Moumita Bagchi

Inspirational

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Moumita Bagchi

Inspirational

तुम बेसहारा हो तो

तुम बेसहारा हो तो

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अंधेरी रात में सीमा ने नदी के ठंडे पानी में छलांग मारी। आज इसी इरादे से वह घर से निकली थी कि वापस वहाँ लौटकर कभी न जाएगी। बस अब बहुत हो चुका था।

ठंडे पानी में उसका शरीर धीरे-धीरे समाने लगा। उसे साँस लेने में तकलीफ़ होने लगी। उसने कूदने से पूर्व अपनी नाक बंद कर ली थी। परंतु अब वह ज़ोर- ज़ोर से हाथ-पैर चलाने लगी। उसे तैरना नहीं आता था और इसलिए अपनी इस कोशिश में वह पानी में और नीचे की ओर जाने लगी थी।

नहीं, इतनी जल्दी मरना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। हालांकि इसी इरादे से वह यहाँ आई थी। पर अब वह जीना चाहती थी। अपनी बच्ची का चेहरा उसे बार-बार स्मरण होने लगा था। वह डूबते हुए तिनके का सहारा ढूँढने लगी। परंतु सहारा देने के लिए कौन बैठा था वहाँ?

धीरे-धीरे उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा था। और फिर उसका होश भी जाता रहा!

करीब एक घंटे के बाद जब उसे होश आया तो उसने पाया कि वह नदी के किनारे गीले कपड़ों में औंधा लेटी हुई है। और एक अजनबी उसका पीठ दबाकर उसके पेट से पानी निकालने की कोशिश कर रहा है।

पूरी तरह होश आने पर जब वह उठकर बैठने में समर्थ होती है तो अजनबी उससे पूछता है,

" कौन है, आप? इस तरह क्यों आत्महत्या करने जा रही थीं?"

वह इस बात का कुछ भी जवाब नहीं देती। घुटनों के बीच में सिर रखकर सीमा सुबकने लगती है। आधी रात को उसे इस तरह रोते हुए देखकर शायद अजनबी को उस पर दया आ जाती है। वह सीमा के सर पर हाथ फेरकर उसे चुप हो जाने का अनुरोध करता है। इसके बाद उसकी ओर एक रुमाल और पानी का एक बोतल भी बढ़ा देता है।


सीमा रोज़ रोज़ के झगड़ों से तंग आ चुकी थी। जब सासु माँ चुप होती थी तो ननद जी चालू हो जाती थी। मानो वह कोई स्त्री नहीं बल्कि किसी मुक्केबाज का पंचिन्ग बैग हो!! एकबार इधर से और एकबार उधर से। दे दना दन, दे दना दन!!!

इस समय यदि मयंक पास होते तो थोड़ी देर वह उनके कंधों पर सर रखकर रो सकती थी। ऐसी मुसीबतों में वे ही अक्सर उसका एकमात्र सहारा हुआ करते थे। उनसे बातें करके उसे सास और ननद की रात- दिन ताने सुनने और रोजमर्रा के इस जीवन रूपी संग्राम से जूझने की हिम्मत मिल जाया करती थी।

परंतु मयंक इस समय प्रोजेक्ट के सिलसिले में आबु-धाबी में हैं। अपनी माँ की भी उसे बड़ी याद आती है आजकल। वे दूसरे शहर में रहती हैं। कई बार बातें भी की है उनसे। एक बार सोचा था कि मायके में जाकर रह आएगी कुछ दिनों के लिए। परंतु मुफ्त की नौकरानी को हाथ से जाने देना कौन चाहेगा भला? सो यहाँ से जाने की मंजूरी न मिल पाई।

उधर भाभी को यह भी शंका थी कि वह आकर कहीं भाई-भाभी पर बोझ न बन जाए। इसलिए कोई न कोई बहाना करके माँ से कहलवा दिया कि वह इस वक्त वहाँ न आए।

सास और ननद को सीमा के रंग- ढंग शुरु से ही नापसंद थे। फिर दहेज भी कुछ खास लेकर न आई थी, वह। मयंक नहीं चाहता था कि उसके ससुराल वालों पर दहेज संबंधी कोई भी दवाब डाला जाए। तो फिर वे दोनों अपने मन की भड़ास और अपनी हाथों की खुजली किस पर निकालते?

