Saroj Verma

Abstract

4.5  

Saroj Verma

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विश्वासघात--भाग(११)

विश्वासघात--भाग(११)

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शाम हुई ,मधु के जन्मदिन के लिए प्रदीप फूलों का गुलदस्ता लेकर सुनहरी चौक पहुँच गया और मधु की सहेली वीना की मोटर का इंतज़ार करने लगा

कुछ देर के बाद मधु की सहेली वीना अपनी मोटर लेकर आ पहुँची और दोनों उसमें बैठकर फार्महाउस निकल गए, पहुँचते पहुँचते अँधेरा भी हो आया था,फार्महाउस के बँगले से कुछ दूर ही वीना ने मोटर रोक दी और बोली,यहाँ से बँगले तक पैदल ही जाना पड़ता है, वहाँ मोटर खड़ी करने की जगह नहीं है।

प्रदीप बोला,"ठीक है ! लेकिन यहाँ इतना सुनसान सा क्यों लग रहा है, सालगिरह के जश्न जैसी तो यहाँ कोई बात ही नजर नहीं आ रही॥"

"अरे,लगता है अभी ज्यादा लोग नहीं आएं हैं, लेकिन देखों मधु तो आ चुकी है," उसकी मोटर तो यही है,वीना बोली।

"हाँ,चलो! अन्दर चलकर ही पता चलेगा कि क्या माहौल है," प्रदीप बोला।

"लेकिन, प्रदीप ! ये कुछ सामान भी भीतर ले जाना है, मधु ने मँगवाया था,इसे ले जाने में जरा मेरी मदद कर दो," मधु बोली।

"हाँ...हाँ..क्यों नहीं, लाओ मैं तुम्हारी मदद करता हूँ" प्रदीप बोला।

वीना और प्रदीप बँगले के भीतर पहुँचे,प्रदीप ने देखा कि ना वहाँ कोई रौनक हैं और ना कोई साज- सज्जा,भला ये कैसी सालगिरह हुई,उसे कुछ अजीब लगा,तभी मधु अपनी और सहेलियों के साथ वहाँ आकर बोली___

"आपको कुछ अजीब लग रहा होगा ना ,मिस्टर प्रदीप! कि मेरी सालगिरह है और कोई रौनक नहीं।"

" जी,मैं इतनी देर से यही सोच रहा था," प्रदीप बोला।

"मिस्टर प्रदीप! मैने केवल अपने ख़ास दोस्तों को ही बुलाया है, मैं अपनी सालगिरह भीड़भाड़ में नहीं मनाना चाहती थी",मधु बोली।

"लेकिन आपके माता पिता ने कुछ नहीं कहा,इतनी दूर अकेले आने के लिए," प्रदीप ने पूछा।

 "जी,दरअसल बात ये है कि डैडी बिजनेस के सिलसिले में कलकत्ता गए हैं और मेरी माता जी को ये सब पसंद नहीं है, वो अपने मंदिर और भगवान के साथ रहना ज्यादा पसंद करतीं हैं,इसलिए मैने फार्महाउस रहने वाले चारों नौकरों को भी दो दिन की छुट्टी दे दी है ताकि हमें कोई डिस्डर्ब ना करें," मधु बोली।

"अच्छा तो ये बात है,ये लीजिए आपका तोहफा,सालगिरह की बहुत बहुत बधाई", प्रदीप बोला।

 "थैंक्यू, मिस्टर प्रदीप! मेरे जन्मदिन पर आप आए,मुझे बहुत अच्छा लगा,"मधु बोली।

जी आपने मुझे इस मौके पर इनवाइट किया ये मेरी खुशनसीबी है, प्रदीप बोला।

"अगर आप दोनों की बातें खतम हो गई हो तो चलिए पार्टी शुरु की जाए,"वीना बोली।

"अच्छा, वीना! मैने जो जो सामान मँगवाया था,वो तू सब लाईं है ना!" मधु ने पूछा।

"हाँ,ये रहा केक,ये रहे समोसे और कचौरियाँ, ठंडे की बोतल ,तेरे होटल से पैक करवाया हुआ खाना,इतना ही सब था ना!" वीना बोली।

