Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (6)

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (6)

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तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (6)


इस भाग को अपलोड करते हुए अब, मुझे अपनी व्यक्तिगत अपेक्षा नहीं रही थी। ‘मेरी कहानी’ को कितने व्यूअर मिलते हैं, से बढ़कर मेरे लिए, यह महत्वपूर्ण हुआ था कि इसे श्रोता-पाठक, देखें-सुने एवं इससे सीख-शिक्षा ग्रहण करें।मैं देखना चाहती थी कि मेरे देशवासी समाज एवं परिवार की अपेक्षा अनुसार, अपना जीवन अच्छा बनायें। 

आगे की ‘मेरी कहानी’ मैंने, अगली रात सोने के पूर्व पढ़ी थी -


मेरी कहानी अंतिम भाग फिर मैं, अपनी पढ़ाई करती एवं पापा से बीच बीच में ‘मार्गदर्शन रूपी उत्प्रेरक’ लेकर अध्ययन के माध्यम से, अपनी ‘क्षमता-योग्यता निखार की प्रोसेस’ में, अपनी लगन एवं उत्साह में वृध्दि करती। 

फिर सब कुछ अच्छा हुआ था। बारहवीं की परीक्षा तथा मेडिकल प्रवेश परीक्षा के परचे मैंने, आशा अनुसार अच्छे किये थे। बारहवीं में 95% स्कोर के साथ ही मेडिकल प्रवेश परीक्ष में मेरा स्कोर अच्छा रहा था। मुझे देश के प्रमुख आयुर्विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश मिल गया था। 

यह हम सब के लिए अत्यंत ही ख़ुशी की बात थी। मगर मुझे वहाँ जाते हुए दादी, माँ एवं बहन से दूर जाना उदास कर रहा था। यह मैं जानती थी कि मुझे सबसे ज्यादा दुःख, पापा से दूर जाने का हो रहा था। 

पापा ने यह अनुभव कर, मुझे समझाया था कि मोबाइल पर तो हम, हर समय संपर्क में रह ही सकते हैं। साथ ही तुम जैसे ही, अब मुझे तुम्हारी छोटी बहन पर ध्यान देना है। मैं, हॉस्टल आ गई थी। घर की अपेक्षा यहाँ रहना, मेरे लिए अत्यंत भिन्न अनुभव था। 

वैसे तो इस आयुर्विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी, कुशाग्र एवं अध्ययन में रूचि लेने वाले होते हैं। मगर यहाँ पहुँच पाने में सफल हो जाना, एक गुरुर सा अनुभव कराता है। इसके प्रभाव में, यहाँ का वातावरण लड़कों-लड़कियाँ को अति स्वछंद बना देता है। 

अब तक पढ़ने की जो बाध्यता इन्हें जकड़ी होती है उससे मुक्ति मिली सी अनुभव होती है। और अब तक रखे अपने अध्ययन अनुशासन में, जो इन्होंने नहीं किया होता है, वह सब करने की इन्हें, उतावली मचती है। 

इसी का दुष्परिणाम हुआ था कि परिचय समारोह में यहाँ के लड़कों ने, हम लड़कियों की तस्वीर ली थी। जिसमें से लड़की का चेहरा कंप्यूटर एप्प के प्रयोग के द्वारा, किसी दूसरे वीडियो में की युवती के चेहरे से बदल कर, फेक वीडियो बना दिया करते थे। मेरा भी ऐसा ‘फनी वीडियो’ बनाया गया था। जिसे मैंने, पापा को भेजा था। इसे देख पापा ने मोबाइल पर समझाया था - 

"समय बदलने के साथ, रैगिंग के तरीकों में भी बदलाव आया है। ऐसी बातों के होने से तुम्हें, अवसाद करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें बस यह स्मरण रखना है कि देश के, इस सर्वोत्कृष्ट कॉलेज से तुम्हें, ग्रहण क्या करना है। "

मेरे पापा का, मुझ पर पूर्ण विश्वास था। वे नई तकनीक एवं उसके ख़राब प्रयोग के जानकार भी थे। मगर मेरे ही सेक्शन में पढ़ने आई राजस्थान की एक लड़की के साथ दुर्भाग्य से ऐसा नहीं था। लड़कों ने उसकी तस्वीर प्रयोग कर, उसका चेहरा, एक पश्चिमी अश्लील वीडियो में मर्ज कर दिया था। 

