Sulakshana Mishra

Inspirational

4.5  

Sulakshana Mishra

Inspirational

उम्र का दूसरा पड़ाव ..एक नयी सोच

उम्र का दूसरा पड़ाव ..एक नयी सोच

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मुस्कान.... जैसा नाम वैसी ही लड़की। मुस्कान ज़िंदगी से भरी एक बहुत ही ज़िंदादिल लड़की थी। अपनी मुस्कुराहट से सबको अपना बना लेने वाली इस मुस्कान की ज़िंदगी में जब कभी दुख भी आये, तो उनका स्वागत भी उसने मुस्कुराकर ही किया। बचपन से लेकर अब तक मुस्कान हमेशा अव्वल ही रही है, चाहे वो पढ़ाई लिखाई हो, खेलकूद या फिर कुछ और। शायद यही खूबियां थी उसकी कि वो सबकी चहेती थी।कॉलेज में थी, तब ही उसका चयन एक अग्रणी इंस्टीट्यूट में एम बी ए करने के लिए हो गया था। इस इंस्टीट्यूट से एम बी ए करने का शायद हर स्टूडेंट ख्वाब तो देखता है, पर ख्वाब पूरा कुछ विरलों का ही होता है। मुस्कान उन विरलों में से एक थी। ऐसे तो परिवार में मुस्कान सभी के बहुत करीब थी,पर अपने दादा से ज़्यादा दिन तक दूर रह पाना उसके लिए बड़ा मुश्किल काम होता था। कुछ ऐसा ही हाल उसके दादा का भी था।


ज़िन्दगी अपनी रफ्तार से चल रही थी, सब कुछ अच्छा ही चल रहा था मुस्कान की ज़िंदगी में। मुस्कान के पापा की पोस्टिंग फिलहाल दिल्ली में थी। दादा-दादी भी साथ मे रह रहे थे। उसके छोटे भाई अंशुल का भी इंजीनियरिंग का आखिरी साल था। दिल्ली आई आई टी में एडमिशन होने की वजह से वो भी साथ में रहता था। एम बी ए के बाद मुस्कान की भी एक मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छे पद पे नियुक्ति हो गयी थी। मुस्कान अपनी ज़िन्दगी से खुश थी। अपने काम के सिलसिले में अक्सर मुस्कान को अक्सर देश विदेश जाना पड़ता था। मुस्कान को नयी नयी जगह जाना हमेशा से पसन्द था, इसलिए उसको अपनी नयी नौकरी और भी ज़्यादा रास आ रही थी।


सबकुछ अच्छा चल रहा था कि अचानक से भगवान ने हँसती खेलती ज़िन्दगी में ब्रेक लगा दिया। मुस्कान के दादा जी उस रात हमेशा की तरह सोये, पर उस रात की नींद के आगोश से जागे कभी नहीं। डॉक्टर ने बताया कि नींद में ही उनको हार्ट अटैक पड़ा और वो हमेशा के लिए सबको छोड़ के चले गए। दादाजी की आसमयिक मृत्यु ने वैसे तो सभी पर अपना असर डाला था, पर मुस्कान पे सबसे गहरा असर था क्योंकि शायद वो दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार अपने दादाजी को ही करती थी। उसके दादाजी सिर्फ उसके दादा ही नहीं थे, सबसे अच्छे दोस्त भी थे, शायद उसकी पूरी ज़िंदगी थे वो।