"हाँ,यार वीना! थैंक्यू," मधु बोली।

 तभी दूसरी सहेली ने आकर कहा कि अब देरी किस बात की चलो,केक काटते हैं, कुछ देर डान्स करेंगे और फिर खाना खाकर घर चलेगें।

केक को डाइनिंग टेबल पर सजाया गया,उसके बाद उस पर जली हुई मोमबत्तियों को मधु ने बुझाकर केक काटा और बारी बारी से सबको खिलाया,ठंडे के साथ सबने समोसे और कचौरियों का आनंद लिया,सबने डाँस किया,इसके बाद डिनर की बारी थीं, सब डिनर करने बैठें, डिनर करते करते ना जाने प्रदीप को ऐसा लगा कि उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा है और उसकी आँखें खुदबखुद मुँदीं जा रहीं हैं,वो बहुत कोशिश कर रहा था अपनी आँखें खोलने की लेकिन पलकें हैं कि बस भारी हो होकर मुँद रहीं थीं, प्रदीप को कुछ खतरा सा लगा और उसने अपनी उसी हल्की बेहोशी में मधु से पूछा

 "क्या मिलाया है तुमने मेरे खाने में?"

" कुछ नहीं बस कुछ ही नींद की गोलियाँ,"मधु ने जवाब दिया।

"लेकिन क्यों?"प्रदीप ने पूछा।

"तुमसे बदला लेने के लिए,"मधु बोली।

 "तुम इतना गिर सकती हो,ये मैने नहीं सोचा था,"बेहोशी की हालत में धीरे से इतने शब्द ही निकल पाएं प्रदीप के मुँह से और अब वो पूरी तरह से डाइनिंग टेबल पर सिर रखकर बेहोश हो गया।

मधु बोली,"चलो अब इसे इसी कुर्सी से बाँध देते हैं, सारे फार्महाउस के खिड़की दरवाज़े एकदम बंद कर दो,ताकि परिंदा भी पर ना मार सकें और याद रखना कि यहाँ एक बूँद भी पानी ना रहें, मैं जाकर सारी टंकियाँ खाली करके आती हूँ, जिससे ना ही किसी बाथरुम में पानी आएगा और ना ही रसोईघर में,अगर होश में आ ही गया ,रस्सियाँ भी खोल ली तो बाहर तो जा नहीं सकेगा और प्यास से बेहाल हो जाएगा,फिर कल शाम तक इसका हाल पूछने आएंगें और माँफी भी मँगवा लेगें, तब बच्चू को पता चलेगा कि मधु से पंगा लेना इतना आसान नहीं है।"    

"लेकिन अगर इसे कुछ हो गया तो"वीना बोली।

"कुछ नहीं होगा,मैने इसके खानें में ज्यादा गोलियाँ नहीं मिलाई थीं, पाँच छै घंटे की नींद के बाद ये खुद ही जाग जाएगा,"मधु बोली।

"तुम कहती है तो ठीक है, चलो फिर काम शुरु करते हैं," वीना बोली।

 और सबने अपनी प्लानिंग के अनुसार काम किया और वापस शहर लौट गईं।

शहर से बाहर खेंतों में सुनसान जगह पर बना फार्महाउस, वहाँ की सारी बत्तियाँ भी वे सब बुझाकर गई थीं,एकदम घुप्प अँधेरा और कुर्सी से बँधा हुआ प्रदीप।

