❝ ठोकरों से लड़ती ज़िंदगी ❞ ✍🏻 लेखक – सोनू गुप्ता
❝ ठोकरों से लड़ती ज़िंदगी ❞ ✍🏻 लेखक – सोनू गुप्ता
कहानी का टाइटल:
"ठोकरों से लड़ती ज़िंदगी"
लेखक: सोनू गुप्ता
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नमस्कार दोस्तों,
मैं हूं सोनू गुप्ता, और आज मैं लेकर आया हूं एक ऐसी कहानी, जो आपके दिल को छू जाएगी। एक ऐसी सच्ची लड़ाई की कहानी, जो ना सिर्फ हिम्मत देती है बल्कि सोचने पर मजबूर भी कर देती है। ये कहानी है एक ऐसी बेटी की, जो दोनों हाथ और दोनों पैरों से विकलांग पैदा हुई, लेकिन उसके हौंसले पूरे गांव से बड़े थे। तो आइए शुरू करते हैं इस दिल को छू जाने वाली कहानी को, बिल्कुल देसी अंदाज में।
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भाग – 1: जनम से जवानी तक की ठोकरों भरी राह
गांव का नाम था मधुपुर। गिनती के कुछ घर, दो पक्की गलियां और बाकी सब कच्ची पगडंडियां। खेत-खलिहान, मवेशियों की रें-रें, और लोगों की सुबह की चहल-पहल से ये गांव हर दिन जागता था।
इसी गांव के एक गरीब परिवार में जनम ली लाली। जनम का दिन भी अजीब था। बारिश हो रही थी, कच्ची छत टपक रही थी, और श्यामा दर्द से कराह रही थी। गांव की बूढ़ी दाई, गंगा दाई, ने जनम कराया। लेकिन जैसे ही बच्ची को गोदी में लिया, उसके चेहरे का रंग उतर गया।
उसने बच्ची को ध्यान से देखा, और धीरे से बोली –
"हे राम... ई का हो गया... बच्ची के हाथ गोड़ तो एको हिले नहीं रहे... बहू, लगता है भगवान ने बहुत बड़ी परीक्षा ली है तुझसे।"
श्यामा ने कांपते हाथों से अपनी बेटी को गोद में लिया। दिल बैठ गया, पर फिर भी उसकी ममता जागी। उसने अपनी साड़ी के पल्लू से बच्ची के चेहरे को साफ किया और धीरे से मुस्कराई –
"जैसी है, मेरी है। भगवान की मर्जी से आई है तो मेरी जिम्मेदारी भी बनती है। इसका नाम लाली रखूंगी... मेरी लाल सी रौनक।"
लेकिन गांव वालों के लिए ये कोई रौनक नहीं थी। जैसे ही खबर फैली, लोगों की ज़ुबान चल पड़ी।
"रघुवीर के घर लूली बिटिया पैदा हुई है!"
"अरे राम-राम! कैसी कुटिल किस्मत लेके आई है लड़की... दोनों हाथ-पैर से लाचार!"
"अब तो श्यामा का जीना हराम हो जाएगा..."
कुछ औरतें घर आकर बोलीं –
"बहू, तूने क्या पाप किया था जो भगवान ने ऐसा किया?"
"तू तो इस बच्ची को उठाने के लायक भी नहीं रहेगी, ता उम्र बोझ बनी रहेगी।"
और उधर रघुवीर, लाली का बाप, हर दिन और चुपचाप होता गया। उसे बेटी के हाल से ज्यादा अपनी 'बदनामी' की फिक्र सताने लगी। शराब की लत पहले से थी, अब और बढ़ गई।
एक रात, नशे में धुत होकर घर आया, और गालियां बकते हुए बोला –
"ऐसी बिटिया का क्या करूंगा मैं? लोग हंसते हैं मुझ पर... कहते हैं नालायक बाप हूं। तू ही पाल इसे, मैं तो जा रहा हूं हमेशा के लिए!"
श्यामा ने कांपते हुए अपनी लाली को सीने से चिपका लिया। आंखों से आंसू थम नहीं रहे थे, मगर ज़ुबान से सिर्फ एक ही बात निकली –
"जा रघुवीर... पर एक बात याद रखना, जो मर्द अपनी संतान को छोड़ दे, वो मर्द नहीं होता।"
रघुवीर चला गया... और कभी लौट के नहीं आया।
अब घर में सिर्फ श्यामा थी और उसकी लाली। ज़िंदगी आसान नहीं थी। खेतों में मजदूरी करके पेट पालती, और लाली को पीठ पर बांधकर हर जगह ले जाती। बारिश हो, धूप हो, भूख हो या बीमारी – मां कभी पीछे नहीं हटी।
लाली जमीन पर घिसट कर चलती थी। कभी दीवारों का सहारा लेकर, कभी मां के हाथों की ताकत से। कई बार गिरती, तो घुटनों से खून बहता। गांव के बच्चे उसे चिढ़ाते –
"अरे लंगड़ी! चल के दिखा ना!"
"कुएं में छलांग लगा दे, तेरा तो कोई काम ही नहीं इस दुनिया में!"
एक बार तो एक औरत ने श्यामा से यहां तक कह दिया –
"बहू, बच्ची को किसी मंदिर के बाहर छोड़ दे... कोई ना कोई भगवान का बंदा उठा ही लेगा।"
श्यामा ने गुस्से में पलटकर जवाब दिया –
"भगवान ने मुझे ही मां बनाया है, और जब तक मेरी सांस है, मेरी लाली किसी मंदिर के बाहर नहीं जाएगी।"
समय बीतता गया। लाली ने घुटनों से चलना छोड़, किताबों में मन लगाना शुरू किया। मां ने किसी तरह गांव के स्कूल में नाम लिखवाया। लेकिन स्कूल दूर था। श्यामा उसे पीठ पर बांध कर स्कूल लेकर जाती थी। खेतों के बीच से, कीचड़ से भरी गलियों से, धूप और बरसात में भी कभी नहीं रुकी।
स्कूल में भी पहले दिन मास्टर जी ने आंखें तरेरीं –
"बहनजी, ई पढ़ाई-लिखाई तो ऐसे बच्चों के बस की बात नहीं... देखो, मत बढ़ाओ इसकी उम्मीदें बेकार में।"
श्यामा बोली –
"मास्साब, उम्मीदों पर ही तो ये ज़िंदगी टिक रही है। अगर आप चाहें तो एक बार कोशिश करके देख लीजिए।"
लाली ने मुंह से पेन पकड़ना सीखा। धीरे-धीरे अक्षर बनने लगे। लोग हैरान थे –
"ये कैसे लिख रही है मुंह से?"
"ई लड़की तो कमाल कर रही है!"
वक्त के साथ लाली गांव की पहचान बन गई। लेकिन ताने तब भी नहीं रुके। जब वह बड़ी हुई, जवान हुई, तो रिश्तेदारों की जुबान फिर चलने लगी –
"ऐसी लड़की का कौन करेगा ब्याह?"
