विश्वासघात--भाग(५)
विश्वासघात--भाग(५)
पन्द्रह अगस्त का जलसा खत्म होनें के बाद डाँक्टर महेश्वरी, मास्टर साहब को खोज रहीं थीं ताकि अब उनसे जाने की इजाजत ले सकें और जब वे नहीं दिखें तो वो जाने लगी तभी पीछे से मास्टर साहब ने आवाज लगाई____
"अरे,डाक्टरनी साहिबा! आप मुझसे बिना मिलें जा रहीं हैं, मैं थोड़ा काम में लग गया था,कुछ लड्डू बच रहे तो सोचा आँगनवाड़ी में बँटवाने के लिए बोल दूँ और आप यहाँ चल दी",विजयेन्द्र बोला।
"हाँ,मुझे लगा कि शायद आप को फुरसत नहीं है, इसलिए जा रही थी," डाक्टर महेश्वरी बोली।
"चलिए, मुझे भी तो वहीं तक जाना हैं, ऐसे ही बातें करते हुए चलते हैं," विजयेन्द्र बोला।
"जी,मुझे आपसे एक और काम था,अगर कुछ मदद कर सकें तो."..महेश्वरी बोली।
"जी कहिए, क्या परेशानी है," विजय बोला।
"जी परसों रक्षाबंधन है और इसलिए घर खबर भेजकर मोटर मँगवाना चाहती थी,सोचा छुट्टी है तो बाबा से मिल आऊँ,यहाँ एक दो दिन कम्पाउंडर साहब सम्भाल लेंगे तो मैं ये जानना चाह रही थी कि यहाँ डाकखाना है तो वहाँ फोन करने की भी सुविधा होगी तो बाबा को फोन करके मोटर मँगवा लेती,शाम तक ड्राइवर आ जाता और मैं सुबह सुबह निकल जाती,"महेश्वरी बोली।
"जी डाकखाना तो है लेकिन बगल वाले गाँव में,हमारे गाँव की सारी डाक पहले वहीं जाती है, यही कोई तीन कोस दूर होगा गाँव,हमारी गाँव की पक्की सड़क के दूसरी ओर ,थोड़ा अन्दर घुसकर,"विजय बोला।
"तो ठीक है कोई बात नहीं शुक्रिया, अब मैं जाती हूँ " और इतना कहकर महेश्वरी जाने लगी,महेश्वरी का उतरा हुआ चेहरा विजयेन्द्र से देखा ना गया और बोला____
"अरे,सुनिए डाक्टरनी साहिबा! अगर आपको कोई एतराज़ ना हो तो मैं आपको अपनी साइकिल से वहाँ ले चलता हूँ, मुश्किल से एक घंटे लगेंगे," विजयेन्द्र बोला।
"जी मुझे क्या परेशानी होगी? लेकिन मेरी वजह से आपकी तकलीफ़ बढ़ जाएगी," महेश्वरी बोली।
"इसमे तकलीफ़ की क्या बात है डाक्टर साहिबा! आप हमारे गाँव की मेहमान है, आपकी मदद करके मुझे अच्छा लगेगा और आपके इस उतरे हुए चेहरे पर थोड़ी हँसी आ जाएगी," विजयेन्द्र बोला।
"अच्छा, ठीक है तो मैं चलूँगी," महेश्वरी बोली।
"ठीक है तो आप यहीं रूकिए,मैं चपरासी से बोलकर आता हूँ कि पाठशाला में ताला लगाकर घर चाबी पहुँचा देगा और माँ को भी बता देगा कि मैं देर से घर लौटूँगा " और इतना कहकर विजय खबर देने चला गया और वापस आकर पाठशाला के गेट पर खड़ी साइकिल उठाई और महेश्वरी से बोला____