 रात का लगभग तीसरा पहर होगा, प्रदीप की आँख खुली,उसे पता चला कि उसका शरीर ही बस कुर्सी से बँधा है और उन लड़कियों को इतनी अकल नहीं थीं कि हाथ भी बाँध देतीं,लेकिन परेशानी ये थीं कि उसकी रस्सी की गाँठ कुर्सी के पीछे बँधी थीं,जिससे उसके हाथ पीछे नहीं पहुँच सकते और वो रस्सी की गाँठ नही खोल सकता था ,रस्सी भी बहुत मोटी और मजबूत थी,उसके पैर भी बँधे हुए थें,चारों ओर बस अँधेरा ही अँधेरा,उसे बहुत जोर की प्यास भी लगी थी,उसने जोर जोर से आवाज देकर पुकारा___

" कोई है.... कोई है.. मुझे कोई सुन रहा है, मेरी मदद करों मुझे बहुत प्यास लग रही है",लेकिन किसी ने भी उसकी आवाज नहीं सुनी,कोई होता तो ही सुनता ना! ये प्रदीप की बदकिस्मती थी कि वहाँ कोई भी मौजूद नहीं था,थक हार कर वो सुबह होने का इंतजार करने लगा लेकिन तभी उसे याद आया कि डाइनिंग टेबल पर उसकी ही प्लेट के पास फल काटने वाला चाकू पड़ा था,अगर उन लोगों ने उसे वहाँ से ना हटाया होगा तो वो चाकू अब भी वहीं होगा और उसने अँधेरे में अपने हाथों से डाइनिंग टेबल टटोला तो वो चाकू उसे मिल गया,डूबते को तिनके का सहारा ही बहुत होता है,उसने धीरे धीर रस्सी काटनी शुरु कर दी,चूँकि चाकू की धार ज्यादा तेज नहीं थी,इसलिए रस्सी काटने में बहुत समय लग गया,रस्सी काटते काटते दिन निकल आया था शायद,अब उसने अपने पैरों में बँधी रस्सी भी काट दी,वो अब आजाद था।

उसने सभी बाथरुम और रसोई में जाकर पानी के लिए नल खोला लेकिन कहीं पर भी पानी मौजूद नहीं था,प्यास से उसका बुरा हाल हो चला था,अब उसने बाहर जाने की सोची लेकिन कोई भी खिड़की और दरवाज़ा खोलने में वो कामयाब ना हो पाया,उसने सोचा कैसे भी हो बाहर तो निकलना ही है, मैं यहाँ प्यास से नहीं मर सकता,उसने फिर बारी बारी सभी दरवाज़े और खिड़कियाँ टटोलने शुरु किए कि शायद कुछ तो खुल जाए लेकिन कुछ भी नहीं खुला,

लेकिन तभी उसकी नज़र बाथरुम के एक छोटे से रोशनदान पर पड़ी,वो वहाँ कुर्सी के सहारें ऊपर पहुँचा और उसे खोला तो देखा उसकी ऊँचाई थोड़ा ज्यादा थीं लेकिन उसने अब वहाँ से भागने का मन मना लिया था और फिर रोशनदान से कूदने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं था,उसने बिना सोचें ही वहाँ से छलाँग लगा दी,लेकिन छलाँग लगाते ही उसके पैर में बहुत ज्यादा मोच आ गई लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी और सोचा कुछ भी करके सड़क तक तो पहुँचना ही होगा,तभी उसको कोई वाहन मिल सकता है जिसकी मदद से वो शहर तक पहुँच सकता है और उसने लँगड़ाते हुए चलना शुरू किया,वो जैसे जैसे कदम रखता ,दर्द से कराह उठता लेकिन उसने अपने दर्द को अनदेखा करके बस चलना जारी रखा।

उधर शक्तिसिंह जी भोर होने पर चिड़ियों की चहचहाहट से उठ गए, बाहर बगीचे में आकर ताजी हवा ने उनके मन और मस्तिष्क पर एक जादू सा कर दिया और उन्होंने सोचा,बगीचें की सैर कर लें,कुछ देर बाद सुमन चाय ले आई,सबने चाय पी और बोलें कि चलों सब तैयार हो जाओ शहर के लिए निकलना है,मन तो किसी का भी नहीं था वापस शहर जाने का।

