कनिया!! (वो अपराधिन नहीं थीं)
कनिया!! (वो अपराधिन नहीं थीं)


"वो बला की खूबसूरत थी! "
"कौन? किसकी बात कर रही हो जिज्जी! "
वो जो सामने छत पर खड़ी है ना.. अनामिका!
मुग्धा ने गम्भीर मुद्रा में अपनी देवरानी स्नेहा से कहा, उसके चेहरे पर एक विषाद की रेख सी खिंच आई, और अनकहे दर्द से जैसे चेहरा सफ़ेद पड़ गया..
हाँ जिज्जी खूबसूरत तो बहुत है वो लेकिन जाने क्यों चेहरे पर पाप सा झलकता है जैसे कोई अपराधिन हो..विषाद की ऐसी रेखा दिखती है ना कि पूछो मत, कल सब्जी लेते समय देखा था उन्हें, अधेड़ सी है, लेकिन खूबसूरती ऐसी कि देखने वाला अपनी राह भूल जाएं ! "
" लेकिन जिज्जी एक बात कहो तुम तो उनसे मिली नहीं फिर कैसे जानती हो उनको?"
स्नेहा ने आश्चर्य दिखाते हुए पूछा..
"वो अनामिका भाभी हैं स्नेहा.. काकी की बहू, राघव भैया की पत्नी.. सच ही है बहुत बड़ी पापिन है वो औरत, अपराध किया था उसने, अपने पति के विश्वास को छला था उसने!"
स्नेहा को उस औरत के बारे में कहते कहते वो अतीत की गलियों में विचरने लगी...
पच्चीस साल पहले..
" अम्मा हम जाएं कनिया से मिलने काकी के घर?"
पूछा और बिना माँ के जवाब मिले नन्ही मुग्धा भाग गई काका के घर कनिया ( नई नवेली दुल्हन) से मिलने राघव भैया की कनिया से मिलने, बला की खूबसूरत थी, जादूगरनी सी बड़ी बड़ी आँखों वाली दूध सी उजली, ऐसी मनमोहिनी कि पूरे गाँव में लोग राघव भैया के किस्मत से जल भुन उठे थे।
घर पटीदार के जवान लड़के दिन रात ज़मे रहते कनिया के महफिल में, उनकी आवभगत मे कि कहीं राघव भैया की तरह उनकी किस्मत खुल जाए कि भाभी अपनी तरह कोई उनके लिए भी ढूँढ दे!
नन्ही मुग्धा भी दिन में कई बार जा गिरती कनिया की गोद में... वो उसे सीने से चिपका कर बोलती..
"क्यों री कहा थी अब तक तेरे भैया से बताशे मँगवा के रखे थे..इतनी बेर कर दी आने मे तो सोचा अब इसे कुमुद को दे दूँ! "
"कनिया! मैंने बेर थोड़ी करी अम्मा ने पकड़ लिया हमे.. कहा उतनी सुघड़ कनिया के पास भूत बन जाएगी क्या, पहले नहाया, बालों मे तेल डाला, फिर चोटी गाँछी, तब आने दिया, तो बताओ हमारी क्या गलती?"
तब कनिया चार बताशे रख देती उसके हाथ पर और वो ठुमक ठुमक नाचने लगती और उसे देख कनिया खिलखिला कर हँस पड़ती।
सीधे साधे पति को बहुत स्नेह करती थी अनामिका मतलब मुग्धा की कनिया! दोनों के व्यक्तिव में जमीन आसमान का अन्तर लेकिन दोनों पति पत्नी का रिश्ता निभा रहे थे.. एक बेटी पैदा हुई बिल्कुल माँ की तरह उतनी ही अलंकरण से सुशोभित.. माँ सी बड़ी बड़ी आँखें, दूध सी उजली काले घुँघराले बाल बड़े भैया बहुत खुश, अनामिका भी खुश थी लेकिन जाने किसकी नजर लाग गई बड़के भैया की खुशियों को.. किसकी क्या अमोल की लग गई.., वो बदजात जाने कैसे जान गया कि अनामिका पति से पूरी तरह संतुष्ट नहीं, मन के भेद को जान अनामिका के लिए अपने मन में जगह बना ली धीरे धीरे कब अनामिका के हृदय में बसा कि एक रात अनामिका ने मर्यादा की सारी सीमा लांघ दी वो चली गई उसके साथ दूध मुही बच्ची और पति के निश्चल प्यार को अपने घिनौने कृत्य के कदमों के नीचे मसल कर!
वो चली गई लेकिन राघव भैया ने सुध बुध सी खो दी बिना खाए पीए दिन रात उसे ढूंढ़ते और ऐसे ही धीरे धीरे मानसिक संतुलन खो कर शून्य से हो गए, उस दूध मुही बच्ची को दादा दादी ने पाला अभी पिछले बरस ही तो उसका ब्याह किया मुग्धा भी गई.. राघव भैया तब भी सबसे पूछते..
