तुम बिन
तुम बिन
आज, तुम्हें गए हुए एक साल हो गया है, पर यह एक साल मेरे लिए सदियों के बराबर था। शर्मा जी रॉकिंग चेयर पर बैठे हुए सोच रहे थे और न जाने कब वह अतीत की यादों में खो गए।
सुबह-सुबह जब तुम मेरे लिए चाय लेकर आती थी, पूरा कमरा तुम्हारी भीनी खुशबू से महक जाता था। अलार्म लगाकर उठने की तो कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी, पता था ‘मेरा अलार्म मेरे पास है।’ कभी-कभी जान-बूझकर तुम पर झुँझलाता था। "उठ रहा हूँ, क्यों शोर मचा रही हो?” क्यूंकि चाहता था, तुम अपनी ज़ुल्फ़ें, मेरे चेहरे पर लाओ और मुझे जगाओ, पर अब तो शायद तुम्हारे साथ मेरी नींद भी चली गयी। पूरी रात करवटें बदलता रहता हूँ।
शीशे पर तुम्हारी बिंदी चिपकाने की आदत से कितना परेशान होता था मैं कि शीशा ख़राब हो जायेगा पर अब तुम्हारे बिंदी के पत्तों में से बिंदी निकाल कर शीशे पर चिपका देता हूँ। ताकि अपने साथ-साथ तुम्हारा भी चेहरा महसूस कर सकूं। जान-बूझकर अपनी कमीज का बटन तोड़ देता था। क्यूंकि कमीज पहने-पहने तुमसे बटन लगवाना बहुत अच्छा लगता था पर अब तो पता नहीं कितनी कमीज़ें बिना बटन की मेरी अलमारी में इकट्ठी हो रहीं है। बहू कह तो देती है, "आप कमीज रख दीजिये, मैं बाद में बटन लगा दूंगी,” पर शायद भूल जाती है, इतना काम जो होता है उसे। तुम्हारे जाने के बाद अब तो किसी पर गुस्सा भी नहीं करता शायद तुम्हारे ऊपर ही अपना हक़ समझता था!
पहले मैं घर में कोई भी सामान जगह पर नहीं रखता था और फिर समय पर कोई भी चीज़ न मिलने पर तुम पर चिल्लाता था। तुम मुझे हमेशा सामान जगह पर रखने की अहमियत समझाती थी पर मैं यह कहकर तुम्हें चुप कर देता था कि पूरा दिन चिक-चिक करती रहती है। अब मैं सब चीज़ें जगह की जगह रखना सीख गया हूँ क्यूंकि जानता हूँ कि कोई ढूंढने वाला नहीं है।
घर के कामों में और बच्चों को संभालने में, मैंने कभी तुम्हारा साथ नहीं दिया, मैं सोचता रहा यह सब तो तुम्हारा काम है पर तुम कितने अच्छे से मेरा बिज़नस संभालती थी। लेकिन मैंने बिज़नस में कभी तुम्हारी किसी सलाह को नहीं माना क्यूंकि मेरा पुरुष होने का अहं मुझे तुम्हारी बात मानने से रोकता था। न जाने इतना अहं सिर्फ मुझ में था या हर आदमी में होता है, अगर होता है तो यह एक औरत की भावनाओं को कितनी ठेस पहुंचाता है। आज समझ पा रहा हूँ क्यूंकि अब किसी भी काम में कोई मेरी सलाह नहीं लेता।
मेरे ज़रा से बीमार होने पर तुम मेरा कितना ख्याल रखती थी, समय-समय पर कुछ हल्का खाने को देना, दवाई खाने से इंकार करने पर ज़बरदस्ती डांट कर दवाई खिलाना। जब मुझे डायबेटीज हो गयी थी, तुम हमेशा मुझसे मिठाईयाँ छुपा-छुपा कर रखने लगी थी।
अब तो बहू और बेटा बस एक बार मिठाई खाने से मना करते है, फिर कहते है, “आप परहेज़ नहीं कर
सकते? इतनी महँगाई में हमारा कितना पैसा तो आपकी दवाइयों पर ही लग जाता है... हमारे लिए एक-एक पैसा कमाना कितना मुश्किल हो रहा है कभी सोचा है आपने?”
छोटी - छोटी बातों में मुझे, कितना कुछ सुनना पड़ता है तुम तो... मुझे धोखा देकर, मुझे अकेला छोड़ कर चली गयी।
कैसे जी पाउँगा मैं तुम्हारे बिना, कभी ख्याल नहीं आया तुम्हें?
वैसे हमारे बच्चे इतने बुरे भी नहीं है, मेरा ध्यान रखने की कोशिश तो करते है, पर उन्हें ज़्यादा समय ही नहीं मिलता और इतनी महॅंगाई के ज़माने में उन्हें कभी-कभी मेरे ऊपर भी गुस्सा आ जाता है। जानता हूँ तुम
बच्चों को बहुत प्यार करती थी और उनके खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करती थी। अब मैं भी उन्हें और तकलीफ नहीं देना चाहता और न ही तुम्हारे बिना अब मेरी जीने की कोई इच्छा है, यह सब सोचते-सोचते पता नहीं कब शर्मा जी की आँख लग गयी।
कुछ देर बाद उनके बेटे पुलकित ने कहा, पापा चलिए खाना लग गया है, आज सब एक साथ खाना खाते है। पर शर्मा जी कुछ नहीं बोले।
पुलकित ने 3-4 बार कहा पर जब उसे कोई जवाब नहीं मिला तो उसने सोचा शायद पापा को नींद आ
गयी है। उसने उनके पास जाकर उन्हें हिलाया पर शर्मा जी की गर्दन एक तरफ लुढ़क गयी। वह अब कभी न उठने वाली नींद में सो चुके थे, अपनी पत्नी के बिना अब रह जो नहीं पा रहे थे वो...