Sanchit Srivastava

Tragedy

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Sanchit Srivastava

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जलियावाला बाग

जलियावाला बाग

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कुछ दिन पहले दिवाकर बनर्जी द्वारा निर्मित जालियावाला बाग कांड पर बनी एक फ़िल्म उधम सिंह देखी।

फ़िल्म एक भारतीय के बदले की कहानी है, जो वो उस नृशंश हत्याकांड के विरूद्ध अपने दृढ़ इच्छाशक्ति और अटूट देशभक्ति के साथ ब्रिटिश जनरल डायर से लेता है 20 साल बाद.

जालियावाला बाग , ये सुनकर जेहन में बस तीन बातें ही उभरती हैं... नृशंश हत्या, जनरल डायर की बर्बरता और सरदार उधम सिंह का प्रतिशोध।

पर एक चौथी बात भी कौंधती है कि क्या एक अकेले डायर के बस का था ये सब कर पाना, सम्भव था क्या एक आदमी जो बाहर से आया है भारतीयों के बीच खड़ा होकर भारतीयों को ही मरवा दे।

क्या वास्तव में जनरल डायर दोषी था इस हत्याकांड का ? क्या उसने सोलह सौ पचास राउंड फायर किए थे ?

जवाब है...नहीं....बिल्कुल नहीं... उसने बस आदेश दिया था जिसको पूरा भारतीय सैनिकों ने ही किया था.

असल में ये कांड भारतीयों का भारतीयों पर भारतीयों के द्वारा ही किया गया सबसे नृशंश हत्याकांड था. 

कब तक इस बात से मुँह चुराते और अंग्रेजों को दोषी मानते घूमेंगे हम? क्यों नही स्वीकार कर लेते राष्ट्रीयता तब भी कुछ लोगों के लिए निजी स्वार्थों के समक्ष तुच्छ हो गयी थी.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था , बस लोगों के जेहन में बस इसलिये ये ताज़ा है क्योंकि ये घटना बस सौ साल पहले हुई थी, भारतीय जनता हजारों सालों से विदेशी बर्बरता के आगे अपनी कायरता दिखाती आयी थी।

इसकी शुरुआत आज से एक हजार साल सन 1001 में हुई थी जब तुर्क आक्रांता महमूद ग़जनी भारत आया था, तब से लगाकर 1025 तक 17 बार उसने भारत पर आक्रमण किये पर भारतीय राजाओं के निजी स्वार्थ और खोखले घमंड देशभक्ति से कहीं ऊपर थे, इसलिए उन्होंने मातृभूमि की रक्षा हेतु मिलकर प्रतिरोध करने की बजाय गजनी का साथ देना शुरू किया.

अपने ही लोगों की दग़ाबाज़ी और खूंखार तुर्कियों के समक्ष बड़े 2 राजा चाहे वो पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) के राजा जयपाल हों और चाहे दिल्ली के महिपाल सिंह हो कोई भी पूर्ण रूप से विरोध करने में सक्षम नहीं रहे।

महमूद ग़जनी जिसे बुत शिकन के नाम से भी जाना गया, सोमनाथ का मंदिर लूटकर मूर्तियां सड़कों फिकवाई और तलवार की नोक पर भारी मात्रा में धर्मांतरण करवाया। 

यहीं धर्मांतरित लोग बाद में तुर्की सेना में मिलकर अपने ही देश के लोगों को मारने लगे, इस पूरे खेल में राष्ट्रीयता कहाँ थी ?

भारतीय हिन्दू समाज को लगता था अगर कोई अत्याचार करता है तो भगवान अवतार लेकर बचाने आएंगे, ये प्रह्लाद और नरसिंह भगवान की कथाओं में इतना मगन थे प्रतिरोध या बचाव दोनों के लिए ईश्वरीय सत्ता पर निर्भर हो गए थे, पर इन्हें क्या पता था कि अबके राम न आएंगे...जो जनता ही प्रतिरोध न करे उसका राजा भी उसे नहीं बचा सकता।

अगर प्रतिरोध जरूरी न होता तो आजादी चरखे से आ जाती और कोई भगत सिंह शहीद न होता।

देश में अंहिसा परमो धर्मा का भरपूर प्रचार हुआ पर "धर्म हिंसा तथैव च:" कँहा दबा रह गया किसी को नहीं मालूम.

भारतीय ही भारतीयों के ख़िलाफ़ हजारों सालों से लड़ते आये हैं तो जलियावाला बाग में कुछ भी नया नहीं था. भारत और चीन शुरुआत से ही घनी आबादी वाले देश रहे हैं , कोई भी आक्रमणकारी अपने साथ लाखों सैनिक कभी नहीं लाया , वो लाये तो कुछ चंद हजार ही और लाखों में तब्दील किया यँहा के लोगों को मिलाकर.

इसमें तुर्कों मुगलों और अंग्रेजों को दोष दे देकर कब तक कायरता और निकम्मापन छुपायेगी भारतीय जनता.

न्याय तो तब होता जब जनरल डायर को गोली मारने के बजाय उन भारतीयों को पकड़ा जाता जिन्होंने निजी स्वार्थ की ख़ातिर अपने ही देश वासियों पर बंदूके तान दीं.

कभी कोई देश या परिवार बाहरी ताकत से नहीं हारता, वो हारता अंतरकलह और आपसी सद्भाव की कमी से है. 

जयचंद तब भी थे , जयचंद अब भी है अंतर इतना है तब स्पष्ट रूप से समक्ष आते थे पर अब भारत पाक मुकाबले में भारत की हार पर पटाख़े फोड़कर जश्न मनाते नजर आते हैं .

ये कैसी वतनपरस्ती है ये कैसे मादर ए वतन हैं.

क्या यही लोग कल को फिर किसी जनरल डायर की अगुआई में जलियावाला बाग नहीं दोहराएंगे... बिल्कुल दोहराएंगे.

क्या तब भी आप उधम सिंह बनकर बस डायर को ही मारने जाएंगे...शायद मैं गलत हूं पर मेरा नजरिया यही है कि डायर उतना दोषी नहीं था जितना खुद अपने भारतीय थे क्योंकि समस्या खुद में है बाहरी तो बस आपदा को अवसर में बदलता है.

जाते 2 बस यही कहूंगा कि

कायर नहीं है यारों हम

ना युद्ध कोई हम हारे हैं, 

घर में छुपे जयचंदों ने

पीठ पे खंजर मारे हैं।


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