Dhan Pati Singh Kushwaha

Inspirational

4.6  

Dhan Pati Singh Kushwaha

Inspirational

त्याग-भावना

त्याग-भावना

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सुबोध ने मंदिर के सिंह द्वार की सीढि़यों के एक ओर अपनी एक चप्पल उतारते हुए मुझसे इशारे में कहा -"एक चप्पल इस ओर और दूसरी वाली सीढ़ियों के दूसरी ओर। इससे चप्पल चोरी न होने की गारंटी है।न दोनों चप्पल एक साथ होंगी और न होगी इनकी चोरी।"

मैंने कहा -"यहाॅ॑ क्योंं? अंदर सेवादार को सेवा का अवसर देते हैं ,चलो भाई अंदर।"

"पर भाई, उसे तो कुछ देना पड़ेगा। ", सुबोध ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया।

"क्यों? मंदिर में पुण्य कमाने आया है और हाथ का मैल छोड़ने का जी नहीं करता। जब भाषण देने का मौका आता है तब तो उपदेश देता है, मित्रों रुपया-पैसा हाथ का मैल है। सारे पैसा ऐसे बचाएंगे तो मोदी जी के पॉ॑च ट्रिलियन अर्थव्यवस्था वाले सपने का क्या होगा? लगता है जनता-जनार्दन की तरह तू भी मुफ्तखोरी के वायरस से संक्रमित हो गया।क्या तुझे यह भी बोध नहीं कि सेवादार तो कभी भी किसी से भी कुछ नहीं माॅ॑गता।तू नाहक ही सुबोध नाम लिए घूमता है,अबोध कहीं का।अगर तूने उसे सौ- पचास रुपए दे भी दिए तो क्या गरीब हो जाएगा और न देने के बाद भी तूने ये अपने पान-सिगरेट में ही उड़ाकर सेहत का बंटाढार करना है और हम दोनों में से जब मैं तो दे ही दूंगा तो क्यों अपना जी हलकान कर रहा है" मैंने भी उसकी इस कुशाग्रबुद्धि से उपजी योजना की तारीफ न करते हुए उसकी मुफ्तखोरी के साथ कंजूसी को लपेटते हुए नसीहत दे डाली।

"बिना दिए तो अच्छा नहीं लगता। सेवादार का भी घर-परिवार है। अपने परिजनों के पालन-पोषण के निर्वहन के दायित्व का भार भी उसका है।" ,सुबोध झेंपते हुए बोला।

"तो,अच्छा लगने वाले इस नेक काम से अर्जित होने वाले पुण्य के सुअवसर को क्यों गॅ॑वाने की भूल कर रहा है, चल अन्दर।", मैंने कहा।

हम दोनों ने सेवादार की सेवाएं लीं। सुबोध यह देखकर हैरान रह गया जब उस सेवादार ने उसे मंदिर के पुजारी द्वारा उसे दिए गए प्रसाद का ज्यादातर हिस्सा मंदिर के बाहर फूल, बेल-पत्र ,दीए , धूप-अगरबत्ती आदि बेचने के बैठे लोगों में बांट दिया।देव-दर्शन और पूजा -अर्चना के बाद मंदिर के बाहर वाले पार्क में हम दोनों एक बेंच पर बैठ गए। मंदिर में प्रवेश के समय होने वाले वार्तालाप के साथ सुबोध दार्शनिकों वाली स्थिति को प्राप्त हो गया । उसके चेहरे के हाव-भाव बता रहे थे कि उसके मन में विचार उमड़-घुमड़ रहे थे।बेंच पर बैठे पॉ॑च मिनट से अधिक समय से उसकी आंखें शून्य में चूर रहीं थीं।जब उसकी विचार श्रृंखला टूटने का मुझे अहसास हुआ तो चुटकी बजाकर मैंने उसकी तंद्रा भंग की।

मैंने कहा," अपने शोध को प्रकट कर ।"

"क्या मतलब?" सुबोध हड़बड़ाते हुए बोला,"क्या कहना चाहते हैं?"

मैंने कहा," बता अभी क्या सोच रहा था?

"मुझे लगता है कि बड़े काम का विचार आ रहा था। हमारे देश में बहुत सोच विचार कर अनेक योजनाएं लम्बे समय से बनाई जाती रही हैैं।मगर उनका क्रियान्वयन करने और करवाने वाले उसके योजना के मूल उद्देश्य को या तो समझ नहीं पाते या जान बूझकर समझना नहीं चाहते। शायद नीति निर्माताओं के मन में यह विचार भी आ जाता होगा कि यदि सारी समस्याएं हल हो जाएंगी तो फिर आगे राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए मसाला कम हो जाएगा।"सुबोध ने अपनी विचार गंगा का प्रवाह खोला।