"अनामिका को देखा क्या, कहीं दिखी क्या? जाने कौन हर ले गया उसे! मैं लेकर आऊंगा देख लेना एक दिन! "
जब गुस्से में कोई कह देता
"क्यों उसे याद करते हो? वो पापिन थी, अपराधी है वो तुम्हारी,
तुम्हारी बेटी की माँ पिता जी की! "
तो चिल्ला पड़ते..
" नहीं है वो पापिन.. रोज रात आती है वो मेरे पास, मेरा ख्याल रखती है वो.. उसने अपराध नहीं किया, मैं था जो उसे खुश नहीं रख पाया!"
उनकी बात सुन मुझे भी यकीन सा होने लगा था वो पापिन नहीं थी शायद! कोई कमजोर लम्हा रहा होगा शायद उनका जो उन्हें अपराधिन बना गया, या सचमुच अमोल उन्हें हर ले गया, इस सीता ने भी शायद लक्ष्मण रेखा लांघी थी !
उन्हें याद कर मुग्धा के आँखों से आँसू बहने लगे..
" दीदी मैं तो कहती हो एक बार मिल लो उनसे पता तो चले क्या बात थी क्यों वो अपना घर संसार छोड़ पलायन कर गई थी!"
स्नेहा ने कहा तो ये बात मुग्धा को भी उचित लगी एक बार जाकर उनसे पूछूं तो कि क्या कमी थी भईया मे जो ऐसे छोड़ कर चली गई..
दूसरी सुबह पहुंची उस दरवाज़े पर दस्तक दिया दिल जोरों से धड़क रहा था..
"कौन??? मुग्धा आ ना! "
कनिया! पहचान लिया तुमने मुझे? "
" हाँ रे तुम सब से दूर कहा थी.. एक मर्यादा लांघी थी उस रात सुबह को होश आया लौटी तो पूरे गाँव मे थू थू हो रही थी.. गिर जाना चाहती थी तेरे भैया के चरणों मे, नाक रगड़ माफी मांगती जानती थी रे! कि वो मुझे माफ़ कर देते लेकिन बिट्टू का चेहरा याद आया तो तब होश आया कि इस अभागिन माँ ने समाज मे उसके लिए कालिख ही छोड़ा है, तेरे भैया मुझे माफ़ कर अपना लेते भी तो बिट्टू का क्या होता! उसके आगे के जीवन मे मेरे अभिशापित जीवन का स्याह अंधेरा पड़ता... वो क्यों जिए मेरे अभिशाप को..!"
" मैं कभी कभार रात अंधेरे मे तेरे भैया से मिलने आती थी वो लोगों से कहते तो लोग उसे उनका पागलपन समझते.. बिट्टू का ब्याह हो गया अब मैं निश्चिंत हूँ देख तेरे भैया को साथ लेकर आई हूँ, लेकन हाय रे मेरा दुर्भाग्य कि जिस दिन इन्हें लेने घर पहुंचीं, पक्षाघात ने इनके शरीर को कैसे निर्जीव बना दिया था ये निर्जीव से बिस्तर पर पड़े थे माँ बाबु जी हैरान परेशान थे, मुझे देख माँ मुझ जैसे अपराधिन के गले लग रो पड़ी.. बाबु जी की सुखी आँखों मे विवशता की गहरी रेखा देख उनके चरण पर गिर पडी मैं! मुझ जैसी पापिन को माँ बाबु जी ने क्षमा दान देकर अभिशाप से मुक्त कर दिया.. उनके बेटे को उनसे मांग ले आई इस शहर मे कि अपने पापों का प्रायश्चित कर पाऊँ! "
" कनिया! आप पहले क्यों नहीं? "
" आई कहते हुए मुग्धा उनके गले लाग गई.. अच्छा चल भैया से मिल ले बताशे नहीं है आज मेरे पास गुड़ खिलाती हूँ तुझको...! "
कहते हुए हाथ पकड़ ले गई कमरे मे राघव भैया.. वो थे ही नहीं जो आज तक थे उनका शरीर निर्जीव था लेकिन चेहरे पर संतोष का भाव था उसे देखते ही"
"आ... आ...! "करके हंसने लगे आँखों से अश्रुधारा बह चला.. जैसे कहने लगे
" देख तेरी कनिया को ले आया खोज कर, मैं ना कहता था कि वो पापिन नहीं है, कोई छलिया उसे हर ले गया है! "
" हाँ हाँ मुग्धा से ढ़ेर सारी बाते कर लेना पहले ठीक हो जाओ बाजार से बताशे लाने है उसके लिए..!"
कहते हुए सिर सहला दिया माथा चूम लिया पति का, उन दोनों के चेहरे पर आनंद और प्यार का पवित्र भाव देख यकीन ही नहीं हुआ कि इस अपराधिन ने लेस मात्र भी पाप किया हो.. शायद वो बर्षों से अग्नि परीक्षा दे रही थी जिसके ताप से उसका एक रात का पाप जल कर स्वाहा हो चुका था।
मौलिक रचना (सर्वाधिकार सुरक्षित) ©®
अर्चना के शंकर (अर्चना पाण्डेय)