#वामपंथ
#वामपंथ
वैसे तो समाज में बहुत सारे पंथ पाए जाते हैं पर उन सब में से सबसे खतरनाक कोई है तो वो है वामपंथ। बहुत ही सुलझे और सटीक तरीके से इसका प्रभाव हुआ है समाज पर। कभी लेखों से, कभी भाषणों से तो कभी फिल्मों से।
कहते हैं फिल्में समाज का आईना है , सही ही कहते हैं। ये बोलने और चलने वाले चित्र अर्थात चलचित्र अपने दौर के सामाजिक परिवर्तनों और सामाजिक गतिविधियों को बखूबी बयान करते हैं। ऐसा ही एक दौर दिखाई देता है , 60s और 70s की फिल्मों में जिसमें वामपंथ, पूंजीवाद को समाज का दुश्मन बताता है। चाहे वो नया दौर का टांगे चलाने वाला दिलीप कुमार हो जिसको गांव में मोटर और मशीनें आ जाने से अपना काम खत्म होता दिखता है, या फिर नमक हराम का राजेश खन्ना जो मिल मजदूरों से हड़ताल करवाता है या फिर 90s में आंदोलन का गोविंदा। इन सब में मिल मालिकों और पूंजीवादियों को विलेन दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
समाजवाद की स्याही से पर्दे पर उकेरी हुई तस्वीर, नोटों का एलबम बना रही थी। ये इकलौता ऐसा विचार है जो खून में गर्मी देता है मगर घर में राशन नहीं। कभी "मैनचेस्टर ऑफ ईस्ट" के नाम से विख्यात "कानपुर" का चमड़ा उद्योग हो या बेंगाल में "अम्मार बाड़ी तोमार बाड़ी नक्सलबाड़ी" और "आमार नाम तोमार नाम वियतनाम" का नारा दे देकर फैक्ट्रियों को बंद करवाना, सब अतिवामपंथी और समाजावादी विचारों की देन लगता है। ये कहता है, मैं नहीं कमाऊंगा और तुमको भी नहीं कमाने दूँगा। लेकिन अगर तुम कमा रहे हो तो तुम्हारे में से में आधा लूंगा, ये मेरा अधिकार है। क्योंकि समाज में सब बराबर हैं, निठल्ले भी और प्रयासरत भी। हरिशंकर परसाई ने "एक निठल्ले की डायरी" लिखी थी, वो निठल्ला एक वामपंथी था।
एक वामपंथी मुँहजोरी में अखण्ड विश्वास रखता है, उसका कहना है कि जो मेरा है वो तो मेरा है ही बाकी जो तेरा है वो भी मेरा है। उसे सामने वाले में सम्पूर्ण विश्वास है, अरे हमें मेहनत करने की क्या जरूरत सामने वाला कर ही रहा है जब दोनों के लिये।
मशीनों का बहिष्कार , कारख़ाने बंद करवा देना , मिल मालिकों को कूटकर भगा देना (उदाहरण के लिए आदित्य बिड़ला ग्रुप और बाद में अड्डा मारते हुए कहना कुछ काम नहीं है करने को ये सब मुख्य बकैतिया हैं , एक वामपंथी की।
अगर कायदे से देखा जाए तो भगत सिंह के बाद कोई भी वामपंथी राष्ट्रवाद के विचारों के हिट में नहीं रहा, आज भी कम्युनिस्टवादी चाइना को अपना पिता और खुद को उसका दत्तक पुत्र मानते हैं।
नया दौर लिखने वाले महान वामपंथी लेखक अख्तर मिर्जा ने फ़िल्म हिट होने के बाद पूंजीवाद को रौंदने के लिए गाड़ी ले ली थी। खन्ना और बच्चन भी फ़िल्मों में पूंजीवाद को गरियाते 2 पूंजीपति बन गए थे।
पीयूष मिश्रा सबसे तगड़ा उदाहरण हैं , वामपंथी बकैती का। आज भले ही "मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता" कर रहे हैं लेकिन भाई को जवानी भर अलग ही नशे में रखा की पैसा कुछ नहीं है बस अय्याशी करो, कलम से खूब सारी क्रांति लाओ और गाना गाओ। ख़ैर देर आये मगर दुरुस्त आये।
बाकी वामपंथ का मूलभूत सिद्धांत "कर्मण्येवाधिकारस्ते" नहीं "अकर्मण्येवाधिकारस्ते"है।
तो कुल मिलाकर समझने वाली बात ये है कि पूंजीपति बनने के किये पहले आपको वामपंथी विचारधारा को अपनाना होगा, अपना नहीं सकते तो अपनाने का प्रपंच करना होगा। दिन रात पूंजीवादियों को कोसना होगा, लोगों को समझाना होगा तुम गरीब इसलिए नहीं हो क्योंकि तुम हरामखोर हो बल्कि तुम गरीब इसलिए हो क्योंकि सामने वाला अमीर है। पड़ोसी अगर कार से चल रहा है तो उस कार की एक चाभी तुम्हें भी मिलनी चाहिये। अगर पड़ोसी का घर बड़ा है तो उस घर का बड़ा कमरा और घर के कागज तुम्हारे नाम पर होने चाहिये। इसी से समाज में बराबरी आएगी , यही समाजवाद है। समझे, माने की अगर हो नहीं तो लगो तो सही।
