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Kedar Kendrekar

Inspirational

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Kedar Kendrekar

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Dr. Ravindra M. Kendrekar - Biography

Dr. Ravindra M. Kendrekar - Biography

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उड़ जाएगा हंस अकेला ……

मराठी भाषा में एक कहावत है – “जो आवडतो सर्वांना , तोची आवडे देवाला ! ” जो लोग सभी से प्रेम करते हैं, सभी की सहायता करते हैं, सामाजिक चेतना बनाए रखते हैं, सांसारिक और धार्मिक जीवन में अत्यंत सफल होते हैं, वे एक दिन अचानक हम सबका साथ छोड़कर भगवान के घर चले जाते है। यही हम सबका सार्वत्रिक अनुभव रहा है l

                 दुर्भाग्य से हमे भी ऐसा ही अनुभव मेरे पिताजी के बारे में मिला। वर्ष 2020 में "कोरोना" नामक बीमारी ने विविध क्षेत्रों के अच्छे अच्छे व्यक्तियोंको अपने चपेट में लिया और उनका निधन हुआl मेरे पिताजी डॉ. रवींद्र माणिकराव केंद्रकर परभणी के एक प्रसिद्ध वैदयकिय चिकित्सक थे। उन्होंने चिकित्सा की डिग्री ऐसे समय में अर्जित की जब चिकित्सा पेशे को समाज सेवा के सर्वोत्तम साधन के रूप में देखा जाता था। उनका जन्म 31 जुलाई 1953 को हुआ था। उनके पिताजी अर्थात मेरे दादाजी माणिकराव माधवराव केंद्रकर उस समय के एक प्रसिद्ध न्यायाधीश थे। मेरे पिताजी का व्यक्तित्व वास्तव में एक अजीबोगरीब रसायन था, जो एक उच्च शिक्षित परिवार और समाज सेवा के प्रति प्रेम से बना था। जैसा कि मैंने उन्हें बचपन से देखा है, उन्होंने अपना जीवन पूरी शिदतके साथ जिया है। उन्हे जिन विषयों में रुची थी, वे सभी के प्रति उन्होने अपना योगदान पूर्णरुप से दिया l अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने बी.जे. मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. डिग्री 1978 में संपादित की थी। इसके बाद उन्होंने मुंबई के विभिन्न अस्पतालों में लगभग 1 साल तक चिकित्सा क्षेत्र का अनुभव लिया और आखिरकार 1980 में हिंगोली जिले के औंढा नागनाथ में अपना निजी चिकित्सा व्यवसाय शुरू किया। उन्हें उस समय वहाँ का पर्यावरण इतना पसंद आया कि उन्होंने वही बसने का फैसला किया। औंढा में लगभग 10 वर्षों तक चिकित्सा का व्यवसाय करने के बाद, वह 1990 से परभणी में चिकित्सा का व्यवसाय करने लगे।

चूंकि परभणी शुरू से ही एक शहर था, इसलिए उनका चिकित्सा के साथ-साथ सामाजिक करियर भी सही मायने में फला-फूला। वे विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय गतिविधियों में रुचि लेने लगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) से प्रभावित होकर, उन्होंने जीवन भर "राष्ट्राय स्व: इदं न मम" के सिद्धांत का पालन किया और हमें भी इस मंत्र की दीक्षा दी। पर्यावरण के प्रति उनकी रुचि को देखते हुए विभिन्न स्थानों पर वृक्षारोपण अभियान चलाया गया। इसकी शुरुआत संत ज्ञानेश्वर माऊली के मंदिर से हुई। पसायदान में संत ज्ञानेश्वर द्वारा की गई विश्व कल्याण की प्रार्थना इससे भिन्न कहाँ थी? एक तरह से पिताजी ने अपने काम से सनातन हिंदू धर्म का संदेश सभी तक पहुंचाया। संत ज्ञानेश्वर माऊली मंदिर में ही उन्होंने बच्चों के लिए “बाल संस्कार वर्ग” का संचालन किया और भारत के अगली पीढ़ी के उज्वल भविष्यको आकार देने के कार्य की शुरुआत की। एक धर्मनिष्ठ हिंदू होने के कारण वे कुछ समय के लिए विश्व हिंदू परिषद के परभणी नगर अध्यक्ष के पद पर भी कार्यरत रहे। उन्होंने संघ की प्रमुख चिकित्सा शाखा “आरोग्य भारती” के लिए भी काम किया। 2008 में नागपुर में आरोग्य भारती के राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लिया।