"बैठिए,हाँ और थोड़ा साड़ी सम्भाल कर बैठिएगा,साड़ी कहीं पहिए की तीली में ना फँस जाए और महेश्वरी मुस्कुराते हुए साड़ी सम्भाल कर आगें बैठ गई,"दोनों चल पड़े सीतापुर की ओर___
"सावन का महीना था,चारों ओर हरियाली ही हरियाली,मेंड़ो में लगे पेड़ लहलहा रहें थे, कहीं खेतों में तिल के पौधे थे तो किसी में मूँग और उड़द के,कहीं कोयल बोल रही थी तो कहीं मोर नाच रहे थे,एक जगह तो एक बड़ा सा साँप झाडिय़ों से निकलकर दोनों का रास्ता काटता हुआ निकल पड़ा तो महेश्वरी चीख उठीं और उसे देखकर विजयेन्द्र हँस पड़ा। एक खेत मे मूँग के पौधों पर फलियाँ लग रहीं थीं, उन्हें देखकर विजय ने महेश्वरी से पूछा___
" डाक्टरनी साहिबा! मूँग की फलियाँ खाएंगी तो तोड़ू दूं"
" पता नहीं किसका खेत है ,किसी ने चोरी करते देख लिया तो बहुत डाँट पड़ेगी," महेश्वरी बोली।
"अरे,कुछ नहीं होगा,आप ख्वामखाह परेशान ना हो,बताइए अगर खाएंगी तो तोड़ू",विजयेन्द्र ने पूछा।
"हाँ,तो देर किस बात की तोड़िए," महेश्वरी बोली।
"और दोनों ने ढ़ेर सारी मूँग की फलियाँ तोड़ी और रूमाल में रखकर वहीं मेड़ पर बैठकर खाने लगें,आधे से ज्यादा फलियाँ खाने के बाद खेत के मालिक ने देख लिया और चिल्लाता हुआ दौड़ पड़ा दोनों की ओर,रूमाल में जितनी भी फलियाँ बचीं थीं महेश्वरी ने समेटीं और फौऱन दोनों साइकिल में हँसते हुए बैठकर भाग चले,कम से कम आधी दूर तक दोनों की हँसीं नहीं रूकी___
"बहुत मज़ा आया,चोरी करने में,"महेश्वरी बोली।
"मुझे भी बहुत मजा़ आया लेकिन अब आपका मजा दुगना होने वाला है," विजयेन्द्र बोला।
" क्या मतलब है आपका?" महेश्वरी ने पूछा।
"वो इसलिए कि बारिश का समय है ना तो एक छोटा सा नाला पड़ता है रास्ते मे, जिसमें से खेंतों का पानी नहर मे बहकर जाता है,उसमे से होकर हमें जाना पड़ेगा,घुटनों तक पानी रहता है उसमें,आपको साइकिल से भी उतरना पड़ेगा," विजयेन्द्र बोला।
" तब तो बड़ा मज़ा आएगा," महेश्वरी बोली।
"लेकिन उसमें मछलियांँ और पानी वाले साँप भी होते हैं,"विजयेन्द्र बोला।
"कोई बात नहीं, मैं पार लूँगीं और डर लगा तो आप हैं ना साथ में," महेश्वरी बोली।
और दोनों ने अपने अपने कपड़े घुटने तक ऊपर किए और चल पड़े ,कुछ ही देर में दोनों साइकिल सहित उस पार पहुँच गए, डाकखाने पहुँचे लेकिन उस दिन छुट्टी थी ,डाकबाबू ने महेश्वरी को फोन करने दिया क्योंकि डाकबाबू और उनकी पत्नी विजयेन्द्र को बहुत मानते थे,फोन करने के बाद डाकबाबू ने अपनी पत्नी सियादुलारी को पुकारा,जो वहीं सरकारी क्वार्टर में थी......
"अजी सुनती हो.....ओ भाग्यवान... देखों तो कौन आया है?"