उस वीडियो को आपस के व्हाट्सएप्प ग्रुप में अपलोड किया था। कई देखने वालों ने, उस पर भद्दे भद्दे कमेंट भी लिखे थे। इससे वह लड़की अत्यंत व्यथित हुई थी। फिर ना जाने कैसे वह फेक वीडियो, उसके परिवार तक पहुँच गया था। 

जिसे देख कर उसके पापा एवं बड़े भाई अत्यंत लज्जित एवं क्रोधित हुए थे। वहाँ राजस्थान में, ‘नारी गरिमा’ की आदर्श संस्कृति थी। मोबाइल पर उस लड़की ने, अपने पापा एवं भाई को इस वीडियो को, लड़कों की शरारत द्वारा निर्मित किया जाना बताया था। वे, ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग, ऐसी तकनीक नहीं जानते थे। उन्होंने, अपनी बेटी पर विश्वास नहीं किया था। दुष्परिणाम यह हुआ कि उस रात 2 बजे जब, हॉस्टल में सभी सो चुके थे, उसने छात्रावास में, चौथी माला से, कूदकर अपने प्राण गँवा दिए थे। 

ऐसे, इस समाज को, भविष्य में मिल सकने वाली, एक संभावित श्रेष्ठ महिला चिकित्सक के, अल्पायु में ही दुःखद प्राणांत हो गये थे। लड़की ने आत्महत्या के पूर्व, एक पत्र छोड़ा था। जिसमें स्पष्ट रूप से, आत्महत्या करने के कारण में, उस फेक वीडियो का उल्लेख किया गया था।   

इस हादसे को, साइबर क्राइम रजिस्टर करते हुए जाँच में लिया गया था। जाँच में दोषी मिले जिस सीनियर लड़के के द्वारा यह फेक वीडियो बनाकर अपलोड किया था उसे, कॉलेज से निष्कासित किया गया था। 

वह गिरफ्तार भी कर लिया गया था। उस पर अदालती प्रकरण दर्ज हुआ। स्पष्ट था कि दूर दृष्टि विहीन, की गई हँसी-मज़ाक का सिला, एक की जान एवं दूसरे का भविष्य ख़राब होने के रूप में मिला था। 

फिर आगे मैं, नये माहौल में रच बस गई थी। प्रायः नित दिन मैं, अपने घर से, मोबाइल पर वीडियो कॉल व्दारा सम्पर्क किया करती थी। अपने पापा से अपनी दुविधाओं एवं किसी भी अवसाद पर प्रोत्साहन की बातें सुनकर मैं, अपने अध्ययन में पूर्व की भाँति ही समर्पित रहती थी। 

स्पष्ट था कि हॉस्टल में चलने वाली आधुनिकता के नाम पर बुरी गतिविधियों से मैं, अपने को बचा लिया करती थी। मुझे पता था कि इसके कारण, पीठ पीछे एवं सामने भी कई बार, मेरा मखौल उड़ाया जाता था। इससे मैं, विचलित नहीं होती थी। अंततः वह हुआ, जो मेरे पापा की, मुझे लेकर महत्वाकांक्षा थी। मैने 25 वर्ष की अपनी आयु में, एक विशेषज्ञ चिकित्सक की उपाधि अर्जित की थी। तब पापा के चाहे गए अनुसार मैंने, एक चैरिटी हॉस्पिटल में अपनी सेवायें अर्पित करना आरंभ कर दिया था। 

पापा की लिखी ‘मेरी कहानी’ यहाँ समाप्त हो गई थी। 

अगली सुबह मैंने, नाश्ते पर इस कहानी को लेकर अपनी अत्यंत प्रसन्नता बताई थी। तब पापा ने कहा -

"बेटी, मैं भगवान नहीं हूँ। आवश्यक नहीं है कि तुम्हारे, ये आगामी वर्ष यूँ ही बीतें। यह ‘मेरी कहानी’ लिखने का मेरा आशय, इसमें किये उल्लेखों से तुम्हें, तुम्हारा जीवन लक्ष्य तय करने की प्रेरणा देना है। साथ ही, हमारे आसपास की बुराईयों का ज्ञान भी तुम्हें कराना है। ताकि इन बुराईयों से तुम अपना बचाव कर सको।" 