पहले कभी भी छुट्टी के दिन की सुबह 10-11 बजे से पहले नहीं होती थी। आज भी शनिवार था, एक छुट्टी का दिन, पर आज नींद मुस्कान की आँखों से कोसों दूर थी। 15 दिन बाद दादाजी की बरसी थी। कितना कुछ बदल गया था इस एक साल में। आज शायद पहली बार मुस्कान के दिमाग में ये खयाल आया रहा था कि दादाजी के जाने का जब इतना सदमा उसको लगा है तो दादी के दिल पे क्या गुज़री होगी ? आज अचानक से उसको खुद पे गुस्सा आ रहा था कि इस एक साल में उसने कभी दादी को उतना वक़्त नहीं दिया जितना देना चाहिए था। दादी भी अब ज़्यादातर वक़्त या तो सत्संग में जाति थीं या अपने कमरे में ही रहती थीं। बड़ी ग्लानि महसूस कर रही थी वो। मुस्कान अपने दिमाग की उलझनें सुलझा भी नहीं पाई थी कि अचानक से दादी को अपने पास बैठा देख कर चौंक गयी। दादी बड़ी ही अर्थपूर्ण नज़रों से मुस्कान को देख रहीं थीं। मुस्कान को ऐसा लगा के जैसे दादी ने उसके दिमाग की सारी उलझनें पढ़ लीं हों। मुस्कान को ऐसा लगा कि उसकी चोरी पकड़ी गई हो।दादी की मुस्कुराहट से मुस्कान को कुछ तसल्ली हुई। दादी ने ही चुप्पी तोड़ी।

" किस सोच में डूबी हुई है तू, वो भी इतनी सुबह सुबह ?"

" कुछ नहीं दादी, बस सोच रही थी कि इस एक साल में कितना कुछ बदल गया है। मैं सोच रही थी कि जब मुझे इतना सदमा लगा है, तब आप पर क्या बीती होगी ? मैंने आपको सही से टाइम भी नहीं दिया न दादी ?"

मुस्कान ये कहते कहते रो पड़ी। दादी ने बड़े प्यार से उसको संभाला। दादी की बात सुन कर मुस्कान की मुस्कान वापस आ गयी। दादी बोलीं," आज जब तूने ये बात छेड़ ही दी है, तो आज मैं तुझे अपनी ज़िंदगी के तमाम राज़ बताऊंगी। तू नहा धो कर तैयार हो जा। नाश्ता आज हम साथ मे करेंगे, मेरे कमरे में।" दादी की बात सुन कर मुस्कान सोच में पड़ गयी के ऐसे कौन से राज़ हैं दादी की ज़िंदगी में? पर जो भी राज़ हों, वो बहुत उत्सुक हो रही थी उनको जानने के लिए।

मुस्कान फटाफट तैयार हो कर दादी के कमरे में पहुंच गयी। हर तरीके का खयाल उसके दिमाग मे आ रहा था, पर वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या राज़ हो सकते हैं दादी के ? दादी ने बड़े प्यार से उसके साथ नाश्ता किया। मुस्कान को लगा कि आज पहली बार पोहा इतना स्वादिष्ट लग रहा था। नाश्ता ख़त्म कर के दादी ने खुद बात शुरू की। दादी ने बातों का सिरा वहीं से पकड़ा, जहाँ मुस्कान के कमरे में छोड़ा था।

" तू यही सोच रही थी न कि तेरे दादाजी के जाने के बाद मैं अकेले कैसे रहती हूँ?"

मुस्कान अपनी दादी की साफगोई की हमेशा से कायल रही है। वो कभी भी रिश्तों या बातों को उलझाती नहीं थी। साफ बात करने में वो यकीन रखती थीं। दादी ने मुस्कान की सारी मुश्किल आसान कर दी थी। दादी ने किसी महान दार्शनिक की तरह अपनी बात शुरू की और मुस्कान मंत्रमुग्ध सी उनको सुनती रही। दादी बात करते करते कब वर्तमान से अतीत में खो गयीं, पता ही नहीं चला।

ये बात बरसों पुरानी थी। तब सिन्धुजा यानी दादी और कमल यानी दादा जी, दोनों ने जे एन यू  में एडमिशन लिया था। सिन्धुजा जितनी खूबसूरत थी, उतनी ही प्रतिभाशाली भी थी। एक दिन वहाँ वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई, जिसमे कमल व सिन्धुजा को एक दूसरे के सामने ला खड़ा किया। प्रतियोगिता तो सिन्धुजा ने जीत ली थी, पर अपना दिल हार चुकी थी। कमल हार के भी जीत चुका था। सिन्धुजा से बढ़ कर अब उसके लिए कुछ भी नहीं था। क्लासरूम की मुलाकातें कब कैंटीन तक पहुंच गयीं, दोनों को पता ही नहीं चला। धीरे धीरे ये साथ बढ़ता ही गया। ज़्यादातर वक़्त अब दोनों का साथ ही गुज़रता था।