"ठीक है तो मालिक आप लोग जब तक तैयार हो, हम शन्नो से जाकर कहते हैं की नाश्ता तैयार कर दें",धनीराम बोला।

"ठीक है धनीराम! अगली बार आएंगे तो ज्यादा दिन रूकेंगे," शक्तिसिंह जी बोले।

" ठीक है मालिक! ऐसे ही आ जाया करो कभी कभी,हमे भी अच्छा लगता है," धनीराम बोला।

"और कुछ ही देर में सब तैयार होकर नाश्ता करनें बैठें, नाश्ते में गरमागरम सरसों के तेल में तलीं पूरियाँ ,आलू की तरी वाली सब्जी धनिया डालकर और साथ में आम का आचार था,सबको नाश्ता करके बहुत मजा आया और फिर सबने धनीराम और शन्नो से विदा माँगी और मोटर में बैठकर चल दिए शहर की ओर।

वो जब अपने फार्महाउस से काफी़ दूर निकल आएं तो दूर से ही उन्हें एक लड़का हाथ हिलाता हुआ दिखा,शायद वो मोटर को रूकवाना चाहता था।

ड्राइवर बोला,नहीं,मालिक! आजकल कितनी खबरें सुनने में आईं हैं कि चोर डाकू ऐसे ही रास्ते में मोटर रूकवाकर लोगों को लूट लेते हैं।

शक्तिसिंह बोले,ठीक है मोटर मत रोकना,ना जाने कौन हो?और ड्राइवर ने मोटर नहीं रोकीं,वो लोंग थोड़ी दूर निकलें ही थे कि कुसुम ने पीछे मुड़कर देखा तो वो मोटर रूकवाने वाला शख्स बेहोश होकर गिर पड़ा।

"कुसुम बोली,बाबा! मोटर रोकों, लगता है वो मुसीबत में हैं देखो तो कैसे बेहोश होकर गिर पड़ा है।"

" ड्राइवर बोला,ठीक है मैं मोटर यहीं खड़ी करके उसे देखकर आता हूँ अगर उसे मदद की जरूरत होगी तो आपको बुला लूँगा।"

ड्राइवर उस शख्स के पास पहुँचा तो उसे सचमुच मदद की जुरूरत थी और उसने अपने हाथ के इशारे से दयाशंकर को सहारा देने के लिए बुला लिया,उस शख्स की हालत सच में बहुत खराब थीं,ड्राइवर ने उसे मोटर में बैठाकर,थरमस में से पानी निकाला और उसके मुँह पर पानी के छींटे मारें , उस शख्स ने होश में आते ही सबसे पहले पानी माँगा,वो कम से कम दो तीन गिलास पानी पी गया,अब उसकी जान में जान आई और उसने सबका शुक्रिया अदा किया।

बेटा! क्या नाम है तुम्हारा? और तुम्हारी ऐसी हालत कैसें हुई?शक्तिसिंह जी ने पूछा।

जी,मेरा नाम प्रदीप है और किसी ने मुझे धोखा देकर मेरा ऐसा हाल किया है, प्रदीप बोला।

प्रदीप नाम सुनकर दयाशंकर कुछ चौंका लेकिन बोला कुछ नहीं ।

अच्छा! चलों पहले तुम्हें अस्पताल ले चलते हैं, बाकी़ बातें तुम रास्तें में बताना,शक्तिसिंह जी बोलें।

नहीं! आप मुझे मेरे कमरे तक ही छोड़ दें,बहुत मेहरबानी होगी,प्रदीप बोला।

ना भाई! मैने देखा था कि तुम कैसे चक्कर खा कर गिर पड़े थे,तुम्हें अस्पताल तो चलना ही होगा,कुसुम बोली।

नहीं, दीदी! इसकी कोई जुरूरत नहीं है, आपलोंग तकलीफ़ ना उठाएं,प्रदीप बोला।

दीदी भी कहते हो और दीदी की बात भी नहीं मानते,कुसुम बोली।

अच्छा! ठीक है, आपलोग इतना कह रहे हैं तो चलिए अस्पताल ही चलते हैं, प्रदीप बोला।और रास्तें में प्रदीप ने अपनी सारी कहानी भी कह सुनाई,