इस पर दादी ने कहा - "हर पिता का यह कर्तव्य होता है कि वह, अपने बच्चों का सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना सुनिश्चित करे। "

पापा ने सहमति जताते हुए, इसके बाद में, जो बात कही वह, माँ को दुःखी करने वाली हुई थी। पापा ने कहा - 

"बेटी यह जरूरी भी नहीं कि मैं, तुम लोगों का बहुत समय साथ दे सकूँ। किसी के जीवन का भरोसा कब होता है?"

इस पर माँ ने करुणा के सागर में डूब, कहा था -" आप, ऐसी अशुभ बात नहीं कहिये, प्लीज। "

ये माँ का अपना अंधविश्वास था, जिसमें वे मानती थीं कि कहा हुआ, हो भी सकता है। तब दुर्योग भी हुआ था। पहले पापा को, फिर दादी को कोविड19 हो गया था। इससे माँ, बहुत डरी - सहमी हुईं थीं। तब उन्हें पापा का कहा गया वह अशुभ वाक्य बहुत डराता रहा था। 

पापा एवं दादी दोनों को, निमोनिया भी हो गया था। माँ, हॉस्पिटल में उनसे मिलना चाहतीं थीं तब भी उन्हें मिलने नहीं दिया जाता था। हम दोनों बहनें एवं माँ बहुत चिंता ग्रस्त रहा करते थे। माँ का वजन 4 किलो घट गया था। 

फिर डॉक्टर्स के उपचार ने काम किया था। 17 दिन बाद पहले पापा और फिर 23 दिनों में, दादी कोविड19 से जीवन की लड़ाई जीत कर, स्वस्थ घर लौटे थे। 

उन दिनों मैंने, डॉक्टर होने की शक्ति पहचानी थी। जिसका उपचार एवं सेवा, रोगी को मौत के चंगुल से छुड़ा ला सकता था। मैंने, पापा की लिखी ‘मेरी कहानी’ अनुसार स्वयं डॉक्टर होने का दृढ संकल्प ले लिया था।  यह समय हमारे परिवार पर एक दुःस्वन की भाँति अत्यंत चिंताओं एवं पीड़ा देते हुए बीता था। फिर शनैः शनैः घर में पूर्वानुसार प्रसन्नता लौट आई थी। 

एक दोपहर भोजन उपरांत मैंने, पापा से शिकायती स्वर में कहा - "पापा आपने, ‘मेरी कहानी’ सिर्फ आगामी तेरह वर्षों के लिए लिखी है। इसके आगे की क्यों नहीं लिखी है? "

पापा ने आकर्षक मुस्कान सहित कहा था - 

"डॉक्टर होने के बाद स्वयं तुम इतनी समझदार हो जाओगी कि आगे के जीवन का यथार्थ तुम, स्वयं अपने कर्मों से लिख सकोगी। आशा है तुम्हारा जीवन, इतना गौरवशाली हो सकेगा कि इस पर कोई साहित्यकार तुम्हारी जीवनी लिखेगा। जिसे, पढ़ने वाले पाठक, अपने जीवन के लिए, तुम से प्रेरणा ग्रहण कर सकेंगे।" 

मैंने खुश होकर कहा कि - "आप मुझे मार्गदर्शन प्रदान करते रहना। इससे मैं, आपकी इस कल्पना को, साकार करने के लिए, अपने पूरे सामर्थ्य से प्रयास करुँगी।" 

पापा ने तब कहा - "बेटी, आगे समय वह भी आएगा जब, तुम्हारा पथ प्रदर्शक, मैं नहीं रह जाऊँगा। तब तुम, स्वयं ही बड़ी एवं समझदार होकर आगे की पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन कर सकोगी। उस समय तुम, हमारा सहारा बनोगी और हम तुम्हारे आश्रित होंगे।" 

“जीवन का स्वरूप ही ऐसा होता है। पहले बच्चे आश्रित होते हैं फिर वे बच्चे सबल होते हैं एवं उन्हें बड़ा करने वाले माँ-पिता बूढ़े होकर, उनके आश्रित हो जाते हैं”

 (समाप्त)


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