तदनंतर आरोग्य भारती के व्यस्त कार्य से बाहर आकर उन्होंने गोसेवा करने का निश्चय किया और संत ज्ञानेश्वर माऊली मंदिर, विद्या नगर, परभणी में पहली गोशाला की शुरुआत की। उन्होंने परभणी में गंगाखेड़ रोड पर गोरक्षा करने हेतु गोरक्षन पांजरपोल को फिर से स्थापित करने और गोमाता को अपना स्थायी आवास देने का निश्चय किया। लेकिन दुर्भाग्य से कोरोना काल में 28 सितंबर 2020 को अचानक उनकी मौत हो गई और उनका सपना अधूरा रह गया l उन्होंने महसूस किया कि पर्यावरण का कार्य समग्र रुप से किया जाना चाहिये l उन्होंने वृक्षारोपण के साथ साथ जलपूनर्भरण, कुडा कचरा व्यवस्थापन, गो सेवा, अपारंपारिक ऊर्जास्त्रोत का प्रयोग आदि अनेक कार्योंमें आपना योगदान दिया l इसलिए, मराठवाड़ा जैसे महाराष्ट्रके पिछडे क्षेत्र में सूखे की स्थिति की गंभीरता को समझते हुए, उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से ज्ञानेश्वर माऊली मंदिर, विद्या नगर, परभणी में वर्षा काल में सफलतापूर्वक वर्षा यज्ञ (पर्जन्ययाग) का आयोजन किया। वृक्षारोपण, गोसेवा, जल पुनर्भरण आदि जैसे स्थायी उपायों के आधार पर न केवल परभणी बल्कि मराठवाड़ा के भी बिगड़े हुए पर्यावरण को पुनर्जीवित करने की उनकी मनीषा थी l मराठवाड़ा में पर्यावरण को संतुलित करने के लिए भविष्य में "शाश्वत विकास संस्था" स्थापित करने और मराठवाड़ा स्तर का पर्यावरण सम्मेलन आयोजित करने का उनका इरादा था। लेकिन दुर्भाग्य से यह पूरा नहीं हो सका। चिकित्सा पेशे में 30 से अधिक वर्षों के बाद, उन्होंने महसूस किया कि 21 वीं सदी की अधिकांश बीमारियाँ हमारी जीवन शैली से संबंधित हैं। अधिकांश लोग मनोसामाजिक और मनोशारिरीक बीमारियों से पीड़ित हैं। इस पर उपाय था की हर व्यक्ति ने किसी ना किसी कला का सहारा लेकर आपने मन को प्रसन्न रखना जरूरी है l संगीत तो एक ऐसी कला है, जिसका संबंध सीधे व्यक्ति के मन से हैl शायद इसीलिए उन्होंने मुझे बचपन से ही इस कला को सिखने हेतु प्रोत्साहित किया। वे स्वयं एक उत्तम श्रोता थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति उनके प्रेम ने मुझे शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपनी व्यस्त जीवन शैली से समय निकालकर संगीत सभाओं में भाग लिया। उन्हें यह गुण शायद मेरे दादाजी से विरासत में मिला था। क्योंकि दादाजी भी जज्ज होने के नाते संगीत नाटक और शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम देखने जाते थे। पिताजी परभणी में होने वाले हर संगीत सम्मेलन और संगीत सभा में भी शामिल होते थे और हो सके तो उनकी आर्थिक मदद भी करते थे।

