उदय भाग ३१

उदय भाग ३१

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उदय ने उसे बचानेवाले की तरफ देखा तो उसकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गई क्योंकि वहां और कोई नहीं पर देवांशी तलवार लिए खड़ी थी। लेकिन इस बार उसका रूप कुछ अलग था हमेशा साड़ी और सलवार सूट में जिसे देखा था वो देवांशी योद्धा के अवतार में थी उसके चेहरे के हाव भाव भी सौम्य नहीं बल्कि क्रूर थे। उसने असीमानंद के वार को अपनी तलवार से न सिर्फ रोका बल्कि उसकी छाती पर कोहनी से प्रहार किया जिससे असीमानंद दूर जाकर गिरा। मौका पाकर देवांशी ने उदय को हाथ दिया और बाजु में खड़क पर बिठाया और असीमानंद की तरफ मुड़ी और कहा की "तुम्हें क्या लगता है के तुम अपने इरादे में कामयाब हो जाओगे। तुम किसी वक़्त में दिव्य पुरुष थे लेकिन तुमने इतने पाप किये है की तुम अब अधम पुरुष बन गए हो तुमने दिव्यशक्ति के कर्म के नियम तोड़े है तुम्हें उसकी सजा भी मिलेगी।"

असीमानंद ने खुद पर काबू पाया और उससे पूछा "तुम कौन हो और यहाँ कैसे ? तुम्हें तो मैंने इसके साथ तीसरे परिमाण में देखा था, तुम एक सामान्य लड़की हो।"

देवांशी जोर जोर से हँसने लगी और कहा की "अभी सर्वज्ञानी नहीं हुए हो। सब को पहचान पाने की शक्ति तुम मे नहीं है। मैं महाशक्ति रचित रक्षकशाक्ति हूँ और मैं किसी का भी रूप ले सकती हूँ। तुम्हारा ज्ञान दुखद रूप से अधूरा है अब समय आ गया है की मैं तुम्हें पकड़कर महाशक्ति के सामने खड़ा कर दूँ।" असीमानंद ने कहा की "मुझे हराया जा सकता है, मारा भी जा सकता है लेकिन पकड़ा नहीं जा सकता मैं रेत हूँ फिसल जाऊँगा" इतना कहकर अपने कमरबंध से एक द्रव्य निकालकर हवा में उड़ाया जिससे हर जगह धुआँ फ़ैल गया, देवांशी ने वार किया लेकिन असीमानंद अपनी जगह से अंतर्ध्यान हो चूका था। उसके पीछे सिर्फ उसके हँसने की आवाज़ सुनाई दे रही थी।

असीमानंद तो अदृश्य हो चुका था लेकिन उदय अपनी जगह पर दिग्मूढ़ होकर बैठा हुआ था। जब देवांशी ने उसके कंधे पर हाथ रखा तब जाकर उसे होश आया और उसने पूछा "देवांशी तुम यहाँ कैसे ?" देवांशी ने कहा "मैं तो बरसों से तुम्हारे आसपास ही हूँ। महाशक्ति ने मेरी रचना तुम्हारी रक्षा करने के लिए की थी अभी जिस रूप में तुम मुझे देख रहे हो वो मेरा नहीं बल्कि देवांशी का है। मैं कोई भी रूप ले सकती हूँ। तुम जब छोटे थे तो तुम्हारे पड़ोस में एक वृद्ध स्त्री के रूप में थी फिर जब तुम कॉलेज में थे तुम्हारे साथ में जो शशिकला नाम की लड़की पढ़ती थी वो मैं थी। तुम जब अमरीका में थे तो तुम्हारे साथ में पढ़नेवाली अल्मेडा मैं थी।" उदय ने पूछा "इतना सब किस लिए ?" देवांशी ने कहा की "महाशक्ति को डर था की शायद असीमानंद तुम्हें बचपन में मारने की कोशिश करेगा इसलिए मुझे भेजा गया। शक्ति में चूर असीमानंद ने तुम्हें अनदेखा करके तुम पर कोई वार नहीं किया लेकिन अनजाने में तुम्हें जेल में भेज दिया।

जेल से जब तुम निकले तब तुम्हें हरि काका के गाँव की तरफ आने की प्रेरणा भी मैंने ही दी थी। तुम जब वहां पहुँचे तब तुरंत चौथे परिमाण में प्रवेश नहीं कर पाए इसकी वजह था तुमने छिपाया हुआ सत्य जिससे चौथे परिमाण के दरवाज़े तुम्हारे लिए खुल नहीं रहे थे। इसलिए मुझे देवांशी की जगह देवांशी के रूप में आकर तुम से सत्य बुलवाना पड़ा जिससे चौथे परिमाण के दरवाज़े तुम्हारे लिए खुल गए। तुम्हें समंदर में गिरने से बचाने वाली मैं ही थी लेकिन मेरा सत्य असीमानंद के सामने उजागर न हो इसलिए मैं वहां से अदृश्य हो गई।"

उदय ने कहा की "इसका मतलब मुझे रारामूरिनाथ ने नहीं तुमने बचाया था ?" देवांशी ने अपना सर हां में हिला दिया। उदय ने कहा "मेरे लिए इतना सब क्यों ?"

देवांशी ने कहा "तुम्हारी रक्षा करना यही मेरा कर्म है जो मैंने किया। यहाँ से थोड़ी दूर तुम्हारा पुराना शरीर पड़ा हुआ है उधर चलते है फिर जैसा महाशक्ति का आदेश होगा वैसा ही करेंगे।" देवांशी और उदय गुफा की तरफ चल पड़े।


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