Ritu Verma

Drama

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Ritu Verma

Drama

टाइमटेबल

टाइमटेबल

10 mins
274


घड़ी की सुई जैसे ही सात और छः के बीच आई, आकृति ने स्पोर्ट्स शू पहने और घूमने निकल गयी थी। नीचे पहुंचते ही पांच मिनट के अंदर उसने अपने जरूरी फ़ोन कॉल्स निबटाने शुरू कर दिए थे। साढ़े आठ बजते ही वो ऊपर आयी , हाथ मुँह धोकर दूध बनाया और पूरे परिवार को दिया। फिर नौ बजते बजते बजते आकृति अपना लैपटॉप खोलकर काम मे डूब गई थी। रात के 11:30 बजे सोने से पहले आकृति ने बच्चों के कमरे में जाकर चेक किया कि वो सो गए हैं या नही।

जैसे ही वो अंदर घुसी तो देखा कि लाइट जली हुई थी। दिया कोरियन ड्रामों में व्यस्त थी और बार्बी फोन पर। आकृति गुस्से में बोली "कल क्या स्कूल नहीं जाना हैं? "

दिया बोली "मम्मी प्लीज अभी एक घँटे में सो जाऊंगी। "

बार्बी बोली "ममा फ्रेंड का बर्थडे हैं, 12 बजे के बाद सो जाऊंगा। "

आकृति भुनभुनाते हुए अपने बेडरूम में आई तो देखा विपुल उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। विपुल ने जैसे ही प्रेम क्रीड़ा की शुरुआत करी, अचानक से आकृति उठ खड़ी हुई और बोली "कल साबूदाने की खिचड़ी बनेगी नाश्ते में, मैं भूल गयी हूँ भिगोना, एक मिनट रुको "

विपुल गुस्से में मुँह फेर कर लेट गया। आकृति वापिस आ कर विपुल को मनाने की कोशिश करने लगी और बोली ", विपुल कल नाश्ते में ये ही लिखा हुआ था टाईमटेबल में "

फिर बोली "अरे 12:30 बज गए, मेरा टाइम हो गया सोने का "

आकृति सो गई और विपुल पूरी रात करवट बदलता रहा। वो आकृति के टाईमटेबल से थक गया था। उसे लगता था वो अपनी पत्नी के साथ नहीं किसी रोबट के साथ रह रहा था।

आकृति के अंदर कोई कमी भी नहीं थी पर वो परफेक्शन के चक्कर मे इतनी ज्यादा टाईमटेबल में बंध चुकी थी कि विपुल को आकृति का साथ एक गैजेट जैसे लगने लगा था।

औरों की नज़रों में आकृति एक परफेक्ट वाइफ और मम्मी थी पर आकृति को खुद ही नहीं पता था कि उसका ये टाइम में बंधा हुआ लाइफ स्टाइल उसके पति और बच्चों को नहीं भाता हैं। पर आकृति को लगता था कि अगर वो थोड़ा सा भी ढील दी देगी तो पूरे घर का डिसिप्लिन खराब हो जाएगा। आकृति को लगने लगा था कि उसकी वैल्यू घर और दफ़्तर में उसके काम के कारण हैं। आकृति जी तोड़ मेहनत करती थी अपने हर काम को परफेक्शन के साथ करने की।

विपुल 45 वर्ष की उम्र में भी 30 का लगता था, ये आकृति की मेहनत का ही नतीजा था। परन्तु आकृति ये भूल गयी थी कि जीवन का सहज रस तो खुल कर जीने में हैं। अगर उसके रूटीन में एक मिनिट भी इधर उधर हो जाता था तो वो बेचैन हो उठती थी। इस चक्कर में कभी कभी वो शालीनता की सीमा भी पार कर देती थी।