वक़्त की रफ्तार टैब और तेज़ हो जाती है, जब हम उसको थामना चाहते हैं। कुछ ऐसा ही कमल और सिन्धुजा के साथ हो रहा था। देखते ही देखते वो कॉलेज के आखिरी साल में पहुंच गए थे। एक दिन जब सिन्धुजा क्लास में पहुँची तो उसकी आँखों की लाली किसी से छुपी नहीं थी। सबको लगा कि शायद वो बीमार है, पर कमल किसी अनहोनी मात्र की कल्पना से सिहर उठा। जब दोनों कैंटीन गए तो सिन्धुजा की खामोशी कमल के बर्दाश्त के बाहर हो रही थी। बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसके माँ-पापा दिल्ली आए हुए हैं। वो दिल्ली में उसके लिए कोई रिश्ता देखने आए हैं। शाम में ही सिन्धुजा को उस लड़के से मिलने भी जाना था। ये सुनकर कमल को एक बार तो लगा कि मानो किसी ने उसे नींद से जगा दिया हो। सच तो ये था कि उन दोनों ने ही इस तरफ कभी सोचा ही नहीं था।

कमल ने सिन्धुजा से सिर्फ एक बात ही कही," सिंधु, अगर मुझ पर और हमारे प्यार पर भरोसा हो, तो सिर्फ 1 साल मुझे दे दो। मैं इस काबिल बन जाऊँगा के तुम्हारे घर वालों को हमारी शादी से कोई ऐतराज नहीं होगा।" सिन्धुजा ये सुनते ही एक नई ऊर्जा से भर गई। उसको अब पता था कि घर वालों से क्या बोलना है। वो दोहरे विश्वास के साथ होस्टल वापस आयी। शाम को जब उसके माँ-पापा उसको लेने आये, तो उसने साफ साफ बोल दिया कि वो अगले 2 साल शादी नहीं करेगी। पढ़ाई खत्म करने के बाद उसने आगे की पढ़ाई और नौकरी की इच्छा ज़ाहिर की, माँ-पापा को पहले तो लड़की का नौकरी के बारे में सोचना थोड़ा अजीब लगा, पर सिन्धुजा को उनको मनाने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा।

अब बारी थी कमल और सिन्धुजा की, खुद को साबित करने की। कमल का शुरू से सपना था प्रशाशनिक अधिकारी बन के देश की सेवा करने का। सिन्धुजा का सपना, सिर्फ कमल था। वक़्त एक बार फिर तेजी से भागने लगा। आखिर वो दिन आ ही गया, अब कॉलेज की ज़िंदगी खत्म हो चली थी। परीक्षा परिणाम घोषित हुआ, तो सिन्धुजा ने अंग्रेजी साहित्य में यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। कमल के भी सभी विषयों में अच्छे अंक थे।सिन्धुजा, जब लखनऊ वापस जा रही थी, तब बस एक ही आशा थी उसकी, कमल को भगवान उसकी किस्मत की लकीरों में लिख दें। कमल जब सिन्धुजा को ट्रेन में बिठा के लौटा, तो बस एक ही सपना था, जल्द से जल्द दोनों शादी के पवित्र बन्धन में बंध के अपने नए जीवन की शुरुआत करें। भगवान शायद इन दोनों के मासूम निश्छल प्रेम के आगे झुक गए। 6-7 महीने बाद ही कमल का चयन इंटरव्यू के लिए हो गया। सिन्धुजा को जब ये पता चला, उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। कमल को अपनी मेहनत पर पूरा विश्वास था। आखिर, उसका विश्वास जीत गया। कमल का चयन विदेश सेवा के लिए हुआ। शुरू शुरू में कमल के घर वालों ने कमल और सिन्धुजा के रिश्ते को स्वीकार नहीं किया पर जब दोनों अड़ गए तो अन्ततः उनको इन दोनों की शादी करवानी पड़ी। विदेश सेवा में जल्द ही कमल को यूरोप जाने का मौका मिला। दोनों काफी समय वहाँ रहे।

