वीर बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके
वीर बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके
बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके का जन्म 12 मार्च 1833 को पुलायसर बापू और जुर्जा कुंवर के घर हुए था। पुलायर बापू महाराष्ट्र के चंडा ओपी और बेरार जिले के अंतर्गत आने वाले घोट के मोलमपल्ली के बड़े जमींदार थे।गौंड परंपरा के अनुसार शेडमाके की शुरूआती शिक्षा घोटुल संस्कार केंद्र से हुई, जहां उन्होंने हिंदी, गोंडी और तेलुग के साथ-साथ संगीत और नृत्य भी सीखा। इंगलिश सीखने के लिए उनके पिता ने उन्हें छ्त्तीसगढ़ के रायपुर भेजा। रायपुर से शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब शेडमाके मोलापल्ली लौटे तब मात्र 18 वर्ष की उम्र में उनका विवाह राज कुंवर से आदिवासी परंपरा के अनुरूप कर दिया गया।
1854 में, जब चंद्रपुर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया,
अंग्रेजों ने राजस्व, धर्म और प्रशासन में कई बदलाव किए, जिससे स्थानीय निवासियों में असंतोष था। शेडमाके ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई।1857 के दौरान, जब समस्त भारत स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, शेडमाके ने भी 500 आदिवासी युवाओं को इकट्ठा किया। इस सेना को 'जोंगम दल 'नाम दिया और मार्च 1858 में राजगढ़ परगना पर कब्जा हासिल कर लिया। अन्य जमींदार विशेषकर ,व्यंकटराव, अडपल्ली और घोट के जमींदार भी इस विद्रोह में उनके साथ शामिल हुए।जब यह खबर चंद्रपुर पहुंची तो ब्रिटिश कलेक्टर व. एच. क्रिक्टन 1700 ब्रिटिश सेनिक लेकर इस विद्रोह को कुचलने पहुंचा, लेकिन नंदगांव घोसरी के पास ब्रिटिश सेना को मुंह की खानी पड़ी,उनका जान माल का बहुत सा नुकसान हुआ।
कै. क्रिक्टन चुप नहीं बैठा, उसने फिर से सैन्य दल को युद्ध के लिए भेजा। संगनापुर और बामनपेट में आर-पार का युद्ध हुआ लेकिन यहां भी ब्रिटिश सेना हार गई।
लगातार जीतने से शेडमाके का मनोबल बढ़ा और उन्होंने 29 अप्रैल 1858 को चिंचगुडी स्थित उनके टेलीफोन शिविर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में टेल
ीग्राफ ओपरेटर्स हॉल और गार्टलैंड मारे गए, जबकि पीटर वहां से भागने में कामयाब रहा। अंग्रेजी सेना की यह लगातार तीसरी हार थी।दरअसल बाबूराव की सेना गोरिल्ला तकनीक जानती थी। वे अपने धनुष- बाण का अच्छा उपयोग करते थे और पहाड़ की ऊंचाई से पत्थर लुड़काते थे।पहाड़ी और जंगल का रास्ता होने से अंग्रेजी सेना को आगे बढ़ने में दिक्कत का सामना होता था।
युद्ध का कोई नतीजा निकलते न देख कैप्टन क्रिक्टन ने बाबूराव को गिरफ्तार करवाने वाले को ₹1000 का इनाम देने की घोषणा करने के साथ ही साथ एक
कूटनीतिक चाल चली। उसने कुछ बड़े जमींदारों और अहेरी की जमींदारनी रानी लक्ष्मीबाई पर उन्हें पकड़ने का दवाब बनाया। अहेरी की जमींदारनी ने उसे हर तरह से सहायता देने का वचन दिया। शेडमाके इस बात से अनजान थे।18 सितंबर 1858 को अहेरी की जमींदारनी के सैनिकों ने शेडमाके को गिरफ्तार कर कै. क्रिक्टन को सौंप दिया। उन्हें चंडा सेंट्रल जेल लाया गया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें राजद्रोह का दोषी पाया गया। 21 अक्टूबर 1858 को चंडा के खुले मैदान में उन्हें फांसी दे दी गई।
बाबूराव की वीरता की कहानियां गोंड गांव में उनके जीवनकाल में ही प्रसिद्ध हो गई थीं। यद्यपि उन्हें 1858 को फांसी दे दी गई , उनके सहयोगियों द्वारा विद्रोह जारी रहा। धीरे-धीरे रोहिल्ला भी इसमें जुड़ गए। विद्रोह शिरपुर ,अदिलाबाद तक फैल गया। हैदराबाद रेजिडेंसी पर भी हमला हुआ।1860 तक विद्रोह होते रहे।
आज बाबूराव को गोंडवाना क्षेत्र में वीर बाबूराव पुलेश्वर के नाम से जाना जाता है।
चंद्रपुर जेल के सामने वह पीपल का पेड़ जिस पर उन्हें फांसी दी गई थी, उसे एक स्मारक के रूप में विकसित किया गया है। जहां हज़ारों लोग उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। बहुत से विद्यालय ,कॉलेज और पार्क उनके नाम पर बने हैं। 12 मार्च 2009 को उनकी जन्मतिथि को इंडियन पोस्ट ने उनके नाम से एक डाक टिकट जारी किया था। ।