अभी पिछले हफ़्ते की ही बात थी। विपुल ने अपने दो दोस्त सपरिवार डिनर पर बुलाये थे। दोनों दोस्त और उनके परिवार आकृति के चमकते हुए घर से बेहद प्रभावित थे। आकृति ने आते ही जूस दिया , फिर नाश्ता और चाय प्रस्तुत करी। उसके कुछ देर बाद सूप आ गया परन्तु आकृति दो मिनट के लिए भी मेहमानों के साथ नहीं बैठ रही थी। विपुल के एक दोस्त ने तो कहा भी "आकृति भाभी आप थोड़ी देर बैठ जाइये, डिनर तो हम लोग रात के 10 बजे करेंगे "

ये बात सुनते ही आकृति बेचैन हो उठी। वो कैसे अपना टाईमटेबल में कोई रुकावट बर्दाश्त कर सकती थी। उसने दोस्त से तो कुछ नहीं कहा परन्तु ठीक 7:30 बजे डिनर लगा दिया और फिर मुस्कुराते हुए बोली "भाई साहब, मुझे और मेरे परिवार को जल्दी खाने की आदत हैं, इसलिये आज आप हमारे हिसाब से खा लीजिए "

बड़ी अनिच्छा से मेहमान खाने की मेज पर बैठे परन्तु उन्होंने खाने को बस थोड़ा से चखा ही था। पूरा समय आकृति जल्दी खाने और सोने के गुणगान करती रही। खाने के पश्चात उसने अपने दोनो बच्चों को सोने भेज दिया। विपुल के दोस्त के बच्चें ठगे से खड़े रहे। यहीं नहीं आकृति खाने के तुरंत बाद रसोई समेटने लगी , उसने इतना भी नहीं सोचा कि दोनों दोस्तो की पत्नी आकृति के व्यवहार से बेहद आहत थी। जाते जाते आखिरकार एक दोस्त की पत्नी ने विपुल को बोल ही दिया "भाई साहब अगली बार आप आकृति जी का टाइम टेबल भेज दीजिए , हम उसी अनुसार आ जायेंगे "

"आज तो ऐसा लग रहा था मानो हम मिलने नहीं बस खाना खाने आये थे।"

मेहमानों के जाते ही आकृति और विपुल में कहासुनी हो गयी थी। विपुल ने कहा "तुमने आज मेरे दोस्तों का अपमान किया हैं। क्या आसमान फट जाता अगर आज हम डिनर थोड़ा लेट कर लेते "

आकृति गुस्से में बोली "ये सब मैं तुम्हारे लिए करती हूँ और बात रूटीन की होती हैं , जल्दी या देर से खाने की नही "

आकृति को समझ नहीं आता था कि क्यों उसके बच्चे और पति उसकी खिल्ली उड़ाते हैं।

जैसे ही छुट्टी का दिन होता दिया और बार्बी दोनो मौसी के घर चली जाती और विपुल कार उठा कर ना जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता था। आकृति कितना कोशिश करती थी अपने परिवार के करीब जाने की पर दिया, बार्बी और विपुल आकृति से दूर भागते थे।

आकृति बहुत कोशिश करती कि रविवार को थोड़ा रिलेक्स करे पर आकृति के टाईमटेबल में कहीं भी इसके लिए जगह नहीं थी। आकृति की धीरे धीरे ऊर्जा और रचनात्मकता समाप्त होती जा रही थी। आकृति को अब हर नया सवेरा नए उमंग के साथ नहीं बल्कि एक बोरियत के साथ आता था।

कहीं बाहर का प्रोगाम बनता तो विपुल पहले ही बोल देता "आकृति तुम चलोगी क्या? "

"क्या तुम्हारे टाईमटेबल में जगह हैं "

दिया और बार्बी मुँह बनाते हुए बोलती "पापा, मम्मी को रहने दो, मम्मी बिल्कुल मज़ा नहीं करती और ना ही करने देती "

आकृति खिसिया जाती थी। अपने ही परिवार में वो अकेली हो गयी थी।

आकृति जिंदगी जी तो रही थी पर ऐसी ज़िन्दगी जिसमे रस नहीं था।

एक रात अचानक से आकृति की आँख खुली तो देखा विपुल बिस्तर से गायब था। आकृति परेशान सी बाहर निकली तो देखा विपुल किसी से मोबाइल पर बड़ी आत्मीयता से बात कर रहा था। आकृति ने जैसे ही विपुल को आवाज़ दी , विपुल का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया।

