Kedar Kendrekar

Inspirational

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नरवीर उमाजी नाईक

नरवीर उमाजी नाईक

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आदिवासी भारतीय उपमहाद्वीप की एक जनजाति हैं जिन्हें भारत के कुछ हिस्सों में मूल निवासी माना जाता है। इनमें से अधिकांश समूह भारत के संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित जनजाति श्रेणी में शामिल हैं। भारत में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, और पूर्वोत्तर भारत और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और फेनी, खगरबन में आदिवासी समुदाय विशेष रूप से प्रमुख हैं।

ऐसे आदिवासी समुदाय ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां मैं महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्र से संबंधित रामोशी समुदाय के नरवीर उमाजी नाइक की कहानी बता रहा हूं।

नरवीर उमाजी नाइक को महाराष्ट्र के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में से एक के रूप में जाना जाता है। उनका कालखंड – 7 सितंबर 1791 से 3 फरवरी 1832 था l उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में रामोशी समाज व्दारा ब्रिटिशों के खिलाफ किये गये आंदोलन में उमाजी नाइक की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनका जन्म पुणे जिले के भिवाड़ी (ता. पुरंदर) में हुआ था। उनके पिता दादाजी खोमने पुरंदर किले के संरक्षक के रूप में कार्यरत थे। शिवाजी महाराज के समय से ही कई किलों के रख-रखाव का जिम्मा इसी समुदाय को सौंपा गया था। उमाजी बचपन से ही अपने पिता के साथ पुरंदर की रखवाली करते थे। उन्हें उनके पिता ने गुलेल, कुल्हाड़ी, भाला, तलवार और छुरे का इस्तेमाल करना सिखाया था। शस्त्र कौशल में उन्होने महारत हासिल की थी। उमाजी के पिता की मृत्यु 11 वर्ष की आयु में हो गई थी और वंशपरंपरा से उनकेपास वतनदारी चली आयी थी l

1803 में, अंग्रेजों की सलाह पर बाजीराव व्दितीय ने पुरंदर किले को रामोशी के नियंत्रण से बाहर करने की कोशिश की, लेकिन रामोशी ने इसका कड़ा विरोध किया। इसलिए क्रोधित पेशवाओं ने रामोशी लोगों के अधिकार और भूमि को जब्त कर लिया। उमाजी ने पेशवाओं के इस अत्याचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उमाजी एक महान संघटक थे। कई रामोशी उन्हें अपना नेता मानते थे। उन्होने अपना ध्यान साहूकारों और जमींदारों की ओर लगाया जिन्होंने गरीबों को लूटा। उमाजी ने पनवेल-खालापुर के पास मुंबई के एक साहुकार चांजी मटिया की संपत्ति लूट ली, जिसने गरीबों को लूट लिया और साहूकार बन गया था। उमाजी तब अंग्रेजों के हाथों में पड़ गए और उन्हें एक साल की कड़ी सजा सुनाई गई। अपनी रिहाई के बाद, वह फिर से एक डकैती में पकड़े गये और उन्हे सात साल जेल की सजा सुनाई गई। जेल में रहते हुए उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा।

उमाजी खंडोबा के भक्त थे। उनके पत्र का शीर्षक हमेशा 'खंडोबा प्रसन्ना' रहता था। सत्तू बेरदा के नेतृत्व में उनके भाई अमृता ने भांबुरदा में ब्रिटिश सैन्य के खजाने को लूट लिया। इस लूट में उमाजी की अहम भूमिका थी। 1825 में सत्तू की मृत्यु के बाद, उमाजी उसके गिरोह का नेता बन गये। जैसे ही उमाजी के खिलाफ शिकायतें ब्रिटिश सरकार तक पहुंचीं, 28 अक्टूबर 1826 को अंग्रेजों ने उनके खिलाफ पहला घोषणापत्र जारी किया। इसमें ब्रिटिशों व्दारा उमाजी और उनके साथी पांडुजी को पकडकर देनेवाले व्यक्ती को 100 रु के पुरस्कार की घोषणा की गई। दूसरे घोषणापत्र में यह घोषणा की गई की उमाजी के साथ साथ उनके समर्थकों को मार दिया जायेगा। नतीजतन, उमाजी ने अंग्रेजों के खिलाफ एक अभियान शुरू किया। उन्होंने भिवाड़ी, किकवी, परिंचे, सासवड और जेजुरी क्षेत्रों में लूटपाट की। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उमाजी पर कब्जा करने के लिए एक स्वतंत्र घुड़सवार सेना की नियुक्ति की और 152 स्थानों पर चौकी स्थापित की, लेकिन उमाजी अंग्रेजों के हाथ नहीं आये।