बेटा होता तो बहू का पक्ष ले लिया करता था। अब वह निपट अकेली थी। अतः अब गाली-गलौच के साथ-साथ उसपर कभी-कभी गुस्से में उनके हाथ भी उठ जाया करते थे। कमज़ोर को सताने में जो आनंद मिलता है, वैसा शायद और किसी चीज़ में नहीं मिलता।

सीमा के ससुर जी यद्यपि अच्छे थे परंतु वे सबकुछ देखते समझते हुए भी वे अधिकांशतः तटस्थ ही रहते थे। उनके पास इतनी हिम्मत न थी कि वे अपनी पत्नी और बेटी को कुछ कह सकें। सीमा को अपनी इतनी अधिक चिंता न थी। आखिर बहुएँ तो ब्याही ही जाती हैं यह सबकुछ सहने के लिए। उसे यदि चिंता थी तो अपनी साढ़े तीन साल की बच्ची स्नेहा की, कि वह यह सब देखकर न जाने क्यों सहमी सहमी सी रहती थी? उसके व्यक्तित्व का विकास न हो पा रहा था। वह दब्बू सी क्यों बनती जा रही थी।

परंतु इतना दुःख शायद उसके लिए काफी न था। ईश्वर को उसकी और भी बहुत -सी परीक्षाएँ लेनी थी। कुछ महीने बाद आबू-धाबी से समाचार आया कि मयंक कुछ बीमार हो गया है, और उसे वहाँ के एक स्थानीय अस्पताल में दाखिला करा दिया गया है।

इसके चार दिनों के बाद आबु-धाबी से समाचार आया कि मयंक की वहीं अस्पताल में मौत हो गई है। खबर पाकर सीमा की हालत पागलों की सी हो गई! उसके प्यारे पति नहीं रहे। उन दोनों ने जो सारे सपने मिलकर देखे थे उसका महल इस समय चरमराकर टूट गया था!

मयंक बार- बार कहता था कि जैसे ही यह प्रोजेक्ट समाप्त होगा, वे लोग एक अलग मकान लेकर रहेंगे। उसे अपनी पत्नी और बेटी के भविष्य की बड़ी चिंता थी। वह सीमा को एक आराम की जिन्दगी और अपनी प्यारी स्नेहा के लिए अच्छी शिक्षा का सपना देखा करता था।

इधर पुत्र -शोक से मुक्ति पाने के लिए उसका सारा दोष सासु माँ ने सीमा पर डाल दिया। वह बुरी तो पहले से ही थी, अब कुलच्छनी, राक्षसी, बेटे को खानेवाली और न जाने क्या- क्या बन चुकी थी! चार बरस से थोड़ा अधिक ही समय बीता था उन दोनों के शादी का और सीमा विधवा हो चुकी थी! कम उम्र में हुई बेवाओं को हमारे समाज ने कब शांति से जीने दिया? सो, सीमा को अपनी जिन्दगी अब दूभर लगने लगी थी। उसने भी अपने जिन्दा रहने की सारी वजह खो दी थी।

सीमा को अब अपनी जिन्दगी बोझ- सी लग रही थी। वह किसी बहाने इस देह से छुटकारा पाना चाहती थी। उस असहाय का अब कोई सहारा न था। आर्थिक रूप से भी वह एक बोझ से सिवा और कुछ न थी।

रात- दिन अब वह यही सोचती रही कि क्या फायदा इस तरह जिन्दा रहने का? सिर्फ ससुर जी के पेंशन पर खाने वाले थे पाँच लोग! उन दोनों को इसलिए अब एक टाइम का खाना मिलने लगा था। काम से तो नौकरानी वह पहले ही थी अब और दोगुना काम उससे करवाया जाने लगा।

अतः अपनी परिस्थिति को देखते हुए सीमा ने सोच समझकर यह फैसला लिया कि वह अपने इस जीवन का अंत कर देगी। इसलिए, एकदिन रात के अंधेरे में, जब परिवार वाले सभी खा पीकर सो गए थे, उसने सोते हुए स्नेहा का माथा चूमा और चुपके से घर से निकल पड़ी थी।


सीमा की आपबीती सुनने के बाद वह अजनबी गुस्से से लगभग चीखते हुए बोला,

" यह क्या करने जा रही थी, आप? आपको एकबार भी अपनी बच्ची का ख्याल न आया? कभी सोचा है, आपके चले जाने के बाद उस बिन माँ- बाप की बच्ची पर क्या बीतती? वह भी, इस उम्र से ही शायद घर की नौकरानी बना दी जाती, क्यों है न? और वह सबकुछ होता आपके एक बेवकूफी के कारण!"