"बुढ़ापे में भी मां-बेटी ही एक-दूजे का सहारा बनेंगी।"
"लड़की को क्यों पढ़ा रही हो? कोई नौकरी थोड़े ही मिलनी है इसे!"
लेकिन लाली की आंखों में सपना था – एक दिन अपने पैरों पर खड़ा होने का, चाहे उसके पास पैर थे या नहीं। और श्यामा हर दिन उसका हौसला बनकर खड़ी थी।
उसने अपने हालातों को कभी कमजोरी नहीं बनने दिया। उसे अब आदत हो गई थी – लोगों की निगाहें झेलने की, उनके शब्दों के तीर सहने की, और हर रोज़ एक नई ठोकर खाने के बाद फिर मुस्कुराकर उठने की।
लाली की कहानी वहीं खत्म नहीं होती, असली मोड़ तो अभी बाकी है...
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धूप और धूल से अटे पड़े गांव की वो दोपहर लाली के लिए किसी और दिन से अलग नहीं थी। वही खटारा सी चारपाई, वही मां की हथेली की बनी मोटी रोटी, और वही उम्मीद की धुंधली लौ – जो हर दिन जलती भी थी और बुझती भी।
अब लाली की उम्र बीस के करीब थी। पढ़ाई उसने किसी तरह से इंटर तक पूरी कर ली थी। मुंह से पेन पकड़ कर उसने बोर्ड परीक्षा पास कर ली थी – पूरे जिले में उसकी चर्चा हुई थी, अखबारों में भी एक बार उसकी फोटो छपी थी। लेकिन फिर?
फिर वही गरीबी, वही बेबसी।
उस दिन भी लाली खिड़की से बाहर देख रही थी। सामने खेत में मजूरी कर रही मां श्यामा पसीने से तरबतर थी। कभी फावड़ा चलाती, कभी बीज बोती। उम्र ढल चुकी थी लेकिन हिम्मत अब भी कायम थी।
लाली ने धीरे से आंखें बंद कीं। उसने कितनी जगह आवेदन दिया था – कॉल सेंटर, सरकारी स्कॉलरशिप, NGO, सब जगह। पर हर बार वही जवाब आता – "हमारे यहां विशेष सुविधा नहीं है।" "इस प्रोफाइल में तो फिजिकल फिटनेस ज़रूरी है।" "आपको हम नहीं रख सकते, बहुत सॉरी।"
लाली का मन करता था चिल्ला पड़े – "क्या सिर्फ दो हाथ-पैर से ही इंसान काबिल होता है?" "क्या मेहनत की कोई कीमत नहीं?"
एक बार तो उसने गांव के सरपंच से भी कहा – "काका, आप कुछ तो करिए, गांव के लड़कों के लिए तो आपने तीन काम दिलवा दिए, मेरी भी कोशिश करवा दीजिए।"
सरपंच ने जैसे मज़ाक उड़ाया – "बिटिया, तेरे जज्बे की तो दाद देता हूं, लेकिन देख, दुनिया बहुत बेरहम है। तेरे लिए नौकरी खोजना... मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।"
उस रात श्यामा ने लाली को खाना खिलाते हुए देखा कि उसकी आंखें नम थीं। पूछा – "क्या हुआ बिटिया?"
लाली बोली – "मां, लगता है मेरी मेहनत किसी को दिखाई नहीं देती... लगता है सब बेकार गया।"
श्यामा ने उसे गले से लगा लिया। बोली – "हर मेहनत का फल मिलता है बेटा, बस कभी-कभी वक़्त लगता है... और तुझ जैसी हिम्मती बेटी को तो भगवान खुद रास्ता दिखाएंगे।"
कुछ दिन बाद की बात है। गांव के बाहर जो पक्की सड़क थी, वहां एक गाड़ी खराब हो गई थी। पूरा गांव कौतूहल में था – शहर जैसी सफेद SUV, और उसमें से उतरे कुछ लोग – साफ कपड़े, चश्मा लगाए, और मोबाइल पर लगातार बात करते हुए।
लाली उस दिन स्कूल से लौट रही थी। मां की पीठ पर नहीं, अब व्हीलचेयर थी – जो एक स्थानीय NGO ने उसे गिफ्ट की थी। जैसे ही वह सड़क के पास पहुंची, देखा कि एक व्यक्ति गाड़ी की बोनट खोल कर देख रहा है और दूसरा ड्राइवर से बहस कर रहा है।
"क्या हुआ?" लाली ने हिम्मत करके पूछ ही लिया।
उनमें से एक, उम्र करीब चालीस के आसपास, शायद शहर से आया था, पलटकर उसकी ओर देखा। पहले तो चौंका, फिर मुस्कराया।
"गाड़ी का रेडिएटर गर्म हो गया है... शायद ज़्यादा दूर तक नहीं जा पाएंगे।"
लाली मुस्कराई, बोली – "आप चाहें तो गांव में थोड़ी देर रुक सकते हैं। पानी मिल जाएगा, लोग मदद करेंगे।"
उस आदमी ने ध्यान से उसकी आंखों में देखा। लाली की आंखों में न लाचारी थी, न डर। बस अपनापन और एक अद्भुत आत्मविश्वास।
"तुम्हारा नाम?"
"लाली।"
"तुम पढ़ती हो?"
"जी, इंटर तक किया है। और कोशिश कर रही हूं कुछ काम मिल जाए।"
"कमाल है..." उसने हल्की सी सांस ली, "मुंह से पेन पकड़ कर, ना?"
लाली चौंकी – "आपको कैसे पता?"
"मैं वही NGO चलाता हूं जिसने तुम्हें व्हीलचेयर दी थी। तुम्हारी खबर जब अखबार में छपी थी, तो मैंने ही टीम भेजी थी।"
लाली की आंखों में पहली बार एक उम्मीद की चमक दिखी, जैसे किसी अंधेरी सुरंग के अंत में अचानक रौशनी दिखे।
वो आदमी – नाम था विकास। पेशे से मोटिवेशनल स्पीकर और सामाजिक कार्यकर्ता। गांवों में जाकर ऐसे युवाओं को खोजता, जो हालात से लड़ रहे हों। उसने कहा – "तुम अगर चाहो, तो हमारे शहर में एक कोर्स कर सकती हो – डिजिटल स्किल्स का। लैपटॉप से काम सीखो, कंटेंट राइटिंग, डेटा एंट्री, और बहुत कुछ।"
लाली ने पूछा – "पर मैं तो चल फिर नहीं सकती..."
