू! दे तेरा बैग सिलने को दे दूँ अनिल ले जा रहा है अपना बैग, कह रही थी ना कि सिलाई खुल गई है बैग की! "


हाँ माँ अभी देती हूँ बड़े सतर्कता से बैग खाली किया सब कुछ जहाँ रखा था निकाल लिया बस ये ध्यान नहीं कि जो पत्र राजीव ने आज दिया था वो बाहर टिफिन वाले पॉकेट में रह गया था निश्चिंत होकर दे दिया बैग!


कुछ देर बाद अनिल भईया गुस्से में तमतमाते हुए घर के आँगन में जोर जोर से मुझे पुकारने लगे मैं दौड़ी आई तब तक माँ वो पत्र अपने हाथ में लेकर पढ़ रही थी पत्र खत्म होते ही धम्म कर आँगन की सीढ़ियों पर बैठ गई!


छि..!! कैसा बेशरम लड़का हैं ऐसी बेहाई वाली बातें छि छि.. कहते हुए माँ मेरे तरफ देखने लगी..


उनके आग्नेय नेत्रों से बरसती आग में जैसे मैं जलने लगी भय से काँपते हुए मेरे मुँह से यही निकला माँ मुझे माफ़ कर दो तभी अनिल भईया का जोरदार थप्पड़ मेरे कान सुन्न हो गए लगे जैसे दुनिया में मैं अकेली कोई आवाज नहीं कोई शोर नहीं.. मैं चुप होकर वही बैठ गई अब तो कुछ कहने सुनने के लायक नहीं बची, छोटी बहन डर के मारे माँ की गोद में दुबक गई

" माँ माँ क्यों रो रही हो बाबु जी को बुला लो ना भैया!"

कहकर वो भय से रोने लगी क्या हो रहा था उसके समझ से परे था, तब माँ ने उसे अपने सीने से चिपटा लिया।


शाम होने को ही था घर में मरघट सा सन्नाटा, बाबु जी के आने का समय था मैं भय और शर्म से मरी जा रही थी, ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि बाबु जी के आने से पहले मेरी मौत हो जाए, आज समझ आ रहा था कि क्या गलत किया मैंने बाबु जी के विश्वास और निष्ठा का खून किया था और उसके बाद मुझे जीने का हक तो नहीं था।।


बाबु जी आयें अनिल भईया और माँ ने कुछ कहा बाबु जी शांत कुछ नहीं कहा कोई हलचल नहीं, अपने दैनिक कर्म की भाँति हाथ मुँह धोया, एक कप चाय पी और मेरे कमरे में आ गए,..


"मोहिनी आ बेटा चल खाना खा ले! "


ऐसे शांत भाव से मुझे बुला रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं मैं भय से रो रही थी, लगा बाबु जी ऐसा क्यों कह रहे क्या कुछ बहुत बड़ा होने वाला है उसके साथ!


"आजा बेटा मुझे बड़ी भूख लगी है! अच्छा ये बता ये लड़का क्या राजीव.. राजीव केडिया है?


हाँ बाबु जी कहते हुए रोते हुए मैं जमीन पर बैठ गई।


" उठ ना बच्चे चल खाना खाते हैं देख मैं आज तेरे पसंद की रबड़ी ले आया हूँ चल माँ रोटी सेक रही हैं कब तक उन्हें परेशान करेंगे! "


मैं उठी समझ नहीं आ रहा था क्या हो रहा है बाबु जी के चेहरे पर गुस्से का भाव तनिक मात्र भी नहीं था, ये क्या है कहीं बाबु जी और सब मुझे खाने में जहर देकर मार देंगे क्या.. ठीक ही है अगर ऐसा हो तो भी इतने प्यारे माँ बाबु जी को ऐसा घाव दिया है तो ये दंड भी छोटा! सोच चल दी बाबु जी के साथ सहर्ष प्राण त्यागने के विचार को लेकर।


निर्मला जी खाना परोसिए मेरी बेटी आ गई, माँ की आँखों मे चूल्हे की आग से भी तीव्र आग प्रज्वलित हो रही थी उसी आग्नेय दृष्टि से बाबु जी को देखा तो वो मुस्कराने लगे..


"निर्मला जी खाना परोसिए और खाने के बाद हम कुल्फी खाने चलेंगे राजा जी पार्क ठीक है! "


मेरे साथ घर के सभी लोगों को बाबु जी का व्यवहार समझ नहीं आ रहा था खाना खत्म कर सभी निकल पड़े बेमन से माँ बड़े भैया और छोटे भईया तो गुस्से में जले भुने जा रहे थे हाँ कृष्णा मेरी छोटी बहन वो उत्साहित थी कुल्फी के नाम पर उसे लगा सब ठीक है।


भयवश मेरे कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे बाबु जी मेरा हाथ थामे गुनगुनाते हुए चले जा रहे थे जैसे कोई फ़कीर जिसे जीवन और मृत्यु का भय ना हो!


