तुम जो मिल गए हो!!!!
तुम जो मिल गए हो!!!!
उफ्फ कितनी थकान हो रही है। अभी तक तो काम में कुछ होश ही नहीं था। सवेरे से कब रात हुई पता ही नहीं चला, मानसी सोच रही थी। रोज़ ही काम कुछ कम नहीं होता पर आज तो जेठानी के बेटे दीपू के जन्मदिन के कारण कितने तो पकवान बने थे, साथ के घर से चाची जी, बुआ जी सब आए थे । जेठानी के घर से भी कितने लोग आए थे। आज तो पूरे दिन चकरघिन्नी सी दौड़ती रही । घूंघट में पूरी सेकते हुए एक बार तो दिल ही घबरा गया था। मीता दीदी भी कम चालाक नहीं है, थोड़ी - थोड़ी देर में कभी दीपू को चुप कराने के बहाने या कभी कुछ और बहाने से रसोई के बाहर ही घूमती रहीं। सारे घर के बर्तन अन्दर से बाहर निकल गऐ थे। मानसी की शादी में उसके मायके से दहेज में आया हुआ स्टील का नया डिनर सैट भी पहली बार निकाला गया था। काम खत्म होने के बाद चौंक में फैले हुए सारे बर्तनों को मानसी ने धोकर और सुखाकर रख दिए। उसके बाद मानसी ने नए डिनर सेट के निकाले हुए सारे बर्तन सलीके से उसके डिब्बे में वापिस रख दिए। सैट के साथ का एक चम्मच कम था, मानसी ने इधर- उधर नज़र दौड़ाई तो देखा, वह चम्मच सामने वाले कमरे में जहां कि सासू मां दीपू के साथ बैठी हुई थी वही एक गिलास में रखा हुआ था। मीता दीदी ने दीपू के दूध के गिलास में चीनी मिला कर सासूमां को दीपू को दूध पिलाने के लिए दिया था। सासूमां दीपू को दूध पिला कर सुला रही थीं। मानसी अंदर जाकर गिलास और चम्मच भी धोने के लिए ले आई ।सब बर्तन सलीके से उनकी जगह पर अंदर रखकर, घर का लगभग सारा काम निपटा कर वह सोने के लिए अपने कमरे में आ गई।
कमरे में आने के बाद पल्लू सिर से हटाया, और मानसी मोबाइल लेकर धम्म से बैठ गई। राजीव का भेजा हुआ गुडनाईट का मैसेज ही सारी थकान हटाने के लिए काफी था। आज वीरवार है परसों राजीव जी आएंगे। आफिस नौएडा होने की वजह से वो वहीं रहते थे और शनिवार को ही अलीगढ़ घर पर आते थे। राजीव जी के बारे में सोचते सोचते कब आंख मूंद गईं पता ही नहीं पड़ा। आज थकान भी तो गजब की थी।
सुबह जब आंख खुली तो देखा सब उठ चुके थे, घबरा कर उठी, और सीधा बाथरूम में नहाने को भागी। तैयार होकर पल्लू से मूंह ढक कर रसोई की और भागी। सासू मां के पैर छू कर गैस पर रखी चाय छानने ही बैठी थी कि पीछे से उसकी जेठानी मीता दीदी के बुदबुदाने की आवाज़ आई, "अगर पहले पता होता तो मैं तो इसका चम्मच छूती भी ना।" बात को पूरा किया सासूमां ने, " यही सीख कर आई है घर से, कि अपना सारा सामान अलग ही रखना" कोई छू न ले। छोटी ननदिया पिंकी भी क्यों पीछे रहती, वो भी बोली, "अम्मा, तुम ने ही कहा था अंदर से बर्तन निकालने को, वरना हम तो किसी की चीज छूएं भी ना"। अचानक हुए हमले से मानसी काफी घबरा गई थी, इतना तो उसे समझ आ गया था कि कल जो बर्तन उसने आदतन बहुत संभाल कर रखे थे, यह उसी का ही नतीजा है। पर गलती कहां हुई है, यह समझ नहीं पा रही थी। मन हुआ पलट कर पूछूं तो सही, तब तक ससुर जी और जेठ जी भी चाय पीने आ गए थे। "संस्कार "!!!