विकास ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया – "चलने के लिए हिम्मत चाहिए, पैरों की नहीं। और वो तुम्हारे पास है।"
विकास ने अगले दिन अपनी गाड़ी में जगह बनाई, और गांव से लाली और उसकी मां को लेकर शहर ले गया। वो पहली बार था जब लाली ने गांव की सीमा पार की – बिना डर, बिना शर्म, सिर्फ एक उम्मीद के साथ।
शहर में नया माहौल था। लिफ्ट, कंप्यूटर, बड़े-बड़े लोग, हेडफोन, लैपटॉप। शुरू में लाली डर गई, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, उसने सब सीख लिया। उसकी उंगलियां तो नहीं थीं, पर उसकी जुबान और दिमाग ने मिलकर कीबोर्ड पर कमाल कर दिया।
तीन महीने बाद, वो एक वेबसाइट के लिए आर्टिकल्स लिखने लगी। हर महीने मामूली ही सही, पर अपनी मेहनत की कमाई आने लगी।
श्यामा की आंखें उस दिन भर आईं जब लाली ने पहली बार उसे सौ रुपए का नोट पकड़ा कर कहा – "मां, आज से मैं भी कमाने लगी हूं।"
मां ने वो नोट अपने आंचल में रखा और लाली को गले से लगाकर बोली – "देखा, मैंने कहा था ना... भगवान देर करता है, अंधेर नहीं।"
लेकिन ये तो बस शुरुआत थी। लाली के अंदर अब कुछ और भी पल रहा था – खुद को साबित करने की आग, और उन तमाम लोगों को जवाब देने की ज़िद, जिन्होंने कभी उसे लूली-लंगड़ी कहा था...
गांव से शहर की उस यात्रा को लाली ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। जहां पहले उसके दिन दीवारों से टकराते बीतते थे, अब वो एक स्क्रीन के सामने बैठी अपने शब्दों से दुनिया से बात कर रही थी।
वो कोर्स पूरा हो चुका था। वेबसाइटों के लिए लेख लिखना अब उसका रोज़ का काम बन चुका था। धीरे-धीरे नाम भी बनने लगा। विकास भैया, जैसे वो अब उन्हें पुकारती थी, उसका हर कदम पर साथ देते। उन्होंने न केवल एक नई दुनिया से लाली की पहचान कराई, बल्कि खुद पर विश्वास करना सिखाया।
मगर जीवन तो वही है जो नया मोड़ लाता है — वो मोड़, जिससे इंसान या तो टूट जाता है, या बन जाता है।
एक दिन लाली को एक नया प्रोजेक्ट मिला — एक वेबसाइट की कहानी सीरीज़ लिखनी थी। उस वेबसाइट का संपादक था — अर्णव। उम्र में कुछ ही साल बड़ा, पढ़ा-लिखा, समझदार और थोड़ी अलग सोच रखने वाला। पहली बार जब ज़ूम मीटिंग पर अर्णव से बात हुई, उसकी आवाज़ में अपनापन था। उसने लाली की फाइल खोलकर कहा —
“आपका लिखा बहुत गहराई वाला है, लेकिन सबसे ख़ास बात ये है कि आप शब्दों में वो देख पाती हैं जो अक्सर हम आंखों से नहीं देख पाते।”
लाली थोड़ा सकपका गई — इतनी तारीफ सुनना उसकी आदत नहीं थी।
“थ…थैंक यू, सर,” उसने कहा।
“सर नहीं, अर्णव। हम एक ही टीम के लोग हैं।”
शुरुआत प्रोफेशनल थी, लेकिन जैसे-जैसे काम बढ़ा, बातें भी बढ़ने लगीं। पहले दिन का ‘हैलो’ अब देर रात की ‘कैसे हो’ में बदल गया था। अर्णव उसे कभी उसकी विकलांगता से नहीं आंकता, न ही कभी दया दिखाता। उसके लिए लाली बस एक शानदार लेखिका थी, जो अपने शब्दों से दुनिया को बदल सकती थी।
एक दिन बातों ही बातों में अर्णव ने पूछा —
“तुम्हारे गांव में चांद कितना बड़ा दिखता है?”
लाली मुस्कराई, बोली —
“बहुत बड़ा... और अक्सर लगता है जैसे कोई तो है ऊपर, जो बस देख रहा है... कभी हंसता है, कभी बस चुपचाप निहारता है।”
“और अगर चांद ही तुम्हें निहार रहा हो?”
“तो?”
“तो उसका नाम अर्णव हो सकता है?”
एक पल को लाली चुप रह गई। जैसे दिल की धड़कन रुकी हो। फिर बोली —
“मैं वो लड़की नहीं हूं अर्णव, जो सिर्फ बातें सुनकर बहक जाए। मेरी जिंदगी की हकीकत बहुत कड़वी रही है।”
अर्णव ने कुछ नहीं कहा। लेकिन अगले दिन उसने लाली के नाम एक ईमेल भेजा — जिसमें सिर्फ एक पंक्ति थी:
“मैं तुम्हारी हकीकत का हिस्सा बनना चाहता हूं, न कि उसे बदलने वाला कोई सपना।”
लाली के लिए ये नई बात थी। उसने कभी खुद को प्रेम के काबिल नहीं समझा था। उसे लगा था कि उसकी ‘शारीरिक स्थिति’ हमेशा दीवार बनकर खड़ी रहेगी। मगर अर्णव ने वो दीवार नहीं तोड़ी — उसने उस पर खिड़की बनाई, जिससे हवा, रौशनी और भरोसा आ सके।
पर समाज चुप थोड़े ही रहता है।
जब गांव में खबर पहुंची कि शहर में किसी लड़के से लाली की ‘दोस्ती’ हो गई है, तो फिर से वही ताने शुरू हो गए:
“देखो जी, अब तो लूली बिटिया को लड़कों से भी चक्कर चलाने की सूझ गई है।”
“शर्म नहीं आती? पहले ही बोझ है मां पर, अब और कलंक लगवा रही है।”
यहां तक कि कुछ रिश्तेदारों ने फोन कर के श्यामा को ताना दिया —
“बहन, अब लड़की को समझा ले। क्या करेगी इस मोह-माया से? कोई शादी तो करेगा नहीं इससे। बाद में रोएगी।”
श्यामा चुप रही। लेकिन उस रात उसने लाली से पूछा —
“बेटा, सच-सच बता, तू उससे प्यार करती है?”
लाली की आंखों से आंसू निकल आए, बोली —
“मां, पता नहीं ये प्यार है या नहीं, लेकिन जब वो बात करता है, तो मैं खुद को कमजोर नहीं, मजबूत महसूस करती हूं। और जब वो कहता है कि मैं दुनिया बदल सकती हूं, तो मुझे खुद पर भरोसा होता है।”
श्यामा ने सिर पर हाथ फेरा और कहा —
“तो फिर सुन, अगर तेरी मां तुझ पर भरोसा करती है, तो दुनिया के किसी भी रिश्तेदार से डरने की जरूरत नहीं। बस ध्यान रख — वो लड़का तेरा सम्मान करे, बाकी सब ठीक हो जाएगा।”
कुछ हफ्ते बाद अर्णव गांव आया। पहली बार।
पुरानी चारपाई पर बैठा, श्यामा के हाथ की चाय पी, और बोला —
“मौसी, मैं जानता हूं कि आपकी बेटी खास है। और मैं कोई दया नहीं कर रहा — मैं उसके साथ खड़ा हूं, क्योंकि वो मुझसे कहीं ज्यादा मजबूत है।”
श्यामा ने बस एक बात कही —
“बेटा, मेरी लाली को कोई सहारा नहीं चाहिए, बस एक साथी चाहिए। अगर तू बन सके, तो इससे बड़ी बात क्या होगी।”
समय बीता। शहर लौटने के बाद अर्णव ने अपने घरवालों से बात की। शुरू में विरोध हुआ — खूब हुआ। “अपाहिज लड़की से शादी? क्या कहेंगे लोग?” “कोई और नहीं मिली?” “तुम्हारी ज़िंदगी खराब हो जाएगी!”
