वो आखिरी लम्हें
वो आखिरी लम्हें
अक्टूबर का महीना था वो....दो दिन के बाद करवाचौथ थी। सुनीता जी कई दिन पहले से करवाचौथ की तैयारी करने में लगी हुई थीं। लगभग सभी तैयारी पूरी हो चुकी थी, सिर्फ पूजा का सामान लाना बाकी था। सुनीता जी दो दिनों से बाजार जाने का सोच रही थीं, लेकिन त्योहारों का समय था.... घर में इतना काम फैला हुआ था कि वे जा ही नहीं पा रही थी। अभी बस वे काम निपटा कर चाय लेकर बैठी ही थीं, कि महेश जी ऑफिस से आ गए।
"अरे! आज तो आप बहुत जल्दी आ गए।"
"हाँ, आज काम कुछ कम था, तो सोचा आज जल्दी निकल लेता हूँ।"
"रिया बेटा, जरा अपने पापा के लिए भी एक कप चाय ले आना।"
रिया ने चाय लाकर महेश जी को पकड़ाई और जाकर अपनी पढ़ाई करने लगी।
चाय पीते-पीते महेश जी ने कहा- "तुम्हारा कुछ सामान बाकी है न लाने के लिए, चलो ले आते हैं।"
"पर अभी-अभी तो आए हैं आप, थोड़ा सुस्ता लेते।"
"नहीं... फिर बहुत देर हो जाएगी।"
"कैसी देर...?"
"कुछ नहीं... चलो तुम जल्दी से तैयार हो जाओ।"
थोड़ी देर बाद महेश जी सुनीता जी को लेकर बाजार चले गए। उन्होंने सुनीता जी को सारा सामान दिलाया।तभी उनकी नजर एक चूड़ियों की दुकान पर पड़ी। करवा चौथ का समय था, तो दुकान पर भारी भीड़ थी। लेकिन शोकेस में लगी हरी चूड़ियाँ दूर से ही महेश जी को भा गई थीं।
महेश जी को चूड़ियों की दुकान की तरफ इस तरह से देखते हुए सुनीता जी पूछ बैठीं- "क्या हुआ, क्या देख रहे हैं आप...?
"वह देखो, वह हरी चूड़ियाँ सुंदर लग रही है न... ले लो अपने लिए!!"
"अरे! आप कब से इन सब में ध्यान देने लगे...!"
महेश जी ने एक नजर सुनीता जी की तरफ देखा और बढ़ चले दुकान की ओर।
"अरे! पर सुनिए तो...देखिए न दुकान में कितनी भीड़ है, यहाँ तो चूड़ियाँ लेते-लेते रात हो जाएगी और वैसे भी मेरे पास चूड़ियाँ हैं।"
महेश जी ने कई बार कहा, लेकिन सुनीता जी ने उनकी एक न सुनी और दोनों घर लौट आए। रात को खाने की मेज पर रिया ने बताया कि अगले साल होने वाले बोर्ड एग्जाम के लिए कल स्कूल में रजिस्ट्रेशन फॉर्म भरना है जिसके लिए महेश जी का स्कूल में जाना जरूरी है।
"लेकिन कल तो मुझे बहुत जरूरी मीटिंग के लिए मुंबई जाना है।" महेश जी ने कहा।
"क्या, आपको मुंबई जाना है... पर आपने तो मुझे बताया ही नहीं और कल क्यों जा
ना है!!"
"अरे यार.... अच्छा मैं तुमसे बाद में बात करता हूँ, बेटा तुम कल अपनी मम्मी को अपने साथ ले जाना।"
"पर पापा टीचर ने तो आपको ही बुलाया था", रिया ने महेश जी की बात का जवाब दिया।
"कोई बात नहीं बेटा, आप अभी मम्मी को ले जाना... मैं फिर कभी आपकी टीचर से मिल लूंगा।"
रिया को समझा कर महेश जी ने सुनीता जी की तरफ देखा, उनका चेहरा एकदम उतर चुका था। जैसे-तैसे उन्होंने बेमन से खाना खाया...महेश जी सब देख रहे थे,पर बोले कुछ नहीं।
रात को सब काम निपटा कर जब वे अपने कमरे में पहुँचीं, तो महेश जी अपनी पैकिंग करने में लगे हुए थे। सुनीता जी वहीं पलंग के किनारे बैठ गईं।
"कल ही जाना जरूरी है...?
"अगर जरूरी ना होता, तो बिल्कुल न जाता।"
"पर आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया...?"
"अगर पहले बता देता...तो ये उदास चेहरा, जो मैं अब देख रहा हूँ, पिछले चार घंटे से देखना पड़ता..." महेश जी ने सुनीता जी का चेहरा अपने हाथों में लेते हुए कहा।
"पर दो दिन बाद करवा चौथ है...."
"तो क्या हुआ, मेरी तस्वीर देख लेना..."
सुनते ही सुनीता जी को ऐसा लगा, जैसे किसी ने उनके दिल पर हथौड़े से वार कर दिया हो और बरबस ही उनकी आँखों से निर्झर आँसुओं की धारा बहने लगी।
एक वह दिन था और एक आज का दिन है...सुनीता जी हर साल महेश जी की तस्वीर देखकर ही करवाचौथ का व्रत खोलती हैं। तेईस बरस हो गए हैं लेकिन नियति ने उनके साथ ऐसा खेल खेला....जो लाख कोशिशें करने के बाद भी आज तक समझ नहीं आया। उस दिन महेश जी ऐसे गए, कि फिर कभी लौटकर नहीं आए। कोई नहीं जानता उनके साथ क्या अनहोनी हुई.... वह जीवित भी हैं या.........
कभी-कभी दुर्भाग्य खुद अपने आने की खबर हमें दे देता है लेकिन हम समझ ही नहीं पाते। किसे पता था कि महेश जी के द्वारा सहज ही बोला गया वाक्य सुनीता जी की किस्मत बन जाएगा.... आजीवन उन्हें महेश जी की तस्वीर देखकर ही संतोष करना पड़ेगा। आज भी उन्हें यह मलाल रहता है कि काश! वे करवाचौथ का बहाना करके ही उन्हें रुकने पर मजबूर कर देतीं.... काश! उन्होंने उनकी काम की मजबूरी को न समझा होता।
उन हरी चूडियों को देखकर उन की आँखों में जो चमक थी, वो आज भी सुनीता जी को कसमसा जाती है। काश ! उस दिन उन्होंने उनका दिल रख लिया होता...!!!
ये अनगिनत काश ही हैं, जो अब उनकी जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं.......