Latika Batra

Drama Others

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Latika Batra

Drama Others

तर्पण

तर्पण

12 mins
152


बाबा को गए तो बरसों हो चुके थे। मैं फिर कभी लौटकर भारत नहीं आया उसके बाद। कौन था यहां जिसे मेरे आने की आस हो। पर कहते हैं ना कि मिट्टी बुलाती है, तो कदम स्वयमेव ही उठ पड़ते हैं लौटने को, और फिर मेरा एक बेहद निजी प्रयोजन भी तो था, वो यादें, वो अकसर दिखने वाले सपने, जो बाबा के जाने के बाद से ही मुझे अक्सर सोते में दिखाई पड़ते थे। मेरे भीतर कोई पुकारता था कि मैं एक बार तो कम से कम उस जगह अवश्य जाऊं।


तो प्रत्यक्ष में बिना किसी विशेष प्रयोजन के मैं चल पड़ा था अकेले ही। उसी अनजानी ठौर की ओर। मिनी और उसकी मां तरुणा भी हैरान थे कि यूं अकेले अचानक बैठे बिठाए बिना पहले से छुट्टियों का आवेदन तक किए मैं ऐसे कैसे इतने लंबे ट्रिप की प्लानिंग कर सकता हूं, वह भी चित्रकूट। और कहीं घूमने जाने का मन है ही तो उन्हें साथ लेकर क्यों नहीं जा रहा। वह नही समझ रही थी कि मेरा मन वानप्रस्थी सा हो रहा था। यायावर सा मैं, तरुणा की सारी नाराजगी और सवालों को दरकिनार करते हुए उड़ कर आ पहुंचा दिल्ली और फिर वहां से खजुराहो और उसके बाद बस द्वारा चित्रकूट। मैं सीधा मध्य प्रदेश निगम के रेस्ट हाउस पहुंचा बुकिंग तो थी नही पहले से। वहां मुझे जगह नहीं मिली। थकान से चूर मैं अपना सूटकेस लेकर डाक बंगले की मुंडेर पर बैठ गया। बाबा एक पंक्ति बोला करते थे ...

चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेश

 जा पर विपदा परत सो आवत यहि देश।


विपदा तो थी , कि इस रात के समय लगभग अनजान जगह पर अब आश्रय कहां मिलेगा। इंटरनेट यहां चल नहीं रहा था तो गूगल की मदद से कुछ भी ढूंढना नामुमकिन था। मैं पेशोपश में था।

" साहब, यहां क्यों बैठे हो इस तरह " एक खनकती आवाज ने मेरा ध्यान भंग किया।


 काला और लाल चटक रंग का लहंगा और बसंती रंग का गोटा लगा हुआ दुपट्टा ओढ़े एक सांवली सी लड़की मेरे सामने खड़ी थी। मैंने अपने अधजली सिगरेट जमीन पर फेंकी और जूते से मसलते हुए कहा,"  ठिकाना ढूंढ रहा हूं। यहां तो बात नहीं बनी।"


" परदेसी लगते हो।"


वह ध्यान से मेरी और देखते हुए बोली।

" नहीं, अपने ही देश में हूं, पर लौटा सदियों बाद हूं।" 

 मेरी आवाज़ ना जाने क्यों कांप गई थी।

वह कुछ देर सोचती रही फिर बोली , " चलो यह पैटी बोरी उठाओ अपनी, और मेरे साथ आओ। " 


मैं कुछ देर सोचता हुआ वहीं बैठा रहा। वह लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी।

" चले आओ, लड़कियों जैसे क्यों शर्मा रहे हो। "


मैं सकपका गया। डर तो रहा था मैं भीतर ही भीतर। पता नहीं कौन है यह और कहां ले जाएगी। पर और कोई विकल्प तो था नहीं मेरे पास। वह लड़की सीधा डाक बंगले के मेन गेट की दाहिनी ओर से होते हुए पीछे की और पहुंच गई। पीछे दो छोटी छोटी कोठरियाँ बनी हुई थी। एक कोठरी के बाहर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति ईट्टों के चूल्हे के पास बैठा एक देगची में कुछ पका रहा था।


" बाबा सुनो " 

उस लड़की ने उस व्यक्ति को पुकारा।

" क्या हुआ बसंती तू घर नहीं गई अभी तक?" 