आकृति विपुल से गुस्से में बोली "तभी सारा दिन मोबाइल में घुसे रहते हो "

विपुल बेशर्मी से बोला "पहले खुद के अंदर झाँको। मैं इंसान हूँ, मेरे अंदर भावनाएं हैं। तुम्हारी तरह मैं रोबोट नहीं हूँ जो घड़ी की सुइयों से बंध कर जिंदगी बीता दूँ "

"तुम तो रात के 10 बजे सो जाती हो, किसके साथ बाते करूँ, किससे अपना तनाव बाटूं "

आकृति बोली "अपने गलत काम को बड़े अच्छे से जस्टिफाई कर रहे हो "

विपुल बिना कुछ कहे पीठ फेर कर सो गया। पर उस पूरी रात आकृति को नींद नहीं आई।

कहाँ और कैसे वो अपनो के ही बीच अकेली हो गयी थी, उसे पता भी नहीं चला।

अगले दिन हमेशा की तरह आकृति सुबह ही टाईमटेबल के अनुसार उठ गई थी

नाश्ता बनाकर , सही टाइम पर तैयार होकर अपने दफ्तर चली गयी । दफ़्तर में जैसे ही आकृति पहुँची , उसने देखा जगह जगह ग्रुप बनाकर लोग गॉसिप में मस्त हैं। बस ये ही तो प्रॉब्लम हैं लोगो को फ़्री की सैलरी चाहिए मगर बस गप्पे मारने के लिए।

आकृति को देखते ही सब लोग इधर उधर चले गए।

आकृति जैसे ही अपनी टेबल पर बैठी तो उसकी सहकर्मी और अच्छी सहेली श्वेता बोली "ये टाइम टेबल के चेहरे पर 12 क्यों बज रहे हैं।"

आकृति फीकी हंसी हंसते हुए बोली "यार श्वेता क्या मैं इतनी बुरी हूँ कि कोई भी मेरे करीब नहीं आना चाहता हैं। क्या समय पर काम करना कोई अवगुण हैं "

श्वेता बोली "नहीं समय का पाबंद होना बुरा नहीं हैं पर अपनी ज़िंदगी को टाईमटेबल के सांचे में ढाल लेना गलत हैं "

"कभी तो खुद को थोड़ा सा ढीला छोड़ दो, खुल कर हंसो, खायो "

"ज़िन्दगी को अगर खुल कर जीयोगी तो खुद भी खुश रहोगी और दूसरे भी खुश रहेंगे "

आकृति सोच में पड़ गयी। वो तो ये सब अपने और अपने परिवार की भलाई के लिए करती थी।

शाम होते होते मानसिक तनाव और थकान के कारण आकृति का शरीर निढाल पड़ गया था। परन्तु टाईमटेबल के हिसाब से ही उसने दाल और सब्जी बनाई थी।

रात भर आकृति का शरीर बुखार में तपता रहा। परन्तु सुबह 5 बजे उठने वाली आकृति जब 7 बजे तक भी ना उठी तो विपुल एकाएक हड़बड़ाहट के साथ उठा। आकृति को जैसे ही उसने हाथ लगाया तो घबरा उठा, आकृति का शरीर भट्टी की तरह तप रहा था।

विपुल ने फौरन आकृति को एक बिस्कुट खिलाया और बुखार कम करने की दवा दी। आकृति जैसे ही उठने की कोशिश करने लगी एकाएक कमजोरी के कारण गिर पड़ी। दिया और बार्बी भी आंखें मलते हुए आकृति के कमरे में आ गई थी। विपुल बोला "आज सब छुट्टी कर लेते हैं "

"मैं पहले नाश्ते का इंतजाम करता हूँ और फिर डॉक्टर के पास चलते हैं "

डॉक्टर ने आकृति का चेकअप करने के बाद विपुल से पूछा "आकृति जी ने कब से आराम नहीं किया हैं? "

विपुल बोला " मैं समझा नहीं डॉक्टर "