एक चिकित्सक होने के बावजूद, कई क्षेत्रों में उनकी पढ़ाई अपार थी, जिसने मुझे अचंभा में डाल दिया था। क्योंकि आजकल कि पीढ़ी एक ढाँचागत करिअर को जीना पसंद करती है l जबके मैंने उनके द्वारा खरीदी गयी किताबों की सूची बनाई तो मुझे न केवल अंग्रेजी में बल्कि मराठी, हिंदी, संस्कृत भाषाओं में भी किताबें मिलीं। इनमें से पर्यावरण, स्वास्थ्य, इतिहास, भूगोल, धर्म, विज्ञान और भाषा पर कई पुस्तकें आज भी हमारे लिए उपयोगी हैं। केवल चिकित्सा विषय तक सिमित ना रहते हुए सभी विषयों पर अच्छी किताबें पढ़ना और दृक-श्राव्य माध्यमों जैसे फिल्मों, नाटकों आदि के माध्यम से विविध विषयों की जानकारी प्राप्त करना यह उनका जिज्ञासु रवैया आज भी हम सभी को सीखने लायक है। यह उन्हीं की देन है, की मैं अभी भी दैनिक समाचार पत्रों के संपादकीय पढ़ने में रुची रखता हूँ l "पढ़ना" आपकी बौद्धिक भूख मिटाता है l बस आपको इसकी आदत लगा लेनी चाहिये और खुद को हर समय पढ़ने हेतु तैयार रखना चाहिये, यही बात मैंने उनसे सीखीl

अपने जीवन के अंतिम चरण में, उनका जीवन पैसा, यश, कीर्ति, मान सन्मान आदि से समृद्ध हुआ था l दुर्भाग्य वश मैं मेरे पिताजी का उनके पिताजी के अर्थात मेरे दादाजी के प्रति प्रेम नहीं देख पाया किंतु पिताजी उनकी माँ से बेहद प्रेम करते थे l अपनी माँ की हर आज्ञा का नि:संकोच पालन करते थे। दादीजी के निधन के बाद पिताजी को उनके मृत शरीर के सम्मुख फुटफुटकर रोते हुए मैंने देखा है l दादीजी के प्रति उनका प्यार दर्शानेवाला वह प्रसंग मैं जिंदगी में कभी नहीं भुलूंगा l पिताजी ने घर संसार, पर्यावरण, संगीत, सामाजिक सेवा, चिकित्सा क्षेत्र आदि क्षेत्रों में खुब मुसाफिरी की l वे मुझे हमेशा कहते , की आसली इन्सान वही है, जो संसार और परमार्थ की राह पर समान रुप से चलता है और अंत में सफल होता है l संसार का निर्वहन भली भाँती करे और परमार्थ को भी कभी नहीं भूले यही सिख उन्होंने हमें दीl मराठी के एक श्रेष्ठ संत समर्थ रामदासस्वामी ने एक बार यह कहाँ था, की “राम करता करविता, मी केवळ निमित्तमात्र” यह दीक्षा पिताजी को उनकी माँ से प्राप्त हुई थी l आज भी हम इसी राह पर चलने का प्रयास कर रहे है l

पिताजी के निधन के बाद 31 जुलाई, 2020 को उनकी मृत्यु से पहले उनके द्वारा लिखी गई एक डायरी हमें प्राप्त हुई । लोग हमेशा यह कहते है, की व्यक्तीको आपने मृत्यु का अंदेशा अंत में हो ही जाता है l पिताजी ने भी कुछ उसी तरह उस डायरी में उनकी अबतक की सफलताओं और कुछ अधूरे कामों के बारे में लिखा था l उनके द्वारा किए गये कामों का उसमें जिक्र था l क्या खोया, क्या पाया इन सभी घटनाओं का ब्योरा था l हमें भविष्य में क्या करना चाहिये ? कैसा व्यवहार रखना चाहिये ? इसका मार्गदर्शन भी उसमें किया गया था l कहते है कि "जब तक कोई इंसान ज़िंदा है तबतक आप उसे पूरी तरह से समझ नहीं सकते", ये सच है!

पिताजी के इस अकस्मात् निधन के बाद उनके द्वारा किए गये विस्तृत कार्य की स्मृतीयों को याद करते हुए मुझे पं. कुमार गंधर्व जी के निर्गुणी भजन की वही पंक्ति याद आयी जिसमें वे गाते है -

उड़ जायेगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला ! जग दर्शन का मेला !!



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