लेकिन अर्णव डटा रहा। उसने कहा —
“अगर मैं इस डर से पीछे हट गया, तो मैं भी उन लोगों जैसा हो जाऊंगा, जिन्होंने लाली को सिर्फ बोझ समझा।”
आखिरकार, एक दिन, वीडियो कॉल पर अर्णव ने सबके सामने लाली से कहा —
“क्या तुम ज़िंदगी भर मेरी ताक़त बनकर मेरे साथ चलोगी — चाहे दुनिया कुछ भी कहे?”
लाली ने मुस्कराकर सिर्फ इतना कहा —
“मैं चल नहीं सकती, पर तेरे साथ खड़े रहने का वादा ज़रूर करती हूं।”
उस दिन गांव में फिर हलचल मची। लेकिन इस बार खबर थी —
“लाली की सगाई हो गई एक शहर के लड़के से!”
लोग हैरान भी थे, खुश भी। जिन्होंने ताने मारे थे, अब वही मिठाई बांटते घूम रहे थे।
कहते हैं, सच्चा प्यार वो नहीं जो परफेक्ट शरीर देखे, बल्कि वो जो आत्मा की खूबसूरती को पहचाने। अर्णव ने लाली को उसी रूप में अपनाया, जैसे वो है। और लाली ने उसे वो जीवन साथी दिया, जो सिर्फ हाथ पकड़ने नहीं, दिल से निभाने आया था।
अब लाली न सिर्फ एक लेखिका है, बल्कि देशभर में दिव्यांग महिलाओं के लिए एक प्रेरणा बन चुकी है। वो सेमिनारों में जाती है, लड़कियों को पढ़ने और आत्मनिर्भर बनने की सीख देती है।
उसके जीवन की सबसे बड़ी ठोकर, अब उसकी सबसे बड़ी ताकत बन चुकी है।
और यही असली जीत होती है — जब ज़िंदगी चाहे जितनी भी ठोकरें दे, इंसान मुस्कुरा कर खड़ा हो जाए... और कहे —
“मैं टूटी नहीं, मैं तराशी गई हूं।”
शहर में एक कॉन्फ्रेंस थी — दिव्यांग सशक्तिकरण पर, और इस बार लाली को मुख्य वक्ता के रूप में बुलाया गया था। तीन साल बीत चुके थे जब उसने पहली बार व्हीलचेयर पर बैठकर कीबोर्ड छुआ था, और आज वो देश भर की यूनिवर्सिटीज़, संस्थानों और मंचों पर बुलाए जाने लगी थी।
उसकी और अर्णव की सगाई भी अब एक साल पुरानी बात हो चुकी थी। प्यार अब गहराई में उतर चुका था — विश्वास, समर्पण और समानता के रंगों से रंगा हुआ।
लेकिन जैसे-जैसे अर्णव का नाम भी सामने आने लगा — “लाली का मंगेतर, डिजिटल मीडिया कंपनी का एडिटर” — वैसे-वैसे लोगों की नज़रें भी बदलने लगीं। कुछ चुपचाप सराहते, तो कुछ दिल में जलते।
कॉन्फ्रेंस के बाद जब लाली मंच से उतरी, एक लड़की पीछे आई — ऊँची एड़ी की सैंडल, लाल लिपस्टिक, फॉर्मल ड्रेस में। बोली, “Hi! I’m Niharika. I follow your fiancé’s blog religiously. He’s brilliant.”
लाली मुस्कराई, “Thank you.”
“Lucky you!” — नीहारिका ने मुस्कराते हुए आंख मारी — “ऐसे लड़के अब मिलते नहीं। Handsome, intelligent and sensitive.”
लाली ने बस नज़रें नीची कर लीं। ये कोई पहली बार नहीं था। पहले भी कई लड़कियां मीटिंग्स, कॉल्स, मेल्स में अर्णव की तारीफें करते हुए पास आ चुकी थीं। कोई subtly कहती, “तुम्हारा मंगेतर तो कविताओं में जादू करता है।” कोई बेबाक होती — “अगर मैं तुम्हारी जगह होती, तो उसे कभी छोड़ती नहीं।”
कई बार तो उसकी दोस्तें तक पूछतीं — “सच में? इतने अच्छे लड़के ने तुमसे प्यार किया? औरों को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं होता।”
एक दिन, लाली और अर्णव कैफे में बैठे थे। सामने से एक पुरानी जानकार आई — तन्वी, जो अर्णव की कॉलेज फ्रेंड थी। बहुत सुंदर, बहुत हाजिरजवाब। उसने अर्णव को गले लगाया और बोली —
“Still the same charming guy!”
फिर लाली की ओर देख कर थोड़ा झुकी और मुस्कराकर कहा —
“Hi... सुना है अब तुम मंगेतर हो... impressive catch.”
अर्णव मुस्कराया, लेकिन लाली के चेहरे का रंग हल्का पड़ गया।
उस रात, लाली ने अर्णव से पूछा — “अगर कभी किसी और ने तुम्हें मुझसे बेहतर लगने की कोशिश की... तो तुम क्या करोगे?”