घर के आदमियों के सामने बहुओं को बोलने की इजाज़त नहीं थी, शब्द कंठ में ही अटक कर रह गए। मुँह का काम आंखों ने किया और वो बरस पड़ीं।
बात बढ़ती -बढ़ती आदमियों तक पहुंच गई। दोपहर तक तो घर के भी, और घर में आने वाले बाहर के लोग भी, सब पंच बन चुके थे, और अपनी अपनी तरफ से मानसी का फैसला सुना रहे थे। चौक में बैठी चाय की चुस्कियां लेती, ताई, चाची और बुआ सासूमां को समझा रहीं थीं, इसके घर से इस के मां बाप को बुलवाओ और उनसे पूछो, क्या यही लक्षण सिखाए हैं लड़की को, "अपना सामान अलग रखो, " बड़ी बहू मीता भी तो है !उसे तो ये भी नहीं पता कि उसके बर्तन हैं कौन से? अरे "छोटी तो कमरे में से भी अपना चम्मच पहचान लेती है" सासूमां की आवाज आई। आजकल की लड़कियां घर को जोड़ना जानती ही कहां है? बस उनका अपना सामान अलग रहे। अपने सामान की तो संभाल कर लेंगे बाकि उनका कोई घर से लेना देना नहीं है। सब लोग मिलकर अपनी अपनी राय दे रही थी।
मानसी सब कुछ सुनते हुए भी घूंघट करके आंखों में आंसू लिए अपने काम में ही लगी हुई थी। शाम को रसोई से सारा काम करके कमरे में जाने तक आंसू और दिमाग दोनों ही साथ छोड़ चुके थे। मीता दीदी अपने आप को अच्छा साबित करने का एक भी मौका नहीं छोड़ना चाहतीं थीं। आज तो पूछ पूछ कर सबके काम कर रहीं थीं। सबको सबका ख्याल था, नहीं था ----तो सिर्फ ये कि मानसी ने सुबह से कुछ नहीं खाया और वो सिर्फ़ रो ही रही है। घर के पंचों ने फैसला सुना दिया था कि कल राजीव के आने के बाद मानसी के घर फोन करके उसके माता-पिता को बुलवाया जाएगा।
पूरी रात उहापोह में ही बीती। बिना अपराध किए ही अपराध बोध सता रहा था। मन कई तरह के संकल्प विकल्पों में फंसा था। कोई भी अपना नहीं लग रहा था, "राजीव भी नहीं"। कब नींद आई, पता नहीं, स्वप्न में खुद को दूर तक सूनी सड़कों पर दौड़ता पाया। सुबह तैयार होकर रोज़ की तरह बोझिल कदमों से रसोईघर की और चली। मन के सूनेपन ने चेहरे को और कठोर कर दिया था जिसे शायद छिपाने के लिए मानसी ने अपना घूंघट और नीचा कर लिया था।
" मां! राम, राम", तभी मानसी की तंद्रा टूटी, ये राजीव की आवाज थी। राजीव आ गए थे, रुके हुए आंसू फिर बह निकले। चाय पीने घर के सारे लोग भी चौंक में इकट्ठा हो लिए थे।" सबके चेहरों को देखकर राजीव को शायद कुछ अनहोनी का आभास हो रहा था। इसलिए राजीव ने मां की और देखते हुए पूछा क्या हुआ मां? सब ठीक तो है?
कुछ नहीं ! होना क्या है?, " गलती तो हमसे हुई, जो हमने तेरी महारानी के दहेज के अंदर रखे हुए बर्तन निकाल लिए, " और उसके बाद -----किसने क्या कहा"? "क्या बोला"? कुछ नहीं पता, मानसी के कान, आवाज सब बंद हो चुके थे। उसी की ही तरह उसकी सिसकियां तक घुट रहीं थीं। तभी एक आवाज आई और ये आवाज़ राजीव की थी, " --------
"नहीं मां! घर वालों को क्या बुलाना? "अब तो हम ही देखेंगे"। बहुत शौक है ना इसे अपना सामान अन्दर बन्द करके रखने का, ऐसा करो, "तुम इस का सारा सामान स्टोर से बाहर निकलवा दो" मैं अभी मूवर्स - पैकर्स को फोन करता हूं, शाम तक ट्रक आ जाएगा और अब ये नौऐडा में बैठकर अपना चम्मच चम्मच तक भी बाहर निकाल कर रखती रहेगी। शायद तुम सही कहती हो इसके लक्षण घर में सब के साथ रहने वाले हैं भी नहीं। जब अकेली रहेगी तब ही इसे कुछ समझ आएगी।
"सरपंच अपना फैसला सुना चुका था।" मानसी की आंखों से अश्रु धारा अब भी बह रही थी ।----पर शायद बहने का कारण बदल चुका था। अब मानसी के मन के जैसे ही घर में भी चुप्पी छा चुकी थी लेकिन अब मानसी मन ही मन मानसिक रूप से अपने देवता को धन्यवाद करते हुए उनके चरणों को प्रणाम कर रही थी।