8 अगस्त, 1827 को, अंग्रेजों ने फिर से उमाजी को पकड़ने का आह्वान करते हुए एक उद्घोषणा जारी की। उन्होंने घोषणा की कि जो लोग सरकार की मदद नहीं करेंगे उन्हें उमाजी का सहयोगी माना जाएगा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अंग्रेजों ने लोगों को पैसे का लालच देकर उमाजी को पकडकर देनेवाले को पैसों के पुरस्कार की घोषणा की। इस काल में उमाजी का प्रभुत्व बढ़ता गया। वे अपने आप को 'राजा' कहने लगे। उन्होने लोगों के शिकायतों पर निर्णय देना शुरु किया l तब अंग्रेजों ने उमाजी को पकड़ने के लिए यवत के रामोशी रानोजी नाइक और रोहिड़ा के रामोशी अप्पाजी नाइक की मदद ली थी। 1827 में उमाजी ने अंग्रेजों को चुनौती दी। डी. रॉबर्टसन को अपनी मांगें रखीं। मांगें पूरी नहीं होने पर रामोशी के विद्रोह का सामना करना पड़ेगा, ऐसी उन्होंने धमकी दी। रॉबर्टसन ने तब उमाजी के खिलाफ पांच सूत्री घोषणापत्र जारी किया। इसमें उमाजी को पकड़ने वाले को पांच हजार रुपये के पुरस्कार की घोषणा की गई। इस घोषणा के विरोध में, 25 दिसंबर 1827 को उमाजी ने ठाणे और रत्नागिरी सुबे के लिए एक अलग घोषणा जारी की। इस घोषणा के अनुसार 13 गांवों ने अपना राजस्व उमाजी को दिया। यह घटना अंग्रेजों के लिए एक चेतावनी थी। जब उमाजी ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया, तो अंग्रेजों ने उनकी पत्नी, दो बच्चों और एक बेटी को पकड़ लिया। तब उमाजी ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने उन्हें उनके सभी अपराधों के लिए माफ कर दिया और उन्हें काम पर रख लिया। 1828-29 की अवधि के दौरान, पुणे और सतारा में शांति बनाए रखने के लिए उमाजीपर जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस दौरान उन्होंने कई तरह से पैसे जुटाए। इसलिए, अगस्त 1829 में, अंग्रेजों ने उन पर लूटपाट, फिरौती इकट्ठा करने, दावतें आयोजित करने आदि का आरोप लगाया; लेकिन उन्हे नोकरी से बर्खास्त नहीं किया गया। इस अवधि के दौरान उमाजी ने अंग्रेजों के खिलाफ लामबंदी शुरू कर दी थी। भाईचंद भीमजी के बारे में जब मनी लॉन्ड्रिंग का मामला सामने आया तो अंग्रेजों ने अचानक उमाजी को कैद कर लिया; हालांकि, वह इससे बच निकले और करे पठार पर चला गये। यहीं से उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अभियान शुरू किया।

उमाजी को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने अलेक्जेंडर मैकिन्टोश को काम पर रखा था। पुणे के कलेक्टर जॉर्ज गिबर्न ने 26 जनवरी, 1831 को फिर से जनता को पैसे का लालच दिखाते हुए उमाजी के खिलाफ एक उद्घोषणा जारी की, लेकिन किसी ने उमाजी के खिलाफ शिकायत नहीं की। उमाजी ने तब अंग्रेजों के खिलाफ अपना घोषणापत्र जारी किया । इस घोषणापत्र को 'स्वतंत्रता का घोषणापत्र' के रूप में भी जाना जाता है। इसमें उन्होने युरोपिय समुदाय के लोगों को देखतेही मार डालनेका आदेश दिया था, जिन लोगों की भूमि और वेतन अंग्रेजों द्वारा काट दिये गये है, उन्होने उमाजी की सरकार का समर्थन करना चाहिए, हम उन्हें उनकी जमीन और वेतन वापस देंगे; ऐसी जनता से अपील की l उमाजी ने चेतावनी दी थी कि कंपनी सरकार की पैदल सेना और घुड़सवार सेना के सैनिकों को कंपनी के आदेशों की अवहेलना करनी चाहिए, अन्यथा उन्हें उमाजी के सरकार की सजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए और कोई भी गाँव अंग्रेजों को राजस्व नहीं देगा, अन्यथा उस गाव को उमाजी की सेनाव्दारा नष्ट किया जाएगा। संपूर्ण भारत एक देश या एक राष्ट्र की अवधारणा है। इसमें हिंदू-मुस्लिम राजा, सरदार, जमींदार, वतनदार, आम रैयत भी शामिल थे। घोषणा के बाद, उमाजी ने 'समस्त गडकरी नाइक' को संबोधित एक पैम्फलेट जारी किया और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया।

उमाजी और उनके साथीयों ने सचमुच कोल्हापुर, सोलापुर, सांगली, सतारा, पुणे और मराठवाड़ा क्षेत्र में दहशत का वातावरण तयार किया था। इनसे निपटने के लिए कई अंग्रेज अधिकारियों को नियुक्त किया गया । 8 अगस्त, 1831 को, अंग्रेजों ने एक और घोषणा जारी की जिसमें कहा गया कि उमाजी और उनके साथीयों को पकडने में बिटिशों की मदत करनेवालों को 10,000 /- रुपये और 400 बिघा जमीन इनाम में दि जाएगी l उमाजी के दो साथी कालू और नाना इस लालच का शिकार हो गए। उन्होने 15 दिसंबर 1831 को उमाजी को पकड़ लिया और उन्हे अंग्रेजों के हवाले कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने उमाजी को पुणे में 3 फरवरी 1834 को फांसी दे दी।

किंतु नरवीर उमाजी नाईक की अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता हेतु की गई बगावत हमेशा हमेशा के लिये अमर हो गई l इससे कई क्रांतिकारकों को त्स्फुर्ती मिली और उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड दी और आखिरकार 15 अगस्त 1947 को भारत देश को अंग्रेजों से आझादि मिली l



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