अर्णव ने चाय का प्याला रखा, उसकी आंखों में देखा, और कहा — “जब मैंने तुम्हें चुना था, तब मैंने तुम्हारी कमजोरी नहीं देखी थी, तुम्हारी ताक़त देखी थी। जब मैं तुम्हारे साथ खड़ा होता हूं, तो खुद को छोटा नहीं, बड़ा महसूस करता हूं। और अगर कोई और मेरी ओर देखती है, तो मुझे उस पर तरस आता है — क्योंकि वो तुम्हारी गहराई को नहीं समझ सकती।”
पर समाज शांत कहां होता है।
शादी की तारीख करीब आई, तो कुछ रिश्तेदारों और परिचितों ने अर्णव के कान भरने शुरू किए —
“देख, शादी के बाद लोग क्या कहेंगे?” “तेरा करियर बर्बाद हो जाएगा।” “इतनी स्मार्ट लड़कियां हैं तुझमें interested, तू क्या साबित करना चाहता है ये शादी करके?” “लाली को लोग कहीं भी साथ देखकर कहेंगे — ये लड़की नहीं, बोझ है।”
यहां तक कि एक दिन उसके ऑफिस में एक क्लाइंट की असिस्टेंट ने सीधा कह दिया — “सच बताऊं? आप जैसे लड़के को किसी model टाइप लड़की के साथ देखना ज्यादा suit करता है।”
अर्णव ने सिर्फ एक बात कही — “मैं शोपीस नहीं, इंसान हूं। और इंसान किसी की soul से प्यार करता है, shell से नहीं।”
शादी से सिर्फ दो हफ्ते पहले, एक बड़ी घटना घटी।
लाली एक इंटरव्यू देने जा रही थी — अपने नए प्रोजेक्ट को प्रमोट करने। स्टेशन पर उसका व्हीलचेयर खराब हो गया और वहां मौजूद एक औरत ने मोबाइल से वीडियो बनाते हुए कहा —
“देखो रे, ये है लड़की जो कहती है वो दुनिया बदल रही है... और खुद चल नहीं सकती।”
वो वीडियो वायरल हो गया। सोशल मीडिया पर बंटवारा सा हो गया — कोई सराहता, कोई तंज कसता।
"इसे कहते हैं sympathy का फायदा उठाना।" "जो आदमी इससे शादी करेगा, उसकी तो जिंदगी ही खत्म।" "शर्म नहीं आती इस लड़की को, लाइमलाइट में आने के लिए सब ड्रामा है।"
कुछ ‘सो-कॉल्ड’ अर्णव के दोस्तोंने मैसेज किया — "भाई, अभी भी टाइम है। सोच ले। तू तो smart है, आगे जा सकता है।"
अर्णव ने वो सारी बातें पढ़ीं। फिर एक पोस्ट लिखी — बहुत सादा, लेकिन ज़बरदस्त।
“मैं लाली से शादी इसलिए नहीं कर रहा कि वो inspirational है। न ही इसलिए कि मुझे किसी trophy की तलाश है। मैं उससे इसलिए शादी कर रहा हूं क्योंकि जब वो मुझे देखती है, तो मैं खुद को बेहतर इंसान बनाना चाहता हूं।
और हां, उसने चलना नहीं सीखा — लेकिन उसने मुझे चलना सिखा दिया, जहां मेरे पैर नहीं, मेरे विचार लड़खड़ाते थे।
जिन लोगों को मेरी पसंद पर शर्म आती है — उन्हें अपनी सोच पर शर्म आनी चाहिए।”
शादी वाले दिन जब बारात आई, कुछ लोगों ने झूठ फैलाया — “लाली की तबीयत खराब है... शायद शादी कैंसिल हो जाए।”
किसी ने तो यहां तक कह दिया — “लड़का कहीं भाग न जाए!”
लेकिन अर्णव, अपनी शेरवानी पहन कर, व्हीलचेयर खुद खींचता हुआ मंडप में पहुंचा। पंडित को रोककर बोला —
“सबसे पहले ये शादी की मुख्य कन्या को लाना मेरा हक़ है। कोई उसे नहीं लाएगा। ये उसका मंच है, और मैं उसका पहला दर्शक।”
और जब सात फेरे पूरे हुए, उसने लाली की ओर देखकर कहा —
“अब जब हम सात जन्मों के बंधन में हैं... तो अगली बार अगर कोई कहे कि तू मुझे नहीं deserve करती — तो जवाब मैं दूंगा, और जोर से दूंगा... ताकि दुनिया सुन सके कि सच्चा प्यार न शक्ल मांगता है, न चाल — बस वो साथ मांगता है।”
शादी की तस्वीरें वायरल हुईं। पर अब जो बातें आईं, वो बदली हुई थीं।
"हिम्मत है इस लड़के में।" "आज असली मर्द देखा।" "लव स्टोरी नहीं, रियल स्टोरी।"
और जो औरतें कभी अर्णव को अपनी ओर खींचने की कोशिश करती थीं, अब खुद कहने लगीं —
"काश हमें भी कोई ऐसा समझ पाता, जैसे अर्णव ने लाली को समझा।"
लेकिन लाली जानती थी — ये सिर्फ प्यार की जीत नहीं थी।
ये उस सोच की हार थी, जो किसी की काबिलियत को उसके शरीर से आंकती है।
और अर्णव जानता था — उसने एक जीवनसाथी नहीं चुना, उसने वो स्त्री चुनी थी जो टूट कर भी खुद को जोड़े रखती है, और दुनिया को भी जोड़ने की ताकत रखती है।
उनकी शादी एक तमाशा नहीं, एक तहरीर बन चुकी थी — जो आने वाली पीढ़ियों को ये बताने के लिए थी कि प्यार, इज्ज़त और बराबरी में कोई शर्त नहीं होती।
बस एक हिम्मत चाहिए होती है — खड़ा होने की, उस सच के लिए... जो लोग छुपाना चाहते हैं।
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लाली आज फिर किताबों से घिरी हुई थी, लेकिन इस बार उसके हाथों में कोई अधूरी कविता नहीं, एक सरकारी दस्तावेज़ था — जो साबित करता था कि देश की शिक्षा नीति में अब दिव्यांग बच्चों के लिए एक विशेष पाठ्यक्रम जोड़ा जाएगा, और उसके लिए सलाहकार पैनल में सबसे पहला नाम था — 'डॉ. लाली वर्मा'।
कभी जिसकी पहचान एक लड़की, एक विकलांग, एक बोझ, एक ताने का पात्र थी — अब वो एक बदलाव बन चुकी थी।
घर में श्यामा सुबह तुलसी को पानी देते हुए मुस्करा रही थीं। बड़ी बुआ पूजा की थाली सजाते हुए पड़ोसन से कह रही थीं — “हमारी लाली अब किताबों में पढ़ाई जाती है। देखो समय क्या रंग लाया। जो कभी बिस्तर से उठ नहीं सकती थी, अब तो संसद तक उसकी आवाज़ जाती है।”
गांव की गलियों में खेलते बच्चे अब “लूली” नहीं, “डॉ. लाली” बोलते थे।
एक दिन सरकारी अफसरों की टीम गांव में आई। गांव के पुराने स्कूल को “लाली वर्मा ज्ञान केंद्र” नाम दिया गया। उद्घाटन में मुख्य अतिथि कोई मंत्री नहीं, खुद लाली थी — और वो भी अपनी वही पुरानी, अब सजाई-सँवरी व्हीलचेयर में, साड़ी में लिपटी, सिर ऊँचा किए हुए।
सभा में एक युवती उठकर खड़ी हुई, उसकी आंखों में आंसू थे — “दीदी, आपने मेरी सोच बदल दी। मैं पहले सोचती थी कि अगर मैं बोल नहीं सकती, तो कोई मुझे पसंद नहीं करेगा। लेकिन अब मैं जानती हूं कि मेरी आवाज़ मेरी आंखों में है, मेरे काम में है।”
सभा में तालियां गूंज उठीं।
वहीं पीछे खड़े एक लड़के ने अपने दोस्त से कहा — “भाई, सच्चा प्यार तो ऐसा होता है। अगर कभी मुझे कोई दिव्यांग लड़की मिले, तो मैं उसे ही चुनूंगा। क्योंकि अब समझ में आया कि जो चल नहीं सकता, वो भी ज़िंदगी में बहुत आगे निकल सकता है।”
और उसके दोस्त ने धीरे से कहा — “और जो साथ चले — उसे अर्णव जैसा होना चाहिए।”
उसी शाम घर में दीया किताब पढ़ रही थी, और लाली खिड़की के पास बैठी थी। अर्णव उसके बालों में तेल लगा रहा था। हवा में चंपा की खुशबू थी, और कमरे में सूफ़ी संगीत धीमे-धीमे बह रहा था।
“कभी-कभी सोचती हूं,” लाली ने कहा, “कि अगर तुम ना मिलते, तो क्या होता?”
