Mayank Kumar 'Singh'

Horror

4.8  

Mayank Kumar 'Singh'

Horror

डरावनी शाम

डरावनी शाम

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एक रोज़ की बात है, मैं और मेरा मित्र दोनों अपने गाँव के एक वीरान खेत से गुज़र रहे थे, तभी एकाएक आसमान काला पड़ गया और तेज़ बरसात होने लगी। हम दोनों खुद को बचाने के लिए एक पीपल के वृक्ष के सामने जाकर खड़े हो गए। बिल्कुल उससे चिपककर ताकि हम खुद का बचाव कर सके। तभी ऐसी अप्रिय घटना घटित हुए जिसे सोच कर आज भी मैं सहम सा जाता हूं ! हमारे सामने बिजली की एक तेज़ चमक के साथ ही जोड़ की आवाज़ आई। और मानो हमारे आँखों के सामने अंधेरा छा गया हो ।

थोड़ी देर बाद जैसे ही आँख ने थोड़ा धुँधला सा देखना शुरु किया तभी मेरी नजर सबसे पहले अपने मित्र पर पड़ी। उसके भौएँ चढ़ी हुई थी और आँखों में अजीब सा सनक एवं हाथों की दोनों मुट्ठियाँ कसके बंधी हुई थी। वह मुझे ऐसी नज़रों से देख रहा था मानो मैंने कभी उसकी लुगाई को हड़प लिया हो ।

वह मेरी तरफ देखकर हँसा जा रहा था और मैं खुद को 18 वीं सदी में पहुंचा पाया मनुष्य की तरह हो गया था मानो घटाएं सदियों पुरानी हो ! बारिश भी कुछ डरावनी सी और वो पीपल का वृक्ष जवान सा प्रतीत हो रहा था ! मानो ऐसा अनुभूति हो रहा था की सारी घटनाएँ किसी डरावनी सी समय के गुफा में बिल्कुल एकांत में मुझे ढकेल रहे हो !!

मेरे मित्र द्वारा मेरी ओर खींची नज़रों से देख कर बोला गया - "मेरे खेत की मकई आज नहीं काट पाओगे आज पुराना हिसाब तो बराबर करूँगा ही। तुमने मेरी ज़मीन हड़प कर सामने वाली पोखर में मुझे दफ़ना दिया था न आज मैं तुझे भी वैसे ही मौत दूँगा।"

उसकी बातों को सुनकर मैं सन्न रह गया मैं सोचा भला क्या हो गया इसे । यह ऐसा अजीब व्यवहार क्यों कर रहा है । मैंने उसका नाम सोमराजन कहकर पुकारा और बोला थोड़ा हिम्मत करते हुए ! - "पगला गए हो क्या ? क्या बोले जा रहे हो।"

उसका उत्तर था - "आज ही तो होश में आया हूं नटराजन तुम्हारा मौत मेरे ही हाथों की शोभा बढ़ाएगी।"


उसकी बातों को सुनकर मेरे शरीर के सारे अंग स्थिर हो गए एवं सभी बाल खड़े हो गए मुझे अब पूर्ण विश्वास हो गया था की यह मेरा मित्र सोमराजन के बोल नहीं है क्योंकि मेरा नाम खिलावन लाल था !


लेकिन उसकी बातों को सुनकर मुझे इतना तो पता चल गया था कि अगर मैं अपना वास्तविक नाम बता भी दूँ तो भी इसको विश्वास नहीं होने वाला।

तो मैंने भी उसके युग में ही जाकर उसके अतीत को जानने का ठान लिया।


मैंने उससे कहा "भला मैंने तुम्हारे खेत से मकई कब काटी थी। कुछ भी बोले जा रहे हो, मुझे कहां फुर्सत अपनी खेती - बारी से जो तुम्हारा ज़मीन हड़प जाऊँ वैसे भी मुकदमे की सौ रुपये देने की कहाँ औकात मुझे और वैसे भी कचहरी से दूर ही रहता हूं मैं! भूमिहीन किसान थोड़े हूं मेरे पास भी दो सवा दो बीघा ज़मीन है। जिससे मैं काम चलाऊ जीविकोपार्जन आराम से कर लेता हूँ।"

मैंने बस अंदाजे लकड़ी मारी यह देखने के लिए की शायद वह वास्तविक आंकड़े एवं वास्तविक घटनाएँ से मुझे अवगत करा देगा ...

मेरी इस प्रकार से बोलने के बाद मानो उसके सर पर खून सवार हो गया ।

वह भन्नाते हुए बोला - "आखिर बईमान का बेटा बेईमान ही न होगा, जानबूझकर गलत आंकड़े पेश करो पंचायत में, लेकिन कोर्ट में कागज़ सब बता देगा पैसे के दम पर तुम बाप बेटे पंचायत ख़रीद सकते हो पर कचहरी नहीं।"


मैंने हिम्मत के साथ थोड़ी अक्ल लगायी और बोला - "आखिर मेरा बाप बेईमान कैसे ?"

तुरंत उसके द्वारा प्रतिक्रिया आई - "पन्ना लाल की जो ईख की मील एक कोस दूर गाँव से थी वह मेरे परिवार का पुश्तैनी कारोबार था जिसे तुम्हारे बाबूजी ने दबंगई से जबरन हमारे निर्बल बाबूजी से अंगूठा लगवा कर पन्ना लाल के बाबूजी को कुछ पैसे खा कर बेचवा दिया। तो तुम्हारा बाप हुआ न बेईमान।" वैसे इतने भोले भी मत बनो तुम्हारे बाबूजी के क्रियाकलाप पूरा जमात जानता है !


