Kedar Kendrekar

Tragedy

3.3  

Kedar Kendrekar

Tragedy

"उनके सपनों का भारत"

"उनके सपनों का भारत"

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यह स्वतंत्रता पूर्व भारत में तीन अलग-अलग सामाजिक वर्गों की कहानी है। उन्होंने आजादी के बाद एक समृद्ध भारत का सपना देखा था। आजादी के बाद के भारत की आजादी से पहले की तस्वीर पर मुस्कुराते हुए उन्होंने खुशी-खुशी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आजादी के 75 वें वर्ष में पदार्पण करने के बाद क्या आज हम लोग उनके सपनों का भारत साकार कर सके है ? यह असली सवाल है ।


आज १४ अगस्त १९४७… .. यह लगभग तय था कि अंग्रेजों की आधिकारिक घोषणा के अनुसार भारत को स्वतंत्रता मिलेगी। वह क्षण जिसका भारत के सभी लोगों को बेसब्री से इंतजार था, आखिरकार आ गया और 14 अगस्त 1947 की आधी रात को, स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी ने भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए अपने ऐतिहासिक भाषणका आरंभ किया। "भारत कल सुबह एक नए युग में प्रवेश करेगा जब पूरी दुनिया गेहरी निंद में होगी।" यही इस भाषण का मतीतार्थ था। यह युग निश्चित ही “ स्वतंत्रता के युग ” के नाम से जाना जानेवाला था ।

       किसान परिवार का एक साधारण किसान बुधा यह सब सुन रहा था। सुनते सुनते उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। वह स्वतंत्रता पूर्व काल में अंग्रेजों द्वारा किसानों का शोषण और लूट का प्रत्यक्ष गवाह था। उसके पिता ने 1857 में स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था। जब तक बुधा यौवन की आयु में पहुंचा, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में तिलक युग समाप्त हो चुका था और गांधीजी का अहिंसक आंदोलन शुरू हो गया था। मावल-जहल का संघर्ष समाप्त हो चुका था। इन सबका स्थान अब गांधीजी के अहिंसक आंदोलन ने ले लिया। जब बुधा ऐन 20/25 वर्ष का था, तब उसने गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया था। इस आंदोलन में "असहयोग आंदोलन", "सविनय अवज्ञा आंदोलन" जैसे महत्वपूर्ण मील के पत्थर थे। यह सब 9 अगस्त, 1942 के "छोड़ो भारत " आंदोलन में निर्णायक रूप से समाप्त हो गया, और अगले पांच वर्षों में भारतीय स्वतंत्रता का स्वर्णिम दिन आया। एक साधारण किसान के रूप में, बुधा भारतीय स्वतंत्रता और उसके बाद संभावित कृषि सुधारों के बारे में सोच रहा थे। इन सब विचारों का निहितार्थ यही था कि स्वतंत्रता के बाद कृषि और किसानों के लिए “ अच्छे दिन “ आएंगे।

बेहराम भी बुधा के समान उम्र का गृहस्थ था लेकिन एक अमीर पारसी परिवार में पैदा हुआ था। उसके पिता तत्कालीन पारसी समुदाय के एक बहुत ही प्रतिष्ठित और धनी सज्जन थे। वे स्वयं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। उन्होंने क्रांतिकारियों को हथियारों की खरीद के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की थी। तिलक युग में उन्होंने राष्ट्रीय सभा के सत्र में भाग लिया था। उन्होंने बाद के गांधी पर्व की शुरुआत में गांधीजी के अहिंसक आंदोलन में भी भाग लिया। उन्होंने बेहराम में भी देशभक्ति का भाव जगाया। बेहराम हमेशा यह सोचता था, कि देश के विकास के लिए उनकी संपत्ति का उपयोग कैसे किया जाए। इसलिए, जैसे ही 15 अगस्त 1947 को देश की स्वतंत्रता की घोषणा हुई, उसने अपनी कंपनी और कारखाने के शेयर्स को भारत सरकार को बेचकर उसकी संपूर्ण संपत्ति का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस संपत्ति का उपयोग अब राष्ट्रीय कार्यों के लिए किया जाएगा। सामान्य गरीबों की "कल्याणकारी योजनाओं" का निर्वहन इससे किया जाएगा। इसे ध्यान में रखते हुए, बेहराम ने आखिरकार स्वतंत्र भारत में अंतिम सांस ली।

