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Priyanka Gupta

Tragedy Inspirational

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Priyanka Gupta

Tragedy Inspirational

तुम नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती पैसे-15

तुम नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती पैसे-15

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"प्रत्यूषा यार बहुत हो गया। अब तो ज़िद छोड़ दो मैं इतना अच्छा कमा तो रहा हूँ। तुम नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती। जब मैं ऑफिस से आता हूँ तो चाहता हूँ कि मेरी पत्नी मुझे घर पर मिले। मेरा इंतज़ार करते हुए मिले।" मिहिर ने अभी-अभी ऑफिस से लौटकर आयी अपनी पत्नी से कहा। 

"मिहिर मुझे भी आपका इंतज़ार करना अच्छा लगता है। लेकिन मेरे लिए अपना स्वाभिमान भी मायने रखता है बिना आत्मसम्मान के मैं एक ज़िंदा लाश बन जाऊँगी।" प्रत्यूषा ने अलमारी से अपने कपड़े निकालते हुए कहा। 

"तुम्हें किसकी कमी है? ऑफिस और घर दोनों के बीच तुम खुद भी तो सैंडविच बन रही हो। अभी कपड़े बदलकर फ़टाफ़ट किचन में घुस जाओगी। तुम कितना थक जाती हो।" मिहिर ने प्यार से कहा। 

"थक जाती हूँ लेकिन जरूरत पड़ने पर अपने बेटी होने के कर्त्तव्यों को तो पूरा कर सकती हूँ। तुम चाहे कितनी ही दलीलें दो मैं अपनी यह आज़ादी आत्मनिर्भरता नहीं छोडूँगी। जानती हूँ कि तुम्हारी कमाई हमारे लिए पर्याप्त है लेकिन अपने स्वाभिमान के लिए मैं यह नौकरी नहीं छोडूँगी।" प्रत्यूषा ने सन्देश को प्रत्युत्तर दिया। 

"प्रत्यूषा तुम मेरी मम्मी की बातों को आज तक भी दिल से लगाए हुए बैठी हो। क्या हो गया जो उन्होंने इतना सा बोल दिया कि बहू मेरे बेटे की मेहनत की कमाई को फिजूल ही उड़ा रही है।" मिहिर ने फिर से कहा। 

मिहिर की बात सुनकर प्रत्यूषा के तन-बदन में आग सी लग गयी थी। मिहिर ने कितनी आसानी से अपनी माँ की ग़लती पर पर्दा डाल दिया था। प्रत्यूषा के सामने उस दिन की घटना एक चलचित्र की भाँति घूम गयी। प्रत्यूषा ने इंजीनियरिंग कर लिया था नौकरी ढूंढती उससे पहले ही मिहिर का रिश्ता आ गया। घर-वर सभी कुछ प्रत्यूषा के मम्मी-पापा को इतना अच्छा लगा कि उन्होंने फ़ौरन प्रत्यूषा की शादी मिहिर से करवा दी। 

शादी के बाद सब कुछ अच्छा ही चल रहा था। प्रत्यूषा अपने बहू होने जिम्मेदारियों को अच्छे से निभा रही थी। वह अपनी ननद को लेने-देने में ज़रा भी कँजूसी नहीं दिखाती थी। सास-ससुर ननद-नन्दोई और उनके बच्चे आदि के जन्मदिन शादी की सालगिरह पर अच्छे से अच्छे उपहार खरीदकर देती थी। मिहिर ने जब देखा कि प्रत्यूषा उसके घरवालों के बारे में उससे भी ज्यादा सोचती है तो वह कभी-कभी अपना क्रेडिट या डेबिट कार्ड भी प्रत्यूषा को दे देता था। अक्सर प्रत्यूषा शॉपिंग आदि करने के बाद वह कार्ड उसे लौटा ही देती थी। 

ऐसे ही उस दिन मिहिर का क्रेडिट कार्ड प्रत्यूषा के पास था। प्रत्यूषा के पापा को एकदम से हार्ट अटैक आ गया और उसे फ़ौरन हॉस्पिटल जाना पड़ा। पापा ने मेडिक्लेम पॉलिसी ले रखी थी लेकिन हॉस्पिटल में तब की तब एडमिशन की औपचारिकताओं के लिए कुछ रूपये जमा कराने जरूरी थे। प्रत्यूषा ने मिहिर के क्रेडिट कार्ड से भुगतान कर दिया। क्लेम पास होने के बाद वैसे भी उसके पापा भुगतान कर ही देते। हम भारतीय स्वयं को कितना ही आधुनिक बोले लेकिन अभी भी शादीशुदा बेटी से किसी भी तरह की मदद लेना अपने संस्कारों और संस्कृति के विरूद्ध ही मानते हैं। 