अर्णव ने मुस्कराकर कहा — “तुम्हारा रास्ता लंबा होता, लेकिन तुम फिर भी यही पहुँचतीं। मैं बस तुम्हारे सफर का सहयात्री बन गया। लेकिन तुम्हारी रफ़्तार... वो तो तुम्हारे अंदर ही थी।”
लाली की आंखें भीग आईं।
“इतना क्यों मानते हो मुझे?”
अर्णव ने बहुत शांति से कहा — “क्योंकि तुमने मुझे इंसान बनाया। दुनिया मर्दों को ताकत सिखाती है — तुमने मुझे कोमलता सिखाई। लोग कहते हैं मर्द कभी नहीं रोते — पर तुम्हारे सामने मैं हर दिन गिरा, टूटा, और फिर खुद को नया पाया।”
उसी रात गांव की पंचायत में एक अभूतपूर्व प्रस्ताव पास हुआ — गांव की हर लड़की को अब स्कूल भेजना अनिवार्य होगा। और हर महीने एक ‘लाली दिवस’ मनाया जाएगा, जिसमें गांव की औरतें एक-दूसरे को अपनी कहानियां सुनाएंगी — दर्द, संघर्ष, हिम्मत और उम्मीद की।
श्यामा अब पंचायत की मानद सलाहकार थीं। बड़ी बुआ अब दूसरी औरतों को कहतीं — “हमने लाली को कम समझा था। लेकिन अब हम हर उस लड़की को समझते हैं, जो चुपचाप सपने पालती है। और अब कोई सपना छोटा नहीं है।”
धीरे-धीरे शहरों से भी लोग आने लगे — रिसर्च स्कॉलर्स, पत्रकार, डॉक्युमेंट्री मेकर्स।
एक बार एक विदेशी रिपोर्टर ने अर्णव से पूछा — “आपको नहीं लगता कि आपने एक कठिन रास्ता चुना?”
अर्णव ने सीधा जवाब दिया — “मैंने कोई रास्ता नहीं चुना। मैं उस रोशनी के पीछे गया जो मुझे भटकने नहीं देती थी। और वो रोशनी लाली थी। उसका शरीर भले सीमित हो, लेकिन उसकी सोच... वो अनंत है।”
दीया एक दिन अपने स्कूल से आई और बोली — “मम्मा, सब बच्चे कहते हैं कि मेरी मम्मी सुपरहीरो है!”
लाली हँसी — “सुपरहीरो?”
“हां! एक बच्चा कहता है कि मेरी मम्मा उड़ नहीं सकती। तो मैंने कहा — मेरी मम्मा उड़ती नहीं, उड़ान देती हैं। फिर सब तालियां बजाने लगे!”
अर्णव ने दीया को गोद में उठाया — “बिलकुल सही कहा तुमने। तुम्हारी मम्मा सिर्फ माँ नहीं, वो एक आंदोलन हैं।”
और फिर, एक दिन लाली को एक मंच पर बुलाया गया — जहां दुनिया भर की जानी-मानी महिलाएं मौजूद थीं।
मंच पर उसने कहा —
“लोगों ने कहा — तुम चल नहीं सकती। मैंने कहा — लेकिन मैं रुकी भी तो नहीं।
उन्होंने कहा — शरीर कमजोर है। मैंने कहा — सोच तो पत्थर को भी मोड़ सकती है।
मैं विकलांग नहीं हूं। मेरी दुनिया ने मुझे ऐसा देखा, इसलिए मैं लड़ना सीखी।
अब मैं सिर्फ एक नाम नहीं, एक संदेश हूं।
और अगर मेरा प्यार — मेरा जीवन — अर्णव जैसा मिल जाए,
तो हर लड़की को यकीन हो जाएगा कि वो अधूरी नहीं है — वो सिर्फ अधूरी दिखाई गई है।”
भीड़ ने खड़े होकर तालियां बजाईं।
मंच से उतरते वक्त एक छोटी सी लड़की पास आई — एक टांग प्लास्टिक की थी, आंखों में नमी थी।
“दीदी, क्या मैं भी आपके जैसी बन सकती हूं?”
लाली झुकी, उसका हाथ थामा और कहा — “तू मुझसे भी बड़ी बन सकती है। क्योंकि तू आज से डर नहीं, प्रेरणा बन रही है।”
वो लड़की चली गई, और उसके साथ पीछे एक नया युग भी।
अब गांव की गलियों में शादियों के पोस्टरों पर लड़कियों की शर्तें बदल चुकी थीं —
“दहेज नहीं चाहिए — सोच चाहिए।”
“व्हीलचेयर हो या वॉकर — अगर आत्मा सुंदर है, तो रिश्ता मुकम्मल है।”
लड़कों की तरफ से नए वीडियो वायरल हो रहे थे — “अगर वो चल नहीं सकती, तो क्या हुआ? मैं दो क़दम और चल लूंगा। बस वो साथ हो।”
और जब कहीं कोई बच्चा विकलांग पैदा होता — अस्पताल में उस परिवार को अब कोई मातम नहीं सिखाता।
डॉक्टर सिर्फ एक वीडियो दिखाता — लाली, अर्णव और दीया का। और फिर कहता — “आपका बच्चा अब अकेला नहीं है। ये दुनिया उसे देखने के लिए बदल रही है।”
अब ये सिर्फ एक कहानी नहीं रही।
ये एक संस्कृति बन चुकी थी।
जो कहती है — प्यार सिर्फ आकर्षण नहीं है। प्यार वो है, जो किसी के टूटेपन में अपना संपूर्ण ढूंढ ले।
और जो रिश्ता रूह से बंधा हो, वो शरीर की सीमाओं से कभी नहीं थमता।
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अंधेरे कमरे में एक खिड़की खुली थी। बाहर हल्की बारिश हो रही थी। हर बूँद के गिरने की आवाज़ जैसे भीतर की किसी गहराई को छू रही थी। कमरे के कोने में एक टेबल लैम्प जल रहा था, जिसकी मद्धम रौशनी में दीवार पर अर्णव की परछाईं थरथरा रही थी। वह धीरे-धीरे लाली के पास आया — जो व्हीलचेयर में बैठी, चुपचाप बाहर देख रही थी।
उसके बाल खुले हुए थे, बारिश की गंध उनके भीतर उतर चुकी थी।
अर्णव ने धीरे से पूछा, “ठंडी तो नहीं लग रही?”