"मतलब, आपकी लव मैरिज थी दादी?" मुस्कान ने हैरत से पूछा। ये सुनते ही दादी शर्मायी, जैसे वो 72 साल की बुजुर्ग महिला न हो कर 22 साल की लड़की हों।

" अच्छा, तो ये था आपका राज़ ! आप लोग इंडिया वापस कब आये ? जल्दी बताइये न दादी, मुझे पूरी कहानी सुननी है।" मुस्कान ने प्यार से दादी के गले में बाँहें डालते हुए कहा।

" अरे, साँस तो लेने दे। शादी के 5 साल बाद, पदम यानि तेरे पापा का जन्म हुआ, तब हम वापस आये, क्योंकि हमको अपने बच्चे भारतीय संस्कृति में पालने थे। वैसे ये कहानी वो राज़ नही थी, जिसकी मैं बात कर रही थी। राज़ अभी बाकी है बेटा।"

ये सुन के मुस्कान की उत्सुकता और बढ़ गयी। अब उसको एकदम समझ नही आ रहा था कि आखिर क्या राज़ है उसकी दादी के पास। दादी की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी। दादी एक एलबम ले कर उसके सामने खड़ी थीं। मुस्कान ने तुरंत दादी के हाथ से वो भारी भरकम एलबम ले लिया। मुस्कान को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था, दादी जीन्स में थीं। यूरोप की अलग अलग जगहों पर वो दादा के साथ थीं। सच में ! दोनों साथ में कितने प्यारे लग रहे थे। मुस्कान ये सोच के फिर उदास हो गयी के दादा के जाने के बाद वो अपना अकेलापन, उम्र के इस पड़ाव पे अकेले झेल रही थीं।

"दादी, आप दादू को बहुत मिस कर रही हैं न?" मुस्कान ने दादी की गोद मे सिर रखते हुए पूछा। दादी शायद उसकी मनःस्थिति भाँप गयीं। उन्होंने बड़े ही प्यार से उसके बालों में उंगलियाँ फेरते हुए कहा, " बेटा, अब जो बताने जा रही हूँ, वही मेरा राज़ है। ध्यान से सुन, तेरे दादू अपने जाने से एक साल पहले से बीमार थे। अपनी बीमारी में उन्होंने मुझसे एक वादा लिया था कि उम्र के इस पड़ाव में हम दोनों में से किसी एक को पहले जाना होगा। जो भी यहाँ अकेला बचेगा, वो अपनी बच्ची हुई ज़िन्दगी, खुश होकर , पहले की भांति ही बिताएगा, न कि डिप्रेशन का शिकार होकर।"

" इसीलिए आप अध्यात्म की तरफ मुड़ गयीं ?", मुस्कान ने सवालिया नज़रों से अपनी दादी की तरफ देखा।

"किसने कहा कि मैं अध्यात्म की तरफ मुड़ गयी? मैं पहले की तरह ही भगवान में आस्था रखती हूँ, योग करती हूँ। कुछ नया तो मैंने किया नहीं इस बीते एक साल में।"

"वो आप गीता, रामायण पढ़ने लगी हैं। सुमुखि दादी के साथ सत्संग भी तो जाने लगी हैं। इसीलिए मुझे लगा कि आप आध्यात्मिक हो गयी हैं।"

ये सुनते ही दादी ज़ोर ज़ोर से हँसने लगीं। मुस्कान को समझ ही नहीं आ रहा था कि वो हँस क्यूँ रही हैं। बड़ी मुश्किल से जब उनकी हँसी रुकी तो वो बोलीं ," ये अध्यात्म का नाटक भी समाज का दिया हुआ है। दरअसल जब पिछले साल तेरे दादा मुझे छोड़ के गए, तो सबको अचानक से मेरे बुढापे की चिंता हो गयी। सबको लगा कि अब मुझे भगवान की भक्ति में लीन होकर बस अपनी आखिरी साँस का इंतज़ार करना चहिए।"

"मतलब ? मैं कुछ समझी नहीं, साधक से बताओ न दादी, आखिर माज़रा है क्या ?" मुस्कान को समझ ही नहीं आ रहा था कि दादी क्या बोले जा रहीं थीं।

