प्रण
प्रण
हाथों में मेडल लिए, सामने से आती अनन्या को देखकर कंचन जी और अनुपम जी खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। आंखों में प्रशंसा और गर्व की मिश्रित अनुभूति लिए, वे दोनों लगातार अनन्या को ही देख रहे थे। अनन्या ने आकर उन दोनों के पैर छुए और आशीर्वाद लिया। तभी कुछ पत्रकार वहां आए और अनन्या से सवाल-जवाब करने लगे।
उन लोगों की बातें सुनते-सुनते कंचन जी और अनुपम जी एक दूसरे की ओर ही देख रहे थे। सहसा उन्हें साल भर पहले का वह मंजर याद हो आया... जब तिरंगे में लिपटा, उनके इकलौते बेटे पुष्कर का पार्थिव शरीर आया था। मातृभूमि की रक्षा करते-करते, दुश्मनों से अपने प्राणों की रक्षा न कर पाया था वह, और शहीद हो गया था। उन पर तो जैसे बिजली ही गिर पड़ी थी। लेकिन जब अनन्या का ख्याल आया, तो दोनों ही सुन्न पड़ गए।
कैसे उस बच्ची को यह मनहूस खबर सुनाएंगे। अभी चार महीने पहले ही तो पुष्कर से ब्याहकर, इस घर की बहू बनाकर लाए थे उसे.... उफ्फ! यह सब देखने से पहले हम मर क्यों नहीं गए, उस ईश्वर का कलेजा नहीं कांपा उस मासूम के भाग्य में यह दुख लिखते हुए ...कंच
न जी बिफर पड़ी थीं।
कुछ महीनों पश्चात उन दोनों ने एक निर्णय लिया।
"अनन्या! बेटा, हम चाहते हैं कि तुम अपनी जिंदगी में आगे बढ़ो। अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है। चार महीनों की यादों के सहारे जिंदगी तो नहीं कटेगी न..." अनुपम जी ने कहा।
"जी पापा, आप सही कह रहे हैं। मैं भी अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहती हूं। मैं भी नहीं चाहती कि पुष्कर के प्यार और उसकी यादों को मैं अपनी कमजोरी बनने दूं और एक ही मोड़ पर खड़े-खड़े अपना जीवन व्यर्थ बिता दूं। इसीलिए मैंने तय किया है कि पुष्कर की जगह मैं आर्मी जॉइन करूंगी और देश-सेवा के जिस प्रण को पूरा करते-करते पुष्कर शहीद हो गए, उस प्रण को अब मैं निभाऊंगी।"
"लेकिन बेटा, क्या ये ठीक रहेगा....?" भर्राए गले से कंचन जी ने पूछा।
"मैं नहीं जानती मां, यह ठीक रहेगा या नहीं.... मैं यह प्रण पूरा कर पाऊंगी या नहीं....लेकिन मेरे जीने का अब यही एक मकसद है।"
अनुपम जी ने मुस्कुराते हुए कंचन जी की ओर देखा और अनन्या के सिर पर हाथ रखकर अपना आशीर्वाद दे दिया।
समाप्त