" और क्या करती,मैं? मुझ बेसहारे के पास दूसरा कोई उपाय न था।"

" किसने कहा?" उस अजनबी ने पूछा?

फिर ज़रा नरम पड़ कर उन्होंने सीमा से कहा,

" जानती हैं आप, बचपन में हमने एक गाना सुना था, ' तुम बेसहारा हो तो, किसी का सहारा बनो।' आपको भी वही करना चाहिए।"

" क्या मतलब आपका?" सीमा ने उनसे पूछा।

अजनबी हल्का सा मुस्कराया। उसने सीमा को सलाह दी,

" आप पढ़ी- लिखी है, कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेती? फिर नए सिरे से अपनी और बेटी की जिन्दगी सँवार सकती हैं।"

" परंतु मुझे नौकरी देगा कौन? मेरे पास इसके पहले काम करने का कोई तजुर्बा भी नहीं है। पापाजी ने एक दो जगह बात तो की थी।"

" अगर कोई जाॅब दे दे, तो क्या आप वह करेंगी? पहले एक साल तक कोई खास तनख्वाह न मिलेगी। लगकर काम सीखना पड़ेगा। इंटर्नशीप समाप्त होने पर पूरी तनख्वाह मिलेगी। बताइए करेंगी, ऐसी नौकरी?"

सीमा ने हाँ में सिर हिलाया। वह कोई भी नौकरी करने को तैयार थी।

उस अजनबी ने बैग में से अपना नोट पैड निकाला। उसमें कुछ देर तक वे कुछ लिखते रहें। जब लिखना समाप्त हो गया तो वह सीमा के हाथ में उसे थमाते हुए बोले,

" यह चिट्ठी कोमल के दे देना। दफ्तर का पता और टेलीफोन नंबर चिट्ठी के ऊपर लिखा है। दस बजे ऑफ़िस खुलने पर किसी भी समय आप वहाँ चली जाना।"

अगले दिन ग्यारह बजे जब सीमा उस एनजीओ के दफ्तर पर पहुँची तो पाया कि वहाँ एक अजीब सी मरघट की शांति छाई हुई है। सब काम तो कर रहे थे परंतु सबके चेहरे पर शोक की रेखाएँ साफ नज़र आ रही थी। जैसे किसी अपने की मृत्यु शोक का अभी- अभी समाचार मिला हो!

खैर, कोमल को ढूँढ कर सीमा ने वह चिट्ठी उसके हाथों में दी और वहाँ आने का अपना अभिप्राय भी बताया।

कोमल रिसेपशनिष्ट थी। चिट्ठी पढ़कर और हस्ताक्षर देखकर वह थोड़ी देर स्तब्ध होकर बैठी रही। फिर दफ्तर के सभी कर्मचारियों का नाम लेकर वह पुकारने लगी। जब अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई तो सबको बुला- बुलाकर वह चिट्ठी सबको दिखाने लगी।

सब लोग फुसाफुसाकर आपस में कुछ कहने लगे थे।

फिर कोमल सीमा से उस अजनबी के बारे में तरह-तरह के सवाल पूछने लगी। बाकी लोग भी ऐसा ही करने लगे थे।

आखिर, जब सीमा को कुछ न समझ में आया तो वह उनसे पूछ बैठी कि यह सब क्या हो रहा है?

कोमल ने इस बार उसे घूर कर देखा और हैरानी से पूछा,

" क्या आपको कुछ नहीं मालूम? आपने आज सुबह का समाचार नहीं देखा क्या?"