नारायण, नामक एक अन्य भारतीय बुधा और बेहराम का हमउम्र था और एक बौद्धिजीवी मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुवा था l वह भी उस दिन भारतीय स्वतंत्रता दिवस समारोह देख रहा था । अपनी सरलता के कारण, नारायण ने स्वतंत्रता पूर्व "भारतीय सिविल सेवाओं" की कठोर परीक्षा उत्तीर्ण की और तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासन में एक बड़े पद पर कार्यरत था। लेकिन "मै चाहे कितना भी महान अधिकारी क्यों न बनु किंन्तु, मै अंग्रेजों की सेवा कर रहा हुँ," यह विचार उसके मन में निरंतर आता था। लेकिन देर-सबेर जब भारत माता आजाद होगी तो उसे यह यकीन था कि वह अपने देश की सेवा करने वाला एक प्रशासनिक अधिकारी के नाते जाना जाएगा । भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा ने नारायण को राष्ट्रीय सेवा के विचारों से भर दिया। वह देशभक्त बन गया। स्वतंत्रता के बाद के भारत में उसकी सेवा की गुणवत्ता में बदलाव आया। वह सेवा अब आई.सी.एस. इसके बजाय आई.ए.एस. (भारतीय प्रशासनिक सेवा) के नाम से जाने जानी लगी। प्रशासनिक अधिकारी उन योजनाओं को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं जो आम जनता के लिए उपयुक्त होती हैं। यह विचार नारायण के मन में और प्रबल हो गया। नारायण, जो स्वतंत्रता पूर्व भारत में प्रशासनिक सेवा में शामिल हुवा था, बाद में स्वतंत्रता के बाद के भारत में सेवानिवृत्त हुवा और बाद में खुशी-खुशी जीवन व्यतीत करने लगा ।

 बुधा , बेहराम और नारायण 15 अगस्त 1947 के स्वतंत्रता की उस "महत्वपूर्ण" घटना के तीन महत्वपूर्ण गवाह थे। वे संपूर्ण भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। आज 75 साल बाद उन्हें याद करने का कारण है हमारे भारत देश का "स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव " । इतने सालों में नैतिकता की तिलांजली, नियम-कायदों की अनदेखी और कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट से गुज़रनेवाले भारत देशका स्वतंत्रता पश्चात का सफर विचार करने जैसा है l

75वें स्वतंत्रता दिवस की पृष्ठभूमि पर विचार करे, तो हमने आजादी से पहले अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे शोषण का विरोध किया और आजादी हासिल की। लेकिन क्या आज भी हम बुधा जैसे लाखों किसानों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सफल हुए हैं? यह असली सवाल है ।

 विभिन्न बैंकों से कर्ज में करोड़ों रुपये लेकर विदेशों में भागनेवाले उद्योगपतीयों की कहानीयाँ पढने के बाद यह मन में आता है की एक आर्थिक और औद्योगिक रूप से समृद्ध भारत के सपने का क्या हुआ, जैसा कि बेहराम जैसे देशभक्त उद्योगपतियों ने देखा था l यह असली सवाल है ।

हररोज के अखबारों में खुसखोरी की नई नई कहानियाँ पढ़कर क्या नारायण जैसे स्वतंत्रता-पूर्व प्रशासनिक अधिकारी द्वारा देखा गया स्वच्छ और पारदर्शी प्रशासनिक सेवा का सपना टूट गया? यही असली सवाल है ।

अंत में, एक सामान्य भारतीय नागरिक के रूप में, इस गिरी हुवी व्यवस्थाके लिये मैं निजीकरण - उदारीकरण - वैश्वीकरण, पर्यावरणकी हुवी क्षती, खोकली प्रशासनिक व्यवस्था, विशाल जनसंख्या वृद्धि जैसे कई कारणों को जिम्मेदार मानता हु और अपने मन का समाधान करने का प्रयास करता हूँ l

लेकिन यह अफ़सोस की बात है कि हम सब भारतीयों का बड़े पैमाने पर नैतिक पतन होने के कारण हम किसी भी तरह से "उनके सपनों का भारत" साकार करने में विफल रह चुके हैं, जो सपना उन स्वतंत्रता-पूर्व भारतीय पीढ़ियों द्वारा देखा गया था ।


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