दादी मुस्कुराते हुए बोलीं, " तेरी माँ ने मुझे गीता दी। पापा ने रामायण दी। तेरी बुआ ने सलाह दी कि सत्संग जाना शुरू करूँ। पर बेटा, किसी ने ये नहीं सोचा कि मैं क्या चाहती हूँ। सबका मन रखने के लिए मैंने ये अध्यात्म का नाटक किया।"

"दादी , प्लीज जल्दी बताओ न कि ये आप कर क्या रही हैं।" मुस्कान ने अधीर होते हुए कहा।

दादी को अब जो कहना था, वो शायद मुस्कान ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।दादी की आँखों मे एक चंचल लड़की सी चमक आ गयी थी, वो बोलीं, " वो जो सत्संग मैं जाती हूँ न सुमुखि के साथ, वो सत्संग मूवी थियेटर में होता है। और जो गीता, रामायण मैं दिन भर पढती हूँ न, वो भी अभी तुझे दिखाती हूँ। मूवी जाने के बाद ही पता चला कि अंशुल, एक बड़ी ही प्यारी सी लड़की के साथ अक्सर इतवार को आता है।"

"मतलब, दादी ,आप मूवी देखने जाती हैं? मुझे लगा कि आप सत्संग जाती है।पर आपको किसने मना किया है मूवी जाने के लिए ? इतना नाटक करने की क्या ज़रूरत थी ?", मुस्कान को पूरा माज़रा अभी भी समझ में नहीं आ रहा था।

अचानक से दादी की मुद्रा बहुत ही गंभीर हो गयी, वो बोलीं, " बेटा, ये समाज चाहता है कि बुज़ुर्ग दंपति में से किसी एक को पहले जाना पड़े, तो दूसरे को सिर्फ भगवान की शरण में जा कर मारने का इंतज़ार करना चाहिए।कहाँ का इंसाफ है ये के एक जीते जागते इंसान को मौत से पहले मार दो? दरअसल उम्र सिर्फ एक नम्बर होती है, 72 और 27 में सिर्फ सोच का फर्क है। तेरी दादी अभी भी दिल से बच्चा ही हैं। बेटा, मैं अपनी बची हुई ज़िन्दगी जीना चाहती थी, इसीलिए ये स्वांग रचा।" बात करते करते उनका गला रुँध गया।

" दादी, गीता-रामायण का भी कोई खेल है क्या ?", मुस्कान ने बड़ी शरारत से दादी से पूछा। दादी फिर से हँसी और बोलीं, " रुक, अभी दिखाती हूँ।" दादी ने पास की अलमारी से 2 मोटी मोटी किताबें निकालीं, जिसके कवर में, एक पे गीता का ही कवर था और दूसरे पे रामायण का। मुस्कान ने जब रामायण खोली, तो आश्चर्य से उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। उसमे दादा-दादी के बहुत पुराने प्रेम पत्र थे, जो दादी ने बड़े ही करीने से बाइन्ड कर के सहेजे थे। गीता के कवर वाली किताब में दादी ने अपनी आत्मकथा लिखी थी।

मुस्कान को ऐसा लग रहा था मानो दादी से बात करके उसने ज़िन्दगी का एक नया रूप देख लिया। सच ही तो कह फाही थीं दादी, उम्र बढ़ने के साथ अरमानों का मर जाना जरूरी तो नहीं। इंसान के अरमान, उसके ख्वाब, यही तो सहारा देते हैं आगे बढ़ने को। क्यूँ हम अपने ही परिवार के लोगों से उनके खुश रहने का हक़ छीन लेते हैं ?" मुस्कान अपनी सोच में डूबी थी कि दादी के अचानक से बोलने से वो यथार्थ में वापस लौटी। दादी बड़े ही शरारती अंदाज़ में बोलीं," अंशुल को बोल, मुझे उसकी सत्संग वाली दोस्त बड़ी प्यारी लगती है। कब मिलवा रहा है मुझे ?" ये सुन कर दादी और मुस्कान , दोनों ही ज़ोर से हंसने लगे। आज सच में मुस्कान को एक बड़ा राज़ पता चला था, राज़ ज़िन्दगी जीने का।


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