" नहीं तो? क्या हुआ?" सीमा बोली।

उसकी भोली सी सूरत देखकर कोमल को उस पर यकीन हो गया कि वह सच में कुछ नहीं जानती। वह उसे खींचकर टीवी के पास ले गई और वहीं रखे सोफे पर बिठा दिया। फिर उसने टीवी चला दिया।

टीवी के सारे न्यूज़ चैनलों पर एक ही समाचार आ रहा था।" एक शख्स का पानी में डूब कर मौत हो गई थी " जैसे ही उस शख्स का फोटो दिखाया गया, आश्चर्य से सीमा के मुख से चीख निकल पड़ी,

" हे, राम!! ये तो वे ही हैं।"

यह वही अजनबी था, जिसने उसे यहाँ आने के लिए प्रेरित किया था और अपने हाथों से चिट्ठी भी लिख कर दिया था। समाचार से सीमा को पता चला कि वह कोई बड़ा आदमी था। एक बड़े कंपनी का वह सीइओ था। इसी एनजोओ का भी वही मालिक था।

सीमा वहीं सर पकड़कर बैठ गई। अपनी जान बचानेवाले के द्वारा कही हुई आखिरी वाक्य उसके दिमाग के बैकग्राउंड में बार-बार बजने लगा,

" तुम बेसहारा हो तो, किसी का सहारा बनो।"

उस दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धा से उसका सर झुक गया जिन्होंने स्वयं मृत्यु से पहले उसकी जिन्दगी को एक नई दिशा दिखा दी थी! जिसने उसे जीने का मतलब सीखाया था। बताया था कि" मानव जीवन बड़ा दुर्लभ है! दुःख सुख इसी जीवन के दो पहलू है। जिन्दगी से हारकर आत्महत्या करना कायरों का काम है। गिरकर उठने में ही सच्ची वीरता निहीत है।"

जिनको जीवन से इतना लगाव था, वे आत्महत्या कर सकते हैं, यह बात सीमा हज़म नहीं कर पा रही थी। उसने हाथ में पकड़ी हुई उस चिट्ठी की ओर देखा। यह चिट्ठी उस दिवंगत आत्मा ने मृत्यु के कुछ समय पूर्व ही लिखी थी। अब वह अत्यंत मूल्यवान बन चुका था।

पाठकगण, अब आपके मन में यह प्रश्न जरूर उठ रहा होगा कि आखिर सीमा की जिन्दगी बचाने के बाद उन महानुभाव ने स्वयं क्यों आत्महत्या कर ली? दरअसल, वह शख्स भी वहाँ इसी इरादे से गया था। वे सोच रहे थे कि जीवन त्यागने से पहले कोई अच्छा काम करके जाए। तभी उन्होंने सीमा को पानी में कूदते हुए देखा। फिर उसे छटपटाते हुए भी देखा। वे समझ गए थे कि सीमा को अपनी गलती का अहसास हो चुका है, और वह अब जीना चाहती है। मृत्यु से पूर्व यह दुनिया अचानक बहुत सुंदर लगने लगती है।

दुनिया यह बात नहीं जानती थी कि जिस कंपनी के वे मालिक थे वह कर्जों में पूरी तरह से डूबा हुआ था। उनके पास इतना पैसा नहीं बचा था कि वे अपनी कंपनी का उद्धार कर पाते। ऐसी अवस्था में उनके कंपनी की नीलामी होना तय था। फिर तो उसके परिवार वाले और कंपनी के लगभग सभी कर्मचारियों के सड़क पर आ जाने की नौबत आ जाती!

ऐसी हालत में उनके पास सिर्फ एक ही उपाय था। कुछ समय पूर्व उन्होंने अपने और पत्नी के नाम से एक मोटी रकम की जीवन बीमा करवाई थी। उन्हें आशा थी कि उनकी मृत्यु के बाद उन पैसों से उसके परिवार वाले उनकी कंपनी को लेनदारों के हाथों से बचा लेंगे!!


सीमा आजकल उसी एनजीओ में अनाथ बच्चों को पढ़ाती है। उनके भविष्य को सुंदर बनाने का प्रयास करती है। इसी प्रकार उस अजनबी के द्वारा कहे हुए अंतिम वाक्य को सार्थक बनाने के प्रयास में जुटी हुई है। आजकल अपने आपको वह पहले जैसा बेसहारा नहीं महसूस करती, बल्कि सारे बच्चों को भी वह यही सीखाती है कि वे भी बड़े होकर किसी न किसी का सहारा बने। हो न हो मानव जीवन की सार्थकता इसी में निहित है।



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