कुसुम बोली,लड़की तो बहुत फरेबी निकली।

हाँ,बेटी भी तो नटराज की ही है, जैसा बाप वैसी बेटी,दयाशंकर बोला।

काका! तो क्या आप नटराज को जानते हैं, प्रदीप ने पूछा।

हाँ,जानता था,मै भी भुक्तभोगी हूँ, दयाशंकर बोला।

हाँ,मेरे भइया ने भी बताया था मुझे कि नटराज बहुत बेईमान है, प्रदीप बोला।

और ऐसे ही बातें करते हुए कुछ ही देर में सब शहर पहुँच गए और अस्पताल जाकर प्रदीप की जाँच करवाई,डाक्टर बोले कि पैर में कुछ ज्यादा ही मोच आई है और शरीर में पानी की कमी से चक्कर आ गया होगा,इन्हें एक दो दिन आराम की जरूरत है।

तब शक्तिसिंह ने प्रदीप से पूछा कि कहाँ रहते हो,तुम्हारी देखभाल करने वाला कौन हैं?

जी,भइया तो गाँव गए हैं फिरहाल मैं कमरें में अभी अकेला ही हूँ, प्रदीप बोला।

तो ठीक है, तुम हमारे साथ ,हमारे घर चलों,जब तुम्हारे भइया आ जाएं तो चले जाना,शक्तिसिंह बोलें।

और प्रदीप उन सबके साथ उनके बँगले चला आया,बँगले पहुँचते ही ड्राइवर ने मोटर गैराज में खड़ी कर दी और तभी शक्तिसिंह जी ने दयाशंकर से कहा___

दयाशंकर! भाई जरा,प्रदीप क़ो सहारा देकर उसे मेहमानों वाले कमरें में ले जाओ।

और जैसे ही प्रदीप ने दयाशंकर नाम सुना तो चौंक पड़ा और उसने फौऱन दयाशंकर से पूछा___

क्या आपकी पत्नी का नाम मंगला है?

दयाशंकर कोई जवाब ना दे सका,बस उसकी आँखें भर आईं।

प्रदीप ने फिर से जोर देकर पूछा___

बताइए ना काका! क्या आप की पत्नी का नाम मंगला है।

तब दयाशंकर फूट फूटकर रो पड़ा और बोला____

हाँ,वो अभागन ही मेरी पत्नी है, जिसे मैं कोई भी सुख ना दे पाया।

मारे खुशी के प्रदीप की आँखों में भी आँसू आ गए और वो बोला___

बापू....मैं प्रदीप हूँ, तुम्हारा बेटा प्रदीप,मुझे तुम्हारा नाम याद था इसलिए मैनें तुम्हें पहचान लिया,पता है संदीप भइया भी वकील बनने वाले हैं और जीजी तो बचपन मे ही खो गई थी,माँ भी अच्छी हैं,प्रदीप ने एक साँस मे ही सब कह दिया।

तभी दयाशंकर बोला___

तेरी जीजी खोई नहीं हैं, मुझे मिल गई हैं, वो अब बहुत बड़ी डाक्टर बन गई है,भीतर चल उसकी फोटो दिखाता हूँ और प्रदीप ने जैसे ही महेश्वरी की फोटो देखी तो वो बोला___"मैं तो इन्हें मिल चुका हूँ बाजार में।"

"अच्छा ये बता कि लीला जीजी और विजय कैसा है?"दयाशंकर ने प्रदीप से पूछा।

"वो भी अच्छी हैं और विजयेन्द्र भइया तो पाठशाला के मास्टरसाहब बन गए हैं, सारा गाँव उनकी बहुत इज्जत करता है,"प्रदीप बोला।

" सच,मेरा नन्हें एकदम ठीक है,"शक्तिसिंह जी बोले।

क्रमशः___

 



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