जब तुमने जबरन मेरे खेत को हथिया कर मकई का फसल काट लिया तब भी मैंने खून का घूंट पी लिया था, कुछ नहीं कहा, क्योंकि तुम्हारा बापू जमींदार का पिल्ला बन गया था। पैसे में अंधे थे तुम लोग हम जैसे न जाने कितने किसानों का संपत्ति लूटना तुम लोगों की खानदानी फितरत में हैं।


इतनी बातें बोल कर थोड़ा रुका । और फिर जोर -जोर से चिल्लाने लगा, थोड़ा रोते हुए बोला "मेरी लुगाई ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा जो तुमने पूरे गाँव के सामने उसे गोली मार दी थी ! उसने तो बस ज़मीन छीनने का विरोध किया था, वहीं ज़मीन से उपजाए फ़सल हमारे परिवार की पेट की आग बुझाती थी! तुमने हमारी ज़मीन तो छीन ही ली साथ में दो बच्चों की माँ और मेरे बुढ़ापे का सहारा मेरी लुगाई। "


इतना बोलते वह ग़ुस्से से तमतमाए मेरे तरफ झपटता मारा और मेरे पूरे बदन पर खरोंचे मार दी। वह मेरे मित्र के शरीर में था और मैं उसपर आक्रमण भी नहीं कर सकता था इस डर से की कहीं मेरे मित्र को क्षति न पहुंचे।

मैं कैसे भी अपनी जान बचाने का प्रयत्न करने लगा उसी क्रम में कुश्ती का दो चार दाँव भी हम दोनों के बीच में प्रारंभ हो गया कभी वह मेरे ऊपर तो कभी मैं उसके ऊपर,उठापटक का दौर ऐसे ही चलता रहा और मैं कैसे भी उसे पास के देवी माँ के मंदिर में ले जाने का प्रयास कर रहा था ताकि श्री भगवान मिश्र पंडित जी का शरण ले सकूं। जिससे वह आगे का उपाय करें वैसे भी मेरी धड़कन काफी तेज़ चल रही थी । हर एक पल ऐसा लग रहा था कि अब मैं इस दुनिया से विदा ही लेने वाला हूं और मेरे मित्र की शक्ति मुझसे चार गुना बढ़ गई थी।


बारिश उतने ही उफान पर था जहां सूखी ज़मीन पर चार कदम भाग पाता इस बारिश के चलते एक कदम ही जैसे - तैसे भाग पा रहा था। और मेरा पूरा शरीर कीचड़ से सना हुआ तथा खरोचों से भरा हुआ था। उसके प्रहार प्राण घातक थे। बस ईश्वर का स्मरण कर और खुद ढाढस बांधे मैं इस उम्मीद के साथ भाग रहा था की यह मेरी मिल्खा सिंह की जैसी आखिरी रेस हो।

मैं जैसे - तैसे ईश्वर की दया से मंदिर के करीब पहुंचा प्रायः मिश्रा बाबा मंदिर के बरामदे में ही पूजा-पाठ किया करते थे। मिश्रा बाबा से हमारा अतिरिक्त लगाव भी था क्योंकि वह हमारे संस्कृत के प्रारंभिक गुरूदेव भी रहे थे मुझे कुछ ठीक से याद तो नहीं परंतु इतना अवश्य याद है कि इतनी तेज़ बारिश में वह प्रकृति से शांत होने का निवेदन कर रहे थे।

मंदिर से अभी लगभग हम तीन सौ मीटर दूरी पर थे बारिश की गर्जन में मेरा आवाज़ कहीं गौण हो गया था, मैं चिल्लाये जा रहा था लेकिन कहीं से कोई आशा का उम्मीद नजर नहीं आ रहा था और मेरे दोस्त जोकि अभी कोई और था वह किसी कसाई की तरह मेरे प्राणों के पीछे पड़ा था।


मैं चिल्लाते - चिल्लाते अधमरा सा हो गया था, मेरे आँखों के पास अंधेरा छा गया और उसका खूनी चेहरा और अजीब सी डरावनी आँखों को देखते मैं खुद को मौत के दरवाज़े पर बेहोशी की हालत में चला गया।


जब मेरी आँखें खुली तो मैं अपने घर के बिस्तर पर माँ की गोद मैं खुद को पाया और मेरे सामने पंडित जी और मेरा मित्र था अपने मित्र को देखकर मैं कस के चीखा और अपनी माँ में लिपट गया।

माँ के थोड़े देर तक संतावना देने के बाद मैं शांत हुआ। लेकिन हृदय में वह भयानक शाम, जीवन भर के लिए , कुछ प्रश्न, कुछ डर, कुछ अप्रिय चीज मेरे मन में हमेशा के लिए स्थापित हो गए।

मैं थोड़ा हिम्मत से रोते हुए पंडित जी से बोला - "मैं बच कैसे गया ?"


उनका उत्तर था - "बला टल गई तुम्हारा मित्र अब ठीक है, माँ काली ने तुम्हारी रक्षा की!!"


मेरा मित्र मेरी ओर बढ़ा और बोला - "दोस्त जान बचाने के लिए शुक्रिया ! मुझे नहीं पता , मुझे क्या हुआ था। लेकिन, यह जीवन तुम्हारा कृतज्ञ रहेगा !" और वह मुझ में लिपट कर पूरे आनंदित मुद्रा में भावनाओं में बह गया ....... और मैंने भी पूरे प्रेम के साथ मित्र से गले मिला।


लेकिन बहुत से प्रश्न के साथ !

आखिर वह कौन था ?


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