लाली ने धीरे से सिर हिलाया, “नहीं… लेकिन अजीब सी बेचैनी है।”
“कहीं कुछ अधूरा सा लगता है क्या?” अर्णव ने उसका चेहरा थामते हुए कहा।
लाली ने उसकी आंखों में देखा, “हां… शायद ये कि मैं तुम्हारे इतने करीब हूं… फिर भी तुम्हें छू नहीं सकती, जैसे चाहती हूं।”
अर्णव उसकी व्हीलचेयर के पास बैठ गया, बिलकुल जमीन पर। उसका सिर लाली की गोद में रख दिया और धीरे से बोला, “मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे हाथों का ना उठ पाना, तुम्हारे प्यार को कभी कम करता है। तुम्हारी नज़रों में इतनी गर्मी है कि मेरे सीने तक उतर जाती है।”
लाली की उंगलियां उसके बालों में फिसलने लगीं।
“तुम्हें पता है,” लाली फुसफुसाई, “जब तुम मेरे पास होते हो, तो मुझे अपने शरीर की सीमाएं महसूस ही नहीं होतीं। ऐसा लगता है कि मैं उड़ सकती हूं… बस तुम्हें देखते हुए।”
अर्णव उठकर उसके करीब हुआ, उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में लिया।
“तुम जानती हो,” उसने गहरी आवाज़ में कहा, “मैंने कभी किसी को ऐसे नहीं देखा। जब मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं, तो दुनिया की सारी आवाज़ें बंद हो जाती हैं… जैसे किसी मंदिर में घंटी की आवाज़ के बाद एकदम मौन फैल जाता है।”
लाली की आंखों में नमी थी। लेकिन वो नमी दुख की नहीं थी — वो इंतजार के अंत की नमी थी।
“क्या मैं तुम्हें छू सकता हूं?” अर्णव ने पूछा।
लाली ने धीरे से आँखें बंद कर लीं और सिर हिला दिया।
अर्णव ने उसके चेहरे पर उंगलियों से यात्रा शुरू की — जैसे कोई संगीतकार पहली बार किसी दुर्लभ वाद्ययंत्र को बजा रहा हो। उसकी उंगलियां लाली की पलकों से होती हुईं उसके गालों तक आईं। फिर उसकी नाक के पुल को छुआ — और होंठों के कोनों तक।
“तुम्हारे होंठ… एक कविता की तरह हैं,” अर्णव ने कहा, “जिसे मैं हर रोज़ पढ़ना चाहता हूं… बिना कभी पूरी किए।”
लाली ने आँखें खोलीं, और उसकी पलकें भारी थीं।
“तो फिर उन्हें अधूरा ही पढ़ो,” उसने मुस्कराकर कहा, “क्योंकि अधूरी चीज़ें ज़्यादा जीती हैं।”
अर्णव ने झुककर उसके माथे पर एक लंबा चुम्बन दिया — जिसमें कोई जल्दबाज़ी नहीं थी। फिर वह उसकी गर्दन के पास आया। वहाँ की त्वचा, बारिश से ठंडी, लेकिन भीतर से धधकती हुई।
लाली की साँसें गहरी हो रही थीं।
“तुम्हें मेरा शरीर कभी बाधा नहीं लगा?” उसने धीरे से पूछा।
अर्णव ने उसका चेहरा अपने सीने से लगाते हुए कहा, “बाधा? नहीं लाली… तुम्हारा शरीर तो एक मंदिर है — जहाँ मैं हर रात आरती करना चाहता हूं, हर सुबह आंखें खोलते ही तुम्हें प्रणाम।”
वह अब उसके कान के पास था, उसकी सांसों की गर्मी लाली की रीढ़ तक जा रही थी।
“तुम्हारे कान के पीछे जो तिल है,” अर्णव ने फुसफुसाकर कहा, “क्या तुम्हें पता है, मैं हर बार उससे बात करता हूं, जब तुम सो जाती हो।”
लाली ने धीरे से उसकी शर्ट की कॉलर पकड़ ली — उसकी उंगलियां कांप रही थीं, लेकिन वो थाम रही थी।
“और तुम जानते हो,” लाली ने कहा, “हर रात जब तुम मुझे चादर ओढ़ाते हो, तो मैं जाग रही होती हूं… क्योंकि तुम्हारे हाथ मेरे पैरों को जैसे ही छूते हैं, मैं खुद को सबसे मुकम्मल महसूस करती हूं।”
अर्णव अब उसके घुटनों पर झुका — उसने चूमा, वह टांग जिसे लोग ‘कमजोर’ कहते थे।
“ये तुम्हारा पैर है,” उसने कहा, “या मेरी श्रद्धा का स्थान।”
फिर वह उसके पैरों को चूमते हुए ऊपर चढ़ा — धीरे-धीरे, रुक-रुककर। जैसे हर अंग से उसकी इजाज़त मांग रहा हो।
“तुम्हारे स्पर्श में आग है,” लाली ने फुसफुसाया, “जो मेरी रगों को बोलने पर मजबूर करती है।”
अर्णव ने उसकी साड़ी का पल्लू उसके कंधे से हटाया — बहुत धीरे, जैसे कोई पन्ना पलट रहा हो किसी प्राचीन ग्रंथ का।
“तुम्हारे कंधों पर इतनी थकान है,” उसने कहा, “कभी-कभी लगता है, मैं बस वहां बैठ जाऊं, अपना सारा वज़न वहीं रख दूं।”
लाली ने अपना सिर पीछे झुका लिया। उसकी सांसों में अर्णव अब उतर चुका था।
“तुम्हें सिर्फ चाहना नहीं है, लाली,” अर्णव ने कहा, “तुम्हें महसूस करना है… ऐसे जैसे कोई बारिश मिट्टी को भिगोती है… धूप किसी जलते हुए मोम को पिघलाती है… और रात किसी खिड़की पर चुपचाप आकर बैठ जाती है।”
वह अब उसके होंठों के पास था — बहुत पास।
“क्या मैं तुम्हें चूम सकता हूं?” उसने फिर पूछा।
लाली की आँखों से एक आँसू निकला, और होंठों से बस एक शब्द — “हमेशा…”
फिर वह चुम्बन हुआ — लंबा, गहरा, और पूरी तरह मौन। जैसे दो आत्माएं एक ही भाषा में मिल रही हों।
उस चुम्बन में लाली की सारी सीमाएं पिघल रही थीं। और अर्णव के भीतर की सारी बेचैनियां समर्पण में बदल रही थीं।
कमरे में अब सिर्फ साँसों की लय थी।
बारिश अब भी हो रही थी — लेकिन खिड़की पर नहीं, उनके भीतर। एक नमी सी हर जगह बसी हुई थी। रूहों तक।
और दो लोग — जो कभी अधूरे थे — अब सिर्फ एक गर्म, साँस लेती, धड़कती हुई पूरकता थे।
कोई नाम नहीं, कोई परिभाषा नहीं।
सिर्फ मौन, जिसमें प्यार सांस ले रहा था।
एक अधूरी नहीं, अद्वितीय यात्रा: लाली की कहानी से सीखती दुनिया
