ठूंठ
ठूंठ


घर से कुछ ही दूरी पर सड़क के किनारे पर स्थित ठूंठ को आते-जाते मैं रोज ही देखता था। पहले ये हरा-भरा आम का पेड़ था। सरकारी ज़मीन पर था इसलिए इस पेड़ पर किसी एक का मालिकाना अधिकार नहीं था। मौसम आने पर जब इसमें फल लगते थे तब आसपास के बच्चों को कभी पत्थर मारकर, कभी वृक्ष पर चढ़कर, तो कभी लग्गी की सहायता से कैरी तोड़ते देखता था। इस तरह का काम अक्सर अल्हड़ किशोरियों और युवतियों को भी करते देखा है। वृक्ष सभी तरह के अत्याचार सहकर भी फल प्रदान करता रहता था। मगर आज ये ठूंठ हो चुका है। आज इसका कोई पुरसाहाल नहीं है।
केशव बाबू एक आश्रम में अपने जीवन के आखिरी दिन गुजार रहे थे। ना...ना... अभी उनकी आखिरी घड़ियां नहीं आयीं थी। बस जीवन की आपाधापी से दूर मन की शांति प्राप्त करने की चेष्टा में इस आश्रम तक पहुंचे और यहीं के होकर रह गए। केशव बाबू ने अपने जीवन में जो मांगा वो पाया, जो चाहा वो किया। ईश्वर ने भी अपनी सारी नेमतें उन्हें देने में कोई कोर-कसर न उठा रखी। सब कुछ दिया उन्हें। धन तो था ही। पत्नी भी मनोनुकूल थी। एक बेटा एक बेटी। वो भी आज्ञाकारी। कभी किसी ने उन्हें शिकायत का मौका नहीं दिया। फिर भी उनका मन अशांत था। क्यों? शायद इसीलिए कि उन्होंने अपने जीवन में कोई संघर्ष नहीं देखा था। और यदि जीवन में संघर्ष न हों तो सुख महत्वहीन हो जाता है। रात नहीं तो दिन व्यर्थ। फांके नहीं तो छप्पन भोग व्यर्थ। गरीबी नहीं तो अमीरी व्यर्थ। आज नहीं तो कल व्यर्थ। कहने का तात्पर्य यह कि केशव बाबू ने जिस ऐश्वर्य में आँखें खोली थीं उससे वे उकता गये थे। मन की इसी उलझन से पार पाने के लिए ही उन्होंने स्वामी अच्युतानंद सरस्वती के चरण थाम लिये थे। स्वामी अच्युतानंद ने भी उन पर अपनी कृपा बरसाने में कोई कोर-कसर न छोड़ी। और केशव बाबू स्वामी अच्युतानंद के आश्रम में आ गए।
केशव बाबू के दादा जी ने एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी। जो उनके पिता के जन्म के समय तक अच्छा खासा चलने लगा था। उनके पिता कुल छह भाई बहन थे। सबसे बड़े वे स्वयं, उनके बाद उनकी दो बहने, फिर एक भाई, फिर पुनः दो बहने। उनके दादा जी ने सभी का विवाह इसी प्रेस की कमाई से किया था। दादा के बाद ये प्रेस केशव बाबू के पिता के हाथों में आयी। जिसे उन्होंने अपने जीवन काल में आसमान की ऊँचाइयों तक पहुंचा दिया। जो प्रिंटिंग प्रेस केशव बाबू के दादा जी ने एक थ्रेडिल मशीन से शुरू किया था वो केशव बाबू के पिता के समय तक दो बड़ी आफसेट मशीनों तक पहुंच गई। उस समय उनके प्रेस में छोटे-बड़े कुल मिलाकर ६७ लोग काम करते थे। पिता के बाद प्रेस केशव बाबू के हाथ आती। इन्होंने इसका और भी विस्तार किया। एक मशीन और बढ़ाई और साथ ही प्रकाशन का भी काम शुरू कर दिया। अब प्रेस का काम इनका बेटा देखता है और इनके प्रेस और प्रकाशन केन्द्र में कुल मिलाकर २७२ कर्मचारी काम करते हैं।
