तुझे गा भी नहीं पाया
तुझे गा भी नहीं पाया
तूझे गा भी नहीं पाया उस रोज जब उस गीत की सबसे ज्यादा जरूरत थी .....!" ज्यादा " इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस समाज जिसे आजकल हम समाज मानते हैं , जो सम्मान की टोपी पहनता भी हैं और पहनता भी हैं ! वो टोपी जो खुद में एक मज़ाक हैं या पहनने वाले को मजाक के पात्र बनाता हैं । मानो उसकी स्थिती उस शासक की भांति हो जो वास्तव में एक मुर्दा हैं । बस शरीरिक स्तर पर तो जिन्दा हैं आन्तरिक स्तर पर वो मरा हुआ है !
जैसा विचार हमारे मन में आता है वैसा समाज हमें मिल जाता लेकिन वास्तव में समाज ऐसा होना चाहिए जो किसी की निजी जिंदगी में दखल न दें !!
वास्तव में उसी को समाज मानता हूं जो जिंदगी बनाए जिंदगी तबाह न करें । आज का समाज बड़ा अजीब मालूम होता है वह ऐसे फौज तैयार करना चाहता है जहां सिर्फ मुर्दों की जमात हो ऐसे मुर्दों कि.. जो की शरीरिक स्तर पर तो जीवित हैं । लेकिन मानसिक रूप से मर गए हो । वह बस हमें उस भीड़ का हिस्सा बनाना चाहते हैं जो विस्फोटक हैं ऐसा विस्फोटक जो खुद को ही भस्म कर दे !!
जिस दिन हम खुद का मूल्यांकन करना सीख गए और स्वतंत्रता से सोचना प्रारंभ कर दिए उसी रोज हमें वास्तविक समाज के दर्शन होंगे । जहां मुर्दे नहीं इंसान दिखेंगे ! जो अपने फैसले और अपना कर्तव्य का पालन बिना किसी रोक-टोक के आजादी से कर सकते हैं ।
देश का कानून लोगों को अनुशासित रखने के लिए बनाए जाते हैं ताकि एक अच्छे समाज का निर्माण कर सके और यह तभी संभव है जब हम स्वतंत्रता से अपना निर्णय ले सके । और जिस दिन हम ऐसा करने में सफल हुए उसी दिन हमें अपना समाज मिल जाएगा । क्योंकि दोस्तों आज जिस युग में हम है वहां समाज कई भागों में बटा हुआ है और इसके अलग-अलग ठेकेदार हैं । जो हमें मुर्दों की तरह इस्तेमाल करते हैं इसलिए यह जरूरी है कि हम अपना वास्तविक समाज को पहचाने । और इसे पहचाने का सरल उपाय है , किसी का थोपा हुआ निर्णय हमारे जिंदगी को तबाह न करें.. हम अपने जिंदगी के खेल के खिलाड़ी भी है और निर्णायक भी । और जिस दिन इसे हम भलीभांति पहचान लेंगे , तो हमारे आस-पास हमारी सोच का समाज हमें मिल जाएगा । और शायद उसी दिन हमें अपना संविधान भी...।।