जब हम समाज में ‘कमज़ोर’, ‘विकलांग’, या ‘दिव्यांग’ जैसे शब्दों को सुनते हैं, तो अक्सर हमारे ज़हन में एक दया से भरी छवि उभरती है — जैसे वे लोग किसी दया, मदद या सहारे के पात्र हैं। लेकिन लाली की कहानी वह आईना है, जो हमें खुद की सोच पर सवाल खड़ा करने के लिए मजबूर करती है।
यह केवल एक लड़की की संघर्षगाथा नहीं है। यह एक सोच की क्रांति है। एक आंदोलन है, जो दिखाता है कि असली शक्ति हड्डियों में नहीं, सोच में होती है। यह उस चुप्पी की चीख है, जिसे सदियों से समाज ने कमजोर समझकर अनसुना किया।
जहां कहानी शुरू हुई
लाली — एक गाँव की लड़की, जो चल नहीं सकती थी। जिस पर ताने थे, बोझ था, और भविष्य का कोई नामोनिशान नहीं। वह भी वही करती थी जो हम सब करते हैं — सपने देखती थी। फर्क बस इतना था कि उसके सपनों को कभी उड़ान देने की इजाज़त नहीं मिली।
लेकिन फिर उसने लड़ना शुरू किया। किताबों से। शब्दों से। अपनी पहचान से।
और फिर, वही लाली जिसे कभी “लूली” कहकर बुलाया जाता था, “डॉ. लाली वर्मा” बन गई। न केवल अपने पैरों पर खड़ी हुई, बल्कि उन्होंने उन रास्तों पर भी चलना शुरू कर दिया, जो कभी किसी ने सोचे भी नहीं थे।
शिक्षा और नीतियों में बदलाव
कहानी का सबसे शक्तिशाली मोड़ तब आया, जब शिक्षा नीति में दिव्यांग बच्चों के लिए एक विशेष पाठ्यक्रम शामिल किया गया। और उस पैनल की सबसे पहली सलाहकार थीं — लाली।
ये केवल एक नियुक्ति नहीं थी। ये उस सोच का सम्मान था, जो मानती है कि जो लोग जीवन से लड़े हैं, वही असल में समाज को दिशा दिखा सकते हैं।
अब हर गांव में, हर छोटे स्कूल में, लाली का नाम “ज्ञान केंद्र” से जुड़ चुका था। वो नाम, जो पहले दया का प्रतीक था, अब प्रेरणा का पर्याय बन चुका था।
रिश्ते, जो शरीर से नहीं — आत्मा से जुड़े
लाली की कहानी केवल सामाजिक बदलाव तक सीमित नहीं रही। उसका और अर्णव का रिश्ता उस परिभाषा को चकनाचूर करता है, जो प्यार को केवल आकर्षण और शरीर की सीमाओं में मापती है।
अर्णव का यह स्वीकारना कि “लाली ने मुझे इंसान बनाया,” उस भावनात्मक ईमानदारी का उदाहरण है, जो आज के रिश्तों में खोती जा रही है। जहाँ दुनिया मर्दों को ताकत और कठोरता सिखाती है, वहीं अर्णव जैसे पुरुष यह दिखाते हैं कि कोमलता भी मर्दानगी का ही रूप है।
उनकी रातों के अंतरंग पल, उनका मौन संवाद, और वह प्यार जो स्पर्श से कहीं ज़्यादा आत्मा को भिगोता है — यह सब दर्शाता है कि प्रेम केवल देह का सौंदर्य नहीं, बल्कि आत्मा की संपूर्णता है।
एक नई सामाजिक संस्कृति
लाली की वजह से गाँवों की गलियां बदल गईं। अब लड़कियों के लिए शिक्षा अनिवार्य हो गई थी। “लाली दिवस” के बहाने, औरतें अपने दर्द और सपनों को आवाज़ देने लगीं।
यह बदलाव केवल नियमों में नहीं था — यह दिलों में था।
दहेज की जगह सोच को प्राथमिकता मिलने लगी। व्हीलचेयर और वॉकर अब कमजोरी की निशानी नहीं, जज़्बे की पहचान बन चुके थे। और सबसे महत्वपूर्ण — अब जब कोई दिव्यांग बच्चा जन्म लेता था, तो वह परिवार शर्मिंदा नहीं होता था। डॉक्टर एक वीडियो दिखाता था — लाली, अर्णव और दीया का।
सोच की क्रांति
इस पूरी यात्रा में, सबसे बड़ा बदलाव वह था जो सोच में आया।
कभी लगता था कि विकलांगता एक कमी है — अब वह एक चुनौती है, जिसे जीता जा सकता है। कभी सोचा जाता था कि दिव्यांग व्यक्ति प्यार के लायक नहीं होते — अब वही लोग असली प्यार की परिभाषा बन गए हैं।
यह कहानी उन लोगों के लिए जवाब है, जो सोचते हैं कि प्रेम केवल सुन्दरता, चाल-ढाल और सामाजिक मानदंडों के तहत तय होता है।
लाली ने यह साबित किया कि कोई अधूरा नहीं होता — उन्हें बस अधूरा दिखाया जाता है।
महिलाओं के लिए एक नई परिभाषा
लाली हर उस लड़की की आवाज़ बन गई है, जो चुपचाप सपने पालती है।
हर वह लड़की जो सोचती है कि वह अपनी सीमाओं के कारण पीछे है, अब जानती है कि सीमाएं तो सिर्फ शरीर की होती हैं — सोच की नहीं।
और जब साथ में कोई अर्णव जैसा साथी हो, जो हर दिन सिर्फ प्रेम ही नहीं, सम्मान भी दे — तो लड़की को यह यकीन हो जाता है कि उसका होना ही उसकी पहचान है, किसी के सहारे की मोहताज नहीं।
एक नई दुनिया की ओर
अब सोशल मीडिया पर लड़के यह कह रहे हैं — “अगर वो चल नहीं सकती, तो क्या हुआ? मैं दो कदम और चल लूंगा।”
यह पंक्तियां सिर्फ पोस्ट नहीं हैं — यह समाज की नई दिशा हैं।
अब विकलांगता कोई कलंक नहीं — यह एक नई रोशनी है, जो समाज की असल परख कर रही है।
अब जब कोई लाली को मंच पर बोलते हुए सुनता है — “मैं विकलांग नहीं हूं। मेरी दुनिया ने मुझे ऐसा देखा, इसलिए मैं लड़ना सीखी।” — तो लाखों लड़कियों की रीढ़ सीधी हो जाती है।
अंतिम विचार
यह कहानी हमें याद दिलाती है कि इंसान की पहचान उसकी ताकत से नहीं, उसकी संवेदनशीलता से बनती है।
असली परिवर्तन नीतियों से नहीं, सोच से आता है।
और जब एक समाज यह स्वीकार ले कि प्यार शरीर की सीमा नहीं मानता — तब वो समाज वास्तव में विकसित कहा जा सकता है।
तो दोस्तों, कैसी लगी आपको यह कहानी?
मैं सोनू गुप्ता, फिर से मिलूंगा ऐसी ही एक सच्ची, साहसी और सोच बदलने वाली कहानी के साथ।

