वो बदनसीब औरत
वो बदनसीब औरत
वो बदनसीब औरत,
भटकती आत्मा की तरह भटक रही थी,
उसके मन की व्यथा,
उसके चेहरे पर दिखाई दे रही थी,
उसके चेहरे को देखकर,
ऐसा लगता था कि,
उसके मन में तूफ़ान उठा है,
उसकी स्थिति ऐसी थी,
न उस तूफ़ान को दबा सकती है,
न किसी को बता सकती है,
मैंने उससे पूछा,
ऐसा कौन सा दर्द,
अपने मन में तुमने छुपा रखा है ??
जिसे बताने से घबराती हो??
बता दो मन को सुकून मिल जाएगा,
तुम्हारी आत्मा पर से बोझ उतर जाएगा,
वरना यूं ही भटकती रह जाओगी,
दिल का दर्द दिल का नासूर बन जाएगा,
मुझे देखो मैं कितनी खुश हूं,
तुम भी मेरी तरह खुश होकर,
खुशी के गीत आओ,
मन का दर्द मन से बाहर लाओ,
मेरी बात सुनकर,
वह अट्टहास करने लगी,
मैं तेरी तरह झूठ का मुखौटा पहनती नहीं,
जो मेरे दिल में है,
वही मेरे चेहरे पर भी दिखाई देता है,
झूठ को सच,
सच को झूठ मैं कहती नहीं,
तू कितनी खुश है??
सच-सच बता??
दिल में बेशुमार दर्द ,
चेहरे पर मुस्कान लिए फिरती है,
मेरी तरह तू भी एक औरत है,
मुखौटे लगाना हम औरतों की फितरत है,
अपने दर्द को भी व्यक्त करने से डरते हैं,
यह दुनिया वाले क्या कहेंगे,
यह सोचते हैं,
कभी अपने लिए सोचा नहीं,
अपनी ख्वाहिशों का गला घोंटा,
दूसरों के चेहरे की मुस्कान के लिए,
खुद को अस्तित्व विहीन किया,
दूसरों के सम्मान के लिए,
फिर भी क्या पाया??
जिल्लत, रुसवाई,
दर्द और बेवफाई,
इसलिए अब मैंने मुखौटा उतार दिया,
जो दिल में दर्द और तूफ़ान है,
उसे अब मैंने स्वयं से बयां किया,
मेरे दिल की दास्तां,
चेहरे पर आ गई,
मैं अपने ही वज़ूद को,
पाने के लिए भटक रही हूं,
इसलिए तुम्हें भटकती हुई,
आत्मा दिखाई दे रही हूं,
जिस दिन तुम भी,
अपना झूठ का मुखौटा उतार दोगी,
मेरी तरह स्वयं को खोजने,
निकल पड़ोगी,
लोग तुम्हें भी मेरी तरह,
भटकती आत्मा समझेंगे,
क्योंकि जो स्वयं को खोजता है,
वह सामान्य कहां रह जाता है,
अपने अस्तित्व को बचाने में,
वह असामान्य हो जाता है।।