Sanchit Srivastava

Others

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Sanchit Srivastava

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क्योंकि हर शहर कुछ कहता है ~

क्योंकि हर शहर कुछ कहता है ~

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एक दौर था जब सोचता था अपने ही शहर में रहकर पढ़ता, वहीं नौकरी करता, घर का खाना मिलता, स्कूल के दोस्त साथ रहते , जिंदगी गुलज़ार रहती। कुल मिलाकर तुम मिले, दिल खिले और जीने को क्या चाहिए एक आदमी को वाला मामला रहता।पर जो हम चाहें वो ही हो, ऐसा होता नहीं है न बाबू।

असलियत ख़्वाब और ख़्याल से इतर होती है, और किस्मत सांड़ हो तो बेहतर भी हो सकती है।यँहा हमारी सोंच जँहा कुएं का मेढंक बनकर टर्र2 करने की थी पर वँहा किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था, का की जै?


स्कूल अपने शहर से जो कि ईस्ट यूपी में आता है, इंजीनियरिंग दूसरे शहर जो कि वेस्ट यूपी में आता है (ईस्ट और वेस्ट यूपी में भाषा और व्यवहार में चीन जापान जैसा अन्तर है, दिखते एक जैसे हैं पर हैं अलग 2 टाइप के जंतु) और नौकरी एकदम से दूसरे स्टेट में की । पर उसके बाद बाबस्ता नौकरी और शहर बदलने का जैसे एक सिलसिला ही शुरू हो गया।


अपने घर में फैलकर सोने की तमन्ना दिल की बात की तरह दिल में ही रह गयी क्योंकि कुंडली में एक बिनबुलाई बंजारे की जिंदगी का आगमन हो चुका था।


अब तक जबान ने समोसा जलेबी और कबाब पराठा का ही स्वाद चखा था, मुरादाबादी दाल का जायका लेना बाकी था। वो भी लिया चार साल बड़े चाव के साथ, पर उसके बाद नौकरी में आते ही जब तक मोमोस और छोला कुल्चा की आदत पड़ती की किसी दिन अचानक जिंदगी में जलेबी फाफड़ा ने एंट्री मारी, कुछ दिन में स्वाद आने ही वाला था कि अचानक मौका मिलता है माछ भात और झाल मूड़ी का स्वाद लेने का।

कुछ सालों तक यही जिंदगी में उतरती रही और जब ये अपना रंग का ढंग दिखाने वाली थी कि सफेद गेंद सी लहराती इडली नमकीन से सांभर के साथ जिंदगी के स्वाद को और नमकीन बनाने आ धमकती है। इससे पहले नमक का कर्ज चुका पाते , तब तक तवे पर बड़ा पाव गर्म हो चुका था। 

हर बार ढलने के पहले स्वाद बदलता गया। कभी 2 तो सोंचा साला हर बार सब शुरू से शुरु करो , कौन पाले इतना झंझट।पर बाबू आज जब जिंदगी को पीछे मुड़कर देखा तो पाया इन शहरों, इन राज्यों की संस्कृति और लोगों ने व्यक्तिगत रूप से कितना प्रभावित और कितना उन्नत और परिपक्व किया है।


मूलरूप से मनुष्य का सामान्य आचरण है कि वो अपनी पारम्परिक चीजों से हटकर जब कुछ देखता है तो सबसे पहले उसको नकार देता है चाहें वो कोई नए तौर तरीके हों, खानपान या फिर संस्कृति। इंसान को अपने पुराने प्रचलित खान पान , पहनावे और तौर तरीके ही बेहतर नज़र आते हैं। अक्सर नए शहर में जाने वालों के मुंह से ये अनायास ही निकलता है कि "यार इस शहर में वो बात नहीं है"।

बात तो बाबू किसी भी शहर में नहीं होती बात तो लोगों में होती है, लोग ही शहर भी बनाते हैं और वो बात भी जो हमें शहर की खूबसूरती की तरफ खींचती है।


ये वास्कोडिगामा और कोलम्बस बनने का मौका हम छोटे शहर वालों को ये नौकरियां ही देती हैं। ये नौकरियां ही एक टूर पैकेज हैं (वो बात अलग है कि हमारे राज्य के नेता लपाटो की नीयत नहीं है कि ये पलायन रुके, पर हमें तो इसमें भी कुछ न कुछ फायदा ही देखना होगा, जनता जो ठहरे)

यूपी के एक छोटे से शहर से आने वाले के लिए क्या दिल्ली क्या मुंबई सब बराबर है सर्च जॉब में जो ये "ओपन टू ऑपरेशन " का ऑप्शन होता है वो जिंदगी को बहुत से आयाम और सोच को खुला आसमान देता है।

जहां नए अवसर और नए विचार परिपक्वता की ओर ले जाते हैं इन सब चीजों से इंसान जिंदगी में बहुत बेहतरीन भले बने न बने पर अपने ओल्ड वर्जन से बहुत बेहतर बनकर उभरता है, याद रखना।

 

पर बेटा एक बात जानो, बात हर शहर में होती है कुछ न कुछ। थोड़ा समय दो ख़ुद को और शहर को भी। वो बात सुनाई भी देगी और हसीन भी लगेगी।

सोंचता हूँ अगर अपने ही शहर में रह गया होता तो क्या कभी अपनी राज्य भाषा से आगे कुछ सीख पाता , दुनिया छोड़ो देश की विविधताओं से कभी मुख़ातिब होता। 

न जॉन एलिया का दर्द समझता न अम्बेडकर का संघर्ष।

अनेक प्रकार के विचारों, व्यवहारों और कुछ बेहतरीन लोगों से शायद कभी न मिल पाता। 

हमेशा यही लगता साउथ मतलब मद्रास और बंगाल मतलब मूड़ी और मछली, मुम्बई मतलब गर्दी और बाकी भी कुछ ऐसा ही। पर इन सब शहरों में इन सब बातों से अलग भी बहुत कुछ है जो इन्हें अपने में अलग और आकर्षक बनाता है।


अब किसी शहर किसी राज्य और किसी व्यक्ति को लेकर जजमेंटल नहीं होता क्योंकि सब अपने में कुछ न कुछ खूबियां समेटे हुये हैं।बाकी भले तो हम ख़ुद नहीं है तो किसी में दोष क्या ढूंढे और कुछ भी परफेक्ट नहीं होता क्योंकि जो परफेक्ट होता है वो तो भईया होता ही नहीं है.

बाकी अभी बहुत सफ़र तय करना है क्योंकि चच्चा कह गये हैं


"सितारों के आगे जहाँ और भी हैं,

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं।


तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ायें,

यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं"


ख़ैर चलते चलते बस यही कहूँगा कि साहब हर शहर को मौका दीजिये, अपना सब्र औ वक़्त दीजिये फ़िर सुनिए क्योंकि 


"हर शहर कुछ कहता है."



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