केशव बाबू के पिता शुद्ध व्यापारी थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन धनोपार्जन एवं व्यापार विस्तार में ही लगा दिया। धन को दांतों से पकड़ना उनका स्वभाव था। उनके उलट केशव बाबू उदार प्रकृति के व्यक्ति थे। धनोपार्जन के साथ ही दान-धर्म एवं समाज सेवा में भी विश्वास रखते थे। यही कारण था कि केशव बाबू ने व्यापार विस्तार तो किया, साथ ही प्रतिष्ठा भी बहुत कमाई। परंतु गृहस्थ आश्रम में रहने के दौरान ही उनका मन दुनियादारी से उखड़ने लगा था। बेटे को व्यापार का पूरा प्रशिक्षण एवं बेटी का विवाह निपटाने के पश्चात अपनी पत्नी को अपनी मनोदशा से परिचित कराकर स्वामी अच्युतानंद की शरण में आ गए।
केशव बाबू ने अपने जीवन में कितनी भलाई का काम किया इसका उन्होंने कभी हिसाब नहीं रखा। कितनी गरीब कन्याओं का विवाह करवाया, कितने बेरोजगार युवकों को रोजगार पर लगाया, कितने किसानों के छोटे-मोटे कर्जे चुकाये, कितने रोगियों का उपचार कराया, केशव बाबू को स्वयं ही स्मरण नहीं था। हिसाब रखा नहीं, प्रतिकार मांगा नहीं। उन्होंने कभी भी लक्ष्मीपति बनने की चेष्टा नहीं की। सदैव स्वयं को लक्ष्मीसुत ही समझा। लक्ष्मी भी सदैव इनका पुत्रवत् पालन करती रही। लक्ष्मी उन्हें जो देतीं उसे वे अमानत समझ कर ग्रहण करते और अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा अंश समाज के कल्याण पर व्यय कर देते। उन्होंने एक ट्रस्ट का निर्माण कर दिया था। जो उनके द्वारा दिये गये धन से स्कूल-कॉलेज, अस्पताल बनवाता और उसके पूरे व्यय की व्यवस्था करता। उन्होंने स्वयं को अतिरिक्त व्यवस्थाओं के उत्तरदायित्वों से मुक्त कर लिया था। इस तरह वे नयी योजनाएं बनाते, धन की व्यवस्था करते और उनका ट्रस्ट उन योजनाओं को साकार करता।
उस शाम अचानक जोर की आंधी आयी। दूसरे दिन देखा- सड़क किनारे का ठूंठ उखड़ कर गिर पड़ा था। ठूंठ के गिरने से कुछ समय के लिए यातायात बाधित हुआ। परंतु दोपहर होते-होते सरकारी अधिकारियों ने उसे किसी के हाथों बेच दिया। शाम को जब मैं घर वापस लौट रहा था तब देखा- खरीदने वाले ने उस ठूंठ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे। काफी कुछ हिस्सा ट्रक में भरा जा चुका था। शेष भी भरा जा रहा था। खरीदने वाला शायद इससे फर्नीचर बनाये। या शायद भवन निर्माण में उपयोग करे। या शायद कुछ और।
उसी शाम केशव बाबू के निधन की सूचना आ गई। उन्हें ह्रदयाघात हुआ था। जाते-जाते भी उन्होंने अपनी सम्पत्ति का एक-चौथाई अंश समाज के कल्याणार्थ दान कर दिया था।
सोचता हूं कि उस ठूंठ और केशव बाबू के मध्य क्या संबंध हो सकता है। ठूंठ जब तक समर्थ रहा लोगों को अपना फल, पत्तियां, समिधा और छाया प्रदान करता रहा और जब असमर्थ हुआ तब भी लोगों का कल्याण कर गया। यही केशव बाबू ने किया। पता नहीं केशव बाबू ने इससे प्रेरणा पायी थी या इसने केशव बाबू से।