" बाबा, यह लो मेहमान लाई हूं तुम्हारे लिए। बेचारे दूर देश से आए हैं और डाक बंगले के बाहर मुंडेर पर ही रात काटने की सोचे थे। मुझे तरस आ गया तो आपके कन्ने के लिए आई इन्हें। लो संभालो, मैं तो चली। "


कहकर बसंती मटकती कोई मुझे बिना कुछ कहे हुए वहां से चली गई। मैं हतप्रभ था कुछ देर वही खड़ा रहा जब तक कि उस व्यक्ति की देग पक न गई। फिर वह उठा और मेरी ओर देखकर बोला," बाबू बसंती ले आई है तुम्हें तो मना ना कर सकूंगा ?" उसने अपनी जेब में से डाक बंगले की पिछले दरवाजे की चाबी निकाली और दरवाजा खोल दिया।


" आज रात यहां रह लो, फिर कल दफ्तर जाकर परमिशन लेटर ले आना नहीं तो हमारी भी नौकरी जाएगी ।"

" ठीक है। शुक्रिया। " मैंने कहा।


उसने एक बेडरूम खोल दिया मेरे लिए। मेरी जान में जान आई कमरा काफी सुंदर और साफ सुथरा था।

" बाबू कुछ खाओगे ?"


उसने पूछा मुझे भूख तो लगी थी पर पता नहीं यहां क्या इंतजाम हो सकेगा मैं असमंजस में था।


वह व्यक्ति कुछ ही देर में वापिस लौट कर आया। वह एक ट्रे में मेरे लिए चिकन और आग में ताजी सिकी हुई दो रोटियां ले कर ले आया था।

" बाबू, यहां पर तो अभी बस यही मिलेगा मैंने खुद पकाया है देखो शायद आपको अच्छा लगे।"


रोटियों की खुशबू ने मेरी भूख भड़का दी थी। चिकन सच में बहुत अच्छा बना हुआ था। शायद यह मेरे देश की मिट्टी की खुशबू थी या उस व्यक्ति के हाथ में सच में मां अन्नपूर्णा का वास था मैंने खूब स्वाद ले कर खाना खाया।


मैं दिन चढ़े तक घोड़े बेच कर सोता रहा। कुछ खटर पटर से मेरी नींद खुली। कमरे से बाहर आकर देखा तो बसंती झाड़ पौंच के काम में जुटी थी।


" तुम यहां काम करती हो ?" 

 मैंने उसे देखकर पूछा।

" हां साहब, और क्या। यही काम करती हूं मैं बचपन से।"


 वह इतरा कर बोली।

" और हां साहब, जब तक रहना है यहां रहो आराम से। बड़े साहब को मैंने बता दिया है कि आप आए हुए हो यहां दूर देश से। " बसंती यूं बोली जैसे कि यहां की मालकिन वही हो। मैं कृतज्ञ था।


" चाय मिलेगी?"

" हां, क्यों नहीं। अभी लाई। " 


 बसंती ने खूब मीठा डालकर कड़क चाय बनाई थी। पहले ही घूंट में मेरे चेहरे की रंगत बदल गई।


" क्या साहब, अच्छी नहीं लगी चाय?" 

" नहीं, अच्छी है, पर आगे से चीनी जरा कम डालना।" 

" समझ गई साहब।" 


 कहकर वह फिर से अपने साफ सफाई के काम में जुट गई। सत्रह अट्ठरह साल की गदराय बदन की इस लड़की की देह जगह पर, मैंने नोट किया, कि जगह-जगह टैटू बने हुए हैं यानी की गोदने। शायद यह लड़की यहां के आदिवासी समुदाय की थी।


" सुनो बसंती, तुम यहां की रहने वाली हो?" मैंने पूछा।

" हां " 

" अच्छा, बेधक घाटी के बारे में जानती हो?" 