२ दिन बाद जब पापा की स्थिति थोड़ी स्थिर हुई तब प्रत्यूषा अपने ससुराल लौट आयी थी। प्रत्यूषा और मिहिर जब अपने कमरे में बातें कर रहे थे तब वहाँ से गुजरती हुई सासू माँ ने यह सुन लिया कि प्रत्यूषा ने मिहिर के कार्ड से हॉस्पिटल के बिल आदि भरे हैं। 

बेटे की माँ को यह कहाँ बर्दाश्त होता है कि उनका बेटा दामाद होने के कर्तव्यों को अच्छे से निभाए। बहू के घरवालों पर अगर एक पैसा भी खर्च हो जाए तो कैसे हो सकता है? मिहिर की मम्मी भी इस सोच से अलग सोचने वाली नहीं थी। डिनर के दौरान मिहिर की मम्मी ने प्रत्यूषा को कहा कि "प्रत्यूषा मिहिर इतनी मेहनत इसलिए नहीं करता कि तुम उसकी गाढ़े पसीने की कमाई यूँ ही लुटाती फिरो। पैसे पेड़ पर नहीं लगते।"

मिहिर ने प्रत्यूषा की सफाई में अपनी तरफ से अपनी माँ को एक शब्द भी नहीं बोला। मिहिर की माँ के मंतव्य को समझ चुकी प्रत्यूषा ने सिर्फ इतना ही कहा कि "मम्मी जी आपने आज से पहले तो मुझे कभी नहीं कहा। जब तक मैं आप लोगों के लिए उपहार ले रही थी तो कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन आज जब मैंने अपने पापा के इलाज़ के लिए पैसे दे दिए वो भी उधार वह आपको फिजूलखर्ची लगती है।"

"तुम्हारे घरवाले भी कैसे हैं? जो ब्याहता बेटी से पैसे खर्च करवाते हैं।" मिहिर की माँ ने कहा। 

"मम्मी जी जब बहू सास-ससुर की सेवा कर सकती है तो दामाद उनकी मदद क्यों नहीं कर सकता?" प्रत्यूषा ने कहा। 

"दामाद दामाद होता है। बेटा नहीं जो उनकी मदद करे या सेवा करे।" मिहिर की माँ ने कहा और वहाँ से उठकर चली गयी। 

उस दिन प्रत्यूषा को समझ आ गया था कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है। डिग्री तो थी ही उसके पास अपना रिज्यूमे बनाया और कई जगह मेल कर दिया। कुछ दिनों की मेहनत के बाद उसकी नौकरी भी लग गयी। साथ ही पापा का क्लेम भी पास हो गया था प्रत्यूषा ने अपने पापा से पैसे लाकर सासू माँ के सामने ही मिहिर को दिए। 

"मेरे मम्मी-पापा को अपने दामाद की मदद न लेनी पड़े इसीलिए नौकरी करूँगी।" ऐसा कहकर प्रत्यूषा पहले दिन ऑफिस के लिए निकल गयी थी। सासू माँ ने कुछ दिन शोर मचाया लेकिन प्रत्यूषा ने उन्हें इग्नोर करना सीख लिया था। जब प्रत्यूषा को उसकी पहली सैलरी मिली उससे उसने अपने मम्मी-पापा और छोटे भाई के लिए उपहार खरीदे। साथ ही अपने सास-ससुर और ननद-नन्दोई के लिए भी खरीदे। 

"मम्मी जी मैं बेटी और बहू दोनों के फ़र्ज़ अच्छे से निभाना जानती हूँ।" प्रत्यूषा ने अपने इन शब्दों से सासू माँ को उपहार देने के साथ-साथ आईना भी दिखा दिया था। 

मिहिर ने फिर वही पुराना राग अलापते हुए प्रत्यूषा से कहना जारी रखा "नौकरी की क्या ज़रुरत है? मैंने थोड़ी कुछ कहा था?"

"तुमने गलत का विरोध भी तो नहीं किया था। अब हम इस बारे में और बात नहीं करेंगे मेरे पास न तो समय है और न ही इस विषय पर बात करने की इच्छा है। तुम्हें इतनी ही फ़िक्र है तो घर के कामों में मेरी मदद कर दिया करो। वह तुम करोगे नहीं।" ऐसा कहकर प्रत्यूषा कपड़े बदलने के लिए बाथरूम में चली गयी थी। 


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