राजा जी पार्क पहुँच हम कुल्फी के ठेले की तरफ़ नहीं गए अलबत्ता बाबु जी हमे पार्क के अंदर ले गए थोड़ा अंदर जाने के बाद जंगल का हिस्सा शुरू होता था उन्हीं झाड़ियों में कुछ लोग बैठे नशा कर रहे थे..


"बेटा ध्यान से देख तो क्या इसमें राजीव भी है? "


दूर खड़े बिजली के पोल पर लगे बल्ब की मध्यम रौशनी के बीच ध्यान से देखा तो सचमुच वहाँ राजीव था और क्लास के सारे दोस्त.. शराब की बोतलों और सिगरेट के बीच राजीव बेहोश सा पड़ा था।


उसको देखते ही मेरे कदम पीछे हुए बाबु जी साथ आए आए पार्क के एक बेंच पर बैठ गए मेरा हाथ पकड़ बैठा लिया..


"मेरी गुड़िया! जानता था कि ये तुम्हारे क्लास में पढ़ता है इसके पिता जी के साड़ियों की दुकान पर मैं कभी कभी अकाउंट मिलाने जाता हूँ, बिचारे बहुत भले इंसान हैं, बातों ही बातों मे एक बार उन्होंने राजीव का जिक्र किया था, वो इससे बहुत परेशान है इसके नशे की आदत ने उन्हें परेशान कर रखा है, अब बता क्या तुझे इसमें अपना जीवन साथी दिखता है? "


मैं खड़ी हो गई पिता जी के पैरों पर गिर पड़ी..


" बाबु जी मुझे माफ कर दीजिए मैं बहक गई आप जैसे देवता के भावनाओं को आहत कर बैठी बाबु जी!"


नहीं कोई बात नहीं बस इसे हादसा समझ भूल जा लेकिन बेटा इस गलती से सबक ले इंसान पहचान और पहले अपने जीवन के लक्ष्य को पहचान, बेटा अभी तू बहुत छोटी है अभी अपनी पढ़ाई पूरी कर!"


कहते हुए बाबु जी ने गले लगा लिया ये सब देख माँ के आँखों से आँसू बहे जा रहे थे माँ ने भी मुझे सीने लगा लिया अनिल भईया के सामने हाथ जोड़ खड़ी हुई क्यों कि पिता जी की तरह वो सिर्फ हमारे बारे में सोचते थे बाबु जी तनिक कम नहीं थे मेरे लिए..


पगली कहीं की! कहते हुए माथे पर पितृत्व भरा हाथ फ़ेर दिया।


"अच्छा भाई चलो सब कुल्फी तो खा लें क्यों कि कुल्फी वाला की कुल्फी ना पिघल जाए,, बाबु जी चलिए ना! "


छोटी सी कृष्णा भी कुछ कुछ समझ ही रही थी बड़े चाव से कुल्फी की याद दिलाई तो सब मुस्कराते हुए चल पड़े कुल्फी वाले की तरफ़।


दूसरे दिन बहुत सजग होकर स्कूल पहुंचीं राजीव से दो टूक में सब कुछ साफ़ साफ कह दिया जो कुछ कल हुआ था और एक तरह से चेता दिया कि आइंदा उससे दूर रहें नहीं तो बाबु जी को स्कूल बुला लेगी।


संजोग अच्छा था बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा शुरू होने वाली थी इम्तहान दिया और पास होकर कॉलेज मे एडमिशन मिला और सबसे अच्छी खबर की ईश्वर की दया कि वो फिर कभी नहीं टकराया मुझसे.. बस ये तस्वीर उसी फेयर वेल की है.. उस छलिया की आँखों मे आज भी देखने से डरती थी शायद मोहिनी तभी तो झट से उस एल्बम को बंद कर दिया।


क्या देख रही हो मेम साहब पुराने दौर मे चली गई मुझे ना भूल जाना कहते हुए नीलेश उसे छेड़ने लगा..


"चुप रहो नीलेश मुझे ऐसा मज़ाक पसंद नहीं, तुम जानते हो वो मेरी बेवकूफी थी! "


सच ही तो था अपनी एम ए. की पढ़ाई के दौरान मैं नीलेश से मिली मेरे ही कॉलेज मे नए नए लेक्चरर बन आयें थे मेरे और इनके उम्र मे कुछ सालों का ही फासला था एक दिन अचानक नीलेश ने मुझसे प्यार का इजहार कर दिया, मैंने इनके हृदय की सच्चाई सच्चे प्यार को जान लिया मुझे भी उनसे सच्चा प्यार हुआ था और बाबु जी के सामने निःसंकोच बिना भय खड़ा कर दिया और बाबु जी ने दिल से इन्हें स्वीकार कर लिया.. सच्चा प्यार तो नीलेश से मिला था वो तो एक छलिया था!!


दोस्तों मेरी नई कहानी उम्मीद है कि आप सभी को पसंद आएगी..



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