समर्पित दोस्त।
समर्पित दोस्त।
सुख के समय तो सबके ही बहुत से दोस्त होते हैं लेकिन जो दुख में साथ खड़ा रहे और जिसके केवल होने से अपनापन लगे वही सच्चा दोस्त होता है।
बहुत समय पहले की बात है। तब मेरी ब्रेन सर्जरी हुई थी। उसके बाद गोलियों का ही ऐसा असर रहता था कि केवल नींद ही आती रहती थी। दफ्तर से मैंने छुट्टी ले ली थी और क्योंकि मुझे सरकारी नौकरी करते हुए इतने साल तो हो गए थे कि मैं वॉलंटरी रिटायरमेंट ले सकूं। उस समय मिलने आने वाले लोगों की निराशाजनक बातें एवं अपनी शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखते हुए मुझे नहीं लगता था कि मैं फिर पहले के जैसे ही एनसीआर में रहते हुए दिल्ली तक रोजाना आराम से आ जा सकूंगी। मेरे पुराने विभाग से भी मेरा तबादला हो गया था और मुझे एक नए विभाग में भेज दिया गया था।
नए विभाग में मुझे रिपोर्टिंग जिसको करनी थी वह एनसीआर में हमारे घर के ही नजदीक रहती थी। मैंने उनसे बात करी कि मुझे वॉलंटरी रिटायरमेंट लेनी है अभी मैं ऑफिस आने में सक्षम नहीं हूं आप मेरी केवल इतनी सहायता कर दो कि मैं वॉलंटरी रिटायरमेंट आराम से ले सकूं।
पाठकगण आशा के विपरीत उन्होंने मुझसे कहा कि अब तुम गोलियों को टेपर डाउन करते हुए सुबह की गोलियां नहीं ले रही हो तो वॉलंटरी रिटायरमेंट मत लीजिए और एक बार दफ्तर जॉइन कर लो। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाओगी तो तुम अपने में आत्मविश्वास इकट्ठा नहीं कर पाओगी। ज्वाइन करने के बाद तुम्हें लगता है कि परेशानियां नहीं झेली जा रही तो वॉलंटरी रिटायरमेंट तो तुम कभी भी ले सकती हो और मैं तुम्हारे साथ हूं।
शायद मेरे मन में भी यही इच्छा थी और परमात्मा ने हर तरफ से साथ भी दिया मुझे मेरे दफ्तर तक जाने वाली एक और सहेली जो कि अपनी गाड़ी ले कर जाती थी और अपने साथ ही वे शेयरिंग में मुझे भी दफ्तर छोड़ने और लाने की जिम्मेदारी लेने को तैयार हो गई। दफ्तर में मेरी रिपोर्टिंग मेरे पड़ोस में रहने वाली मैडम को ही थी। हालांकि हम दोनों जानकार तो थे पर दोस्त थे ऐसा तो नहीं कहा जा सकता।
जिस दिन मैंने ज्वाइन कर उन्होंने मुझे अपने साथ ही अपने स्टाफ के तौर पर रख लिया। मुझे दफ्तर में बेहद अजीब सा माहौल लग रहा था और इतने दिन बाद दफ्तर के पूरे समय तक बैठना दुर्लभ ही लग रहा था।
उन्होंने दफ्तर के बाहर ही रूम में मेरे लेटने के लिए भी इंतजाम कर रखा था और बहुत सी फ्रूट्स कटवा कर वह मुझे समय-समय पर भिजवा रही थी। समय पर चाय और खाना भी उपलब्ध था। हमारे दफ्तर के बाहर फ्रूट की मंडी भी थी। मैं भले ही उनके साथ स्टाफ के रूप में काम कर रही थी परंतु उन्होंने मुझे कोई काम करने को नहीं दिया था।
धीरे-धीरे या कि यूं कहूं जल्दी ही मुझे उनका ख्याल रखना और वह रूटीन अच्छा लगने लगा था और मैं अपने आप को पहले से भी ज्यादा स्वस्थ महसूस कर रही थी। एक दो बार तबीयत बिगड़ती सी लगी तो मेरे पतिदेव मुझे लेने के लिए आ गए थे।
कुछ दिनों के बाद मैं दफ्तर के कंप्यूटर पर थोड़ा-थोड़ा काम करना शुरू कर दिया था। मैं तो दफ्तर से जल्दी निकल जाती थी लेकिन मेरे बाद और सुबह मेरे ऑफिस पहुंचने से पहले
ही मेरी वही मैडम मेरी सीट पर बैठकर मेरा बचा हुआ सारा काम स्वयं ही करती थी। वह मुझे हमेशा यही कहकर प्रोत्साहित करती थी कि कल तो तुमने कंप्यूटर पर भी काम कर लिया और देखो आज तो यह वाली फाइलें भी निकाल ली तुम तो कह रही थी कि मुझे कुछ याद भी नहीं रहेगा तुम्हें तो सब कुछ कितना अच्छा याद है।
शायद यह उनके प्रोत्साहन देने का ही परिणाम था कि मेरी कार्य क्षमता पुनः बढ़ती जा रही थी। बिना किसी तनाव के मैं धीरे-धीरे दफ्तर का काम करने में सफल हो रही थी।
कुछ समय बाद जब मैं स्वयं को पूर्णरूपेण स्वस्थ मान रही थी तो मैंने पाया कि उस समय कंप्यूटर पर एकाउंट्स का काम करते हुए मैंने बहुत बड़ी-बड़ी गलतियां भी की थी जिन्हें ठीक करने में यकीनन मैडम को बहुत समय लगा होगा। मैं जब उनसे पूछा कि मैं इतनी गलतियां करती थी और आपने मुझे कभी बताया भी नहीं कि मेरे से गलतियां होती हैं तो उन्होंने मुझे जवाब दिया वह समय अगर मैं तुम्हें कुछ भी बोल देती तो तुम्हारा आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता। उसके बाद तुमको अवसाद से बाहर निकलने में काफी समय लगता।
उसके बाद आज तक हम दोनों बहुत अच्छी दोस्त हैं उनसे मैंने बातें करते हुए एक बात और सीखी है कि हम लोग दफ्तर में जाते हैं घर और दफ्तर में जाते हुए हम परमात्मा की समाज की कोई भी सेवा करने का समय प्राप्त नहीं कर पाते तो अगर हम अपने साथ में बैठने वाले या कि अपने दफ्तर और घर में किसी की भी सेवा का मौका पा सके तो हमें छोड़ना नहीं चाहिए। उनकी इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने भी आगे नौकरी करते हुए कभी किसी का बुरा करने के बारे में नहीं सोचा और मुझे लगता है कि उन जैसा दोस्त मिलना जो कि मेरे जीवन की दिशा ही बदल दे बहुत मुश्किल है। बस यही है मेरी दोस्ती की कहानी और इस तरह से वहां से तबादला होने के बाद मैंने भी नौकरी को सेवा की तरह ही लिया। इस कारण मेरे भी बहुत से दोस्त बने हैं। हम सबकी दोस्ती का एकमात्र कारण प्यार समर्पण और सेवा ही है।