सियादुलारी बाहर आकर बोली____
"अरे,मास्टर साहब ! तुम और इ कौन है संग में,तुम्हार मेहरारु है का,ब्याह कर लिए का,बहुतई सुन्दर है," एकदम चाँद का टुकड़ा।
"अरी,भाग्यवान! बोलने से पहले कुछ सोच समझ तो लिया कर,अरे इ चन्दनपुर गाँव की नई डाक्टरनी है, यहाँ फोन करने आई थीं," डाकबाबू बोले।
"अब हमें का पता कि इ कौन हैं, अच्छा भीतर आओ बिटिया! और इ का तुम्हारी साड़ी तो गीली सी हो गई हैं, चलो तुम हमारी सूखी साड़ी पहन लो, तब तक हम तुम्हारी साड़ी हवा में डाले देते हैं,जाते समय पहन लेना",सियादुलारी बोली।
"नहीं काकी! अब हम दोनों जाएंगे,"विजयेन्द्र बोला।
"इ का मास्टर साहिब! एक तो इत्ते दिनों बाद दर्शन दिए और बिना खाएं ही चलो जाओगे और फिर बिटिया त़ो हमारे घर पहली बार आई है,इसे थोड़े ही बिना खाएं जाने देंगें और वैसे भी खाने का बखत हो गया है, आधा खाना तो हम बना ही लिये रहें हैं, कुछ और बना लेते हैं," जब तक बिटिया से बातें करेंगें तो बन ही जाएगा और सिया दुलारी महेश्वरी को भीतर ले गई।
सरकारी क्वार्टर बहुत ही अच्छा और खुला खुला बना था,बाहर बहुत बड़ा बरामदा था,जहाँ झूला डला था, अन्दर जाते ही बैठक और बैठक के अगल बगल दो कमरे,पीछे की ओर खुला आँगन,आँगन में एक ओर पानी के लिए हौदी बनी थी,हौदी के बगल में रसोईघर ,दूसरी ओर स्नानघर और शौचालय, बगल में दो क्वार्टर और बने थे,जिनमे दो लोग और रहते थे लेकिन उनके परिवार वहाँ नहीं रहते थे,एकांत में घर होने की वजह से सियादुलारी का मन ऊब जाता था,कोई भी बात करने वाला नहीं था,बेटी का ब्याह हो चुका था और बेटा शहर में पढ़ता था इसलिए कोई भी जान पहचान का उसके घर आता तो फौरन ही उसकी खातिरदारी में लग जाती,बिना खाना खाएं तो आने ही नहीं देती थीं।
और कुछ ही देर में बातें करते करते सियादुलारी ने खाना तैयार कर लिया,मूँग की दाल,अरबी की भुजिया,भिंडी की सब्जी,करौदें और तली हुई हरी मिर्च, रोटी और चावल,खाना लगाया गया और सियादुलारी ने सभी को बड़े प्यार से खाना खिलाया।
खाना खाने के बाद कुछ देर बातें करनें के बाद विजयेन्द्र बोला__
"काकी! अब चलेगें, घर भी तो जाना है, सुबह से नदारद हूँ," माँ से बहुत डाँट पड़ने वाली है।
"अच्छा,ठीक है बेटा! अब ना रोकूँगी,जाओ तो बिटिया, पीछे आँगन में अल्गनी से तुम्हारी साड़ी टंगी होगी,अब तक सूख गई होगी ,जाओ जाकर बगल वाले कमरे मे बदल लो,"सियादुलारी बोली।
और कुछ ही देर मे महेश्वरी साड़ी पहनकर आ गई और दोनों जाने लगे,दोनों ने नमस्ते की,सियादुलारी ने महेश्वरी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा____
"बिटिया! भला कभी समय मिल जाया करें तो घूम जाया करो,बहुत अच्छा लगा जो तुम आईं," सियादुलारी बोली।
"जी काकी! जरूर आऊँगी" और इतना कहकर दोनों हाथ हिलाकर साइकिल पर बैठकर चन्दनपुर की ओर चल पड़े।
शाम हुई और शहर से ड्राइवर मोटर लेकर आ पहुँचा, कम्पाउंडर साहब ने उसे अपने घर में रूकवा लिया क्योंकि कम्पाउंडर साहब की पत्नी गुलाबो भी राखी मनाने अपने मायके गई हुई थी,सुबह सुबह ही महेश्वरी मोटर में शहर के लिए रवाना हो गई।