डॉक्टर बोले "आपकी पत्नी की बीमारी मानसिक हैं। ये मानसिक रूप से इतनी अधिक थकी हुई हैं कि इनके शरीर ने जवाब दे दिया हैं "

"मेरी सलाह माने इन्हें किसी अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले जाए "

घर आकर विपुल ने आकृति से कहा "आकृति तुम आज बस आराम करो , आज घर की ज़िम्मेदारी मेरी हैं "

मगर आकृति को हर चीज़ टाइम से और परफेक्शन के साथ करने की आदत थी। बुखार उतरते ही वो फिर से काम में जुट गई थी। विपुल और बच्चों के किये गए काम को उसने फिर से दुबारा किया। इस बात से चिढ़ कर दोनों बेटियां अपने कमरे में बंद हो गयी थी। विपुल भी बिना कुछ कहे कार उठा कर निकल गया था।

अगले दिन विपुल और आकृति मनोचिकित्सक के पास गए। मनोचिकित्सक ने आकृति से कुछ प्रश्न पूछे और उसके बाद आकृति को अगले दिन अकेले आने को कहा। आकृति का हफ़्ते में दो दिन सेशन होता था।

आकृति की मनोचिकित्सक का नाम दिव्या था। दिव्या आकृति को समझने की कोशिश करती रही थी और चार सेशन के बाद दिव्या को आकृति की प्रॉब्लम समझ आ गयी थी। आकृति को हर काम को परफेक्शन के साथ करने की एंग्जायटी रहती थी। दिव्या ने धीरे धीरे आकृति को समझाया की अपने आप को थोड़ा रिलैक्स करने की इजाज़त दे। जरूरी नहीं कि हर काम परफेक्शन से हो क्योंकि हर इंसान की एक लिमिट होती हैं। सारा काम खुद करने के बजाय डिवाइड करना सीखें। ज़िन्दगी का मतलब बस काम नहीं हैं।

धीरे धीरे ही सही दिव्या की मेहनत और विपुल के साथ के कारण आकृति ने रिलैक्स करना सीख लिया था। विपुल ने दिव्या के कहे अनुसार आकृति से चिढ़ने के बजाए उसे समझना शुरू कर दिया था। दिव्या की मदद के कारण ही आकृति के परिवार को समझ आ गया था कि आकृति को परफेक्शन एंग्जायटी नामक डिसऑर्डर हैं। अब वो आकृति की बातों पर अधिक ध्यान नहीं देते थे।

काउंसेलर , परिवार की मदद से और कुछ रिलैक्सिंग थेरेपी के कारण आकृति की चिड़चिड़ाहट भी पहले से कम हो गयी थी। उसका ब्लड प्रेशर भी अब कंट्रोल रहने लगा था। काम को देखकर आकृति अब हाइपर नहीं होती थी बल्कि काम को बांट देती थी। जैसे ही आकृति ने घर और दफ़्तर में लोगों पर विश्वास करना शुरू कर दिया , आकृति के रिश्ते अपने आप ही सुधर गए थे।

दफ़्तर और घर के लोग जो पहले आकृति को देखकर बिदकते थे अब आकृति के करीब आ गए थे।

अब आकृति का घर जेल नहीं घर लगने लगा था। संडे में आकृति को अब कोई हड़बड़ाहट नहीं रहती थी। कभी ब्रेकफास्ट विपुल बना देता तो कभी बच्चे बना देते, लंच अक्सर बाहर से आ जाता और रात को सब मिलकर डिनर बना लेते थे।

आकृति अब फैला हुआ घर देखकर चिढ़ती नहीं थी बल्कि दिया और बार्बी को बोल देती थी। थोड़ा सा आकृति ने अपने को ढाला और थोड़ा और लोग उसके हिसाब से ढल गए थे।

हफ्ते के पांच दिन आकृति का परिवार उसके हिसाब से रहता था और दो दिन आकृति उनके हिसाब से रहती थी। आकृति के ज़िन्दगी के टाईमटेबल में अब ब्रेक के लिए जगह बन गयी थी , वहीं ब्रेक जो आकृति को दोबारा से ज़िन्दगी की तरफ़ खींच लाया था।


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