सुबोध ने अपनी बात को आगे बढ़ाया-"जनता की मेहनत की कमाई को टैक्स के रूप में वसूल कर लोगों के उपयोग के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवाती है लेकिन कुछ समय में उनका ठीक ढंग से मैण्टीनैंस न होने के कारण वे उपयोग के लायक नहीं रहती हैं। सार्वजनिक शौचालय - स्नानागार इसकी जिन्दा मिसाल हैं जिन्हें स्वच्छता बनाए रखने के उद्देश्य से तैयार किया गया होता है पर स्वयं वे गंदगी के एक बड़े केंद्र बन जाते हैं। सुलभ की तरह इनके संचालन की जिम्मेदारी सरकार व्यवस्थित रूप से स्वयं चलाए या किसी संस्था को यह दायित्व सौंप दे। इससे कुछ लोगों को सेवा के साथ रोजगार और जनता को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो जाएंगी। टैक्स के रूप में जनता की गाढ़ी मेहनत की कमाई जो बर्बाद हो रही है उसका सही अर्थों में सदुपयोग हो पाएगा।"

मैंने कहा-"ज्यादातर लोग पैसा देने में अतीव कष्ट का अनुभव करते हैं। सरकारी योजनाएं असरकारी न होने का कारण है कि इस श्रंखला की कड़ियां पूरी ईमानदारी से काम नहीं करती हैं। जनता में जागरूकता का अभाव है। योजनाओं का लाभ लेने के लिए वे रिश्वत देने को तैयार हो जाते हैं। योजना का लाभ उठाने के लिए आवश्यक प्रक्रिया जानने या धैर्य धारण करने का प्रयास भी नहीं करते हैं। इससे ही तो रिश्वतखोरी को बढ़ावा मिलता है।"

सुबोध ने मेरे मत से सहमति जताते हुए अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहा-"सचमुच सरकारों को जनता में मुफ्तखोरी की बजाय ईमानदारी के भाव जगाने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए। नासमझ लोग सरकारी योजनाओं से मिली रकम की छूट से नशे जैसे व्यसनों में लिप्त हो जाते हैं।वे मेहनत की बजाय परजीवियों जैसा जीवन जीने की कामना करने लगते हैं।इन योजनाओं के क्रियान्वयन में बंदर बांट चलते रहने के कारण ईमानदार जनता ठगी जाती है। बंटवारे में भी 'अंधा बांटें रेवड़ी तो अपने ही को दे 'का फार्मूला चलता है।"

मैंने कहा-"लोगों अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।जो सच्चे अर्थों में मात्र किताबी ज्ञान से अलग हटकर सीखने की प्रक्रिया है।जब लोगों को ऐसे ज्ञान की प्राप्ति हो जब स्वयं आत्मनिर्भर ही नहीं वरन वे दूसरों के लिए सहायक सिद्ध हों।हम सबको अपने प्रयासों से इस अहसास को जन-जन के दिल और दिमाग में स्थापित करना होगा कि हमें मुफ्त नहीं उत्कृष्ट चाहिए।"

मैंने उससे पूछा-"अच्छा,जब सेवादार अपना प्रसाद बांट रहा था तब तू भौंचक्का सा लग रहा था।शायद तू सोच रहा होगा कि यह तेरे से आर्थिक रूप से काफी कमजोर सेवादार महावीर स्वामी के पंच महाव्रतों में से एक अपरिग्रह के अनुसरण को अपने आचरण में कैसे ला पाया है। तुझे वह कहानी तो याद है जिसमें एक सेठ के पास जो धन जमा था वह उसकी सात पीढ़ियों के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त था। आठवीं पीढ़ी के लिए सुगमता से सुलभ व्यवस्था के उपाय में उसे बताया गया कि गांव के सबसे ग़रीब व्यक्ति को भोजन करवा देना।जिस शाम के भोजन के लिए सेठ ने जब उस गरीब को आमंत्रित किया तो उस गरीब ने बड़ी विनम्रता से भोजन ग्रहण करने में अपनी असमर्थता जताते हुए कहा कि आज की शाम के भोजन का मेरा इंतजाम हो गया है।जब सेठ ने आज शाम के भोजन को उसके यहां ग्रहण करके उसके पास रखे भोजन को अगले दिन के लिए रख लेने का सुझाव दिया तो हंसते हुए उसने कहा कि कल किसने देखा और जब अगला दिन होगा तो उसकी चिन्ता आज करने का कोई लाभ नहीं होगा।"

अचानक मेरे मोबाइल पर पत्नी का फोन आ गया। मैंने उठते हुए कहा-"गृह मंत्रालय से बुलावा गया,चल भाई,घर चलते हैं।"

" चलो, हम सब लोगों के साथ मिलकर व्यर्थ की इन चिंताओं को त्यागकर समाजोपयोगी कल्याणकारी सत्कार्यों में सतत् भागीदारी निभाने के पुनीत कार्य में तन-मन-धन से जुट जाते हैं।"-सुबोध के इस प्रेरक विचार को साकार रूप देने के संकल्प साथ हम दोनों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।


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