उसका मन तो किया कि मास्टर साहब को सूचित कर दे लेकिन वो ये सोच कर रह गई कि ना जाने मास्टर साहब क्या सोचने लगें कि कैसी लड़की है, पीछा ही नहीं छोड़ती,वैसे भी इतनी मदद ले चुकी हूँ मास्टर साहब से,सुबह सुबह उनसे मिलने जाना अच्छा नहीं लगता और ये सोचकर महेश्वरी,विजयेन्द्र से बिना मिले ही शहर चली आई।
महेश्वरी को देखकर शक्तिसिंह बहुत खुश हुए और उन्होंने उस दिन खानसामे से कहकर सब महेश्वरी की ही पसंद का खाना बनवाया और दिनभर उसी के साथ सारा वक्त बिताया,राखी के दूसरे ही दिन महेश्वरी को सुबह सुबह ही चन्दनपुर निकलना था और उसे अपनी कुछ जरूरतों का सामान शहर के बाज़ार से खरीदना था क्योंकि गाँव में वो सामान मिलना सम्भव ना था इसलिए राखी वालें दिन वो बाज़ार की ओर चल पड़ी।
महेश्वरी ने बाजार में टहल कर अपना सामान खरीदा और अपनी मोटर में सामान रखकर घर जाने के लिए बैठने आ ही रही थी कि एक चोर बहुत रफ्त़ार से आया और महेश्वरी का पर्स छीनकर भाग गया,महेश्वरी ने चोर ....चोर कहकर उसका पूछा किया लेकिन उस चोर की रफ्त़ार कुछ ज्यादा थी और वो उसे नही पकड़ पाई लेकिन बाजार की भीड़ में से दो लड़के फुर्ती से उस चोर के पीछे भागें और भागकर उसे धर दबोचा,जब तक भीड़ और महेश्वरी भी उनके पास पहुँच गई।
भीड़ ने उस चोर को पुलिस के हवालें कर दिया और महेश्वरी का पर्स उन लड़को में से एक ने देते हुए कहा_____
"दीदी! लीजिए आपका पर्स।"
" आप लोग ठीक तो हैं ना! बहुत बहुत शुक्रिया आप दोनों का,"महेश्वरी ने अपना पर्स वापस लेते हुए कहा।
"जी,दीदी! हम लोंग बिलकुल ठीक हैं, "उन दोनों में से एक ने कहा।
"जी,मैं डाक्टर महेश्वरी! बहुत खुशी हुई आप लोगों से मिलकर,"महेश्वरी उन दोनों से बोली।
" जी,मैं संदीप मेरी वकालत की पढ़ाई का आखिरी साल चल रहा है और ये मेरा छोटा भाई प्रदीप ये भी काँलेज में है,"संदीप ने कहा।
"अच्छा! आप लोग घर चलिए, मैं आपको अपने बाबा से मिलवाती हूँ, "महेश्वरी बोली।
"जी नहीं, दीदी! फिर कभी,आज थोड़ा मन अच्छा नहीं है,हम दोनों भाई गाँव नहीं गए, कमरें में अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए जरा घूमने निकल आए थे,"प्रदीप बोला।
"अच्छा आप दोनों गाँव क्यों नहीं गए," महेश्वरी ने पूछा।
"जी,इस त्यौहार पर घर जाते हैं तो माँ उदास हो उठती है, वो इसलिए कि हमारी भी एक बड़ी बहन थी लेकिन बदकिस्मती से वो हमसे बिछड़ गई है इसलिए माँ हमारी सूनी कलाइयाँ देखकर उदास हो उठती है और फिर उन्हें हमारे लिए सम्भालना मुश्किल हो जाता है," संदीप बोला।
"अच्छा तो ये बात है, आप लोग चलिए तो मेरे साथ और महेश्वरी ऐसा कहकर उन्हें एक दुकान में ले गई और दो राखियाँ खरीदकर दोनों की कलाइयों में बाँध दी और बोली आज के बाद अब कभी भी आप दोनों की कलाइयाँ सूनी नहीं रहेंगीं,आप दोनों ने मुझे दीदी कहा है तो आज से मैं आपकी बहन हुई और ये रहा मेरे घर का पता,जब कभी मन करें समय मिलें तो दोनों भाई जुरूर मिलने आना ,अच्छा अब चलती हूँ।
" जी दीदी! जरूर आएंगे," प्रदीप बोला। और महेश्वरी दोनों को टाटा करके घर आ गई।
क्रमशः_____