" हाय साहब " कह कर वह मेरी कुर्सी के पास जमीन पर धम्म से बैठ गई।

" नाम मत लो वहाँ का।  पता है वहां जो भी जाता है कभी वापस नहीं आता। "


 उसकी बड़ी-बड़ी आंखें विचित्र प्रकार से फैल गई थी।


" यह सब बकवास है। " मैंने खींज कर कहां।

" वहां हनुमान जी का भी कोई मंदिर है ?" 

" अरे वाह साहब, आप तो बहुत कुछ जानते हो इस इलाके के बारे में। " 

बसंती मेरे ज्ञान पर हैरान होकर बोली।


" साहब, सुनसान मंदिर है, घने जंगलों के बीच। बड़ा खतरनाक है। वो जो निहि गांव है ना, वहीं से होकर रास्ता जाता है। बड़ा पथरीला और झाड़ खंखार भरा रास्ता है। पर आप क्यों पूछ रहे हो यह सब।" 


" मुझे जाना है वहां। " 

" यह क्या कह रहे हो , साहब। " 

" हां जाना है मुझे , तुम ले चलोगी मुझे वहाँ। " 

" साहब मरना चाहते हो ? क्यों जाना चाहते हो ? " 

" बसंती, वहां जाने के लिए ही तो सात समुंदर पार से आया हूं।"

" वहां तो भूत-प्रेत और अप्सराएं वास करती हैं , और पता है रात को घुंघरू की आवाज भी आती है। " 

 बसंती रहस्यमयी आवाज में बोली।

" तुम गई हो कभी वहां ?"


" ना बाबा, घनघोर जंगल है। मैं क्यों जाने लगी वहाँ। मेरे बाबा, बापू, चाचा, पूरा गांव, सब जानते हैं यह बात। " बसंती रहस्य खोलते हुए बोली।


अगले तीन-चार दिन तक मैं डाक बंगले के चौकीदार और बसंती, दोनों के सामने एक ही रट लगाए रहा कि मुझे जाना है बेधक घाटी और हनुमान मंदिर। वे दोनों मन ही मन मुझे कोई पागल और ठरकी यात्री मानकर हर तरह से मुझे बहलाने के लिए तरह तरह के आकर्षक पर्यटक स्थलों के विषय में बताते रहे, पर मेरी सुई तो वहीं अटकी थी। एक रात जब मैं इन दोनों से लगभग निराश हो चला था, मैं अपने कमरे में बोतल खोल कर पेग पर पैग चढ़ा रहा था। बसंती मेरी ऐसी हालत देखकर परेशान थी। पता नहीं क्यों उस लड़की को मेरी हालत पर तरस आता था और उसे कुछ मोह सा हो गया था मुझसे। जब उससे रहा नहीं गया तो आकर उसने मेरे हाथ से गिलास छीन लिया।


" आखिर क्या वजह है, बताएंगे आप ? आपकी परेशानी क्या है? क्यों जाना चाहते हैं आप वहां ?"


मैं नशे में था। मेरी आंखों में आंसू छलक आए। मैं भावुक और विगलित हो रहा था।


" मेरे बाबा ...जानती हो बसंती , मुझे हमेशा कहते थे यदि किसी दिन मैं ना लौटा तो तुम समझ जाना, और फिर यहां बेधक घाटी के जंगलों में बने हनुमान मंदिर में आकर मेरा तर्पण कर देना।" 


 मेरी जुबान लड़खड़ा रही थी। बसंती आवाक थी।


" आपके बाबा यहीं कहीं रहते थे ?  और उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि यदि वह कभी ना लौटे तो...?"


 बसंती की आंखें मेरे द्वारा बयां किए गए आधे अधूरे वाक्य के पीछे दबे ढ़के दुख से भर आई थी।


" लंबी कहानी है बसंती... बड़ी लंबी...."


 मैं फफक रहा था।


 बसंती ने मुझे और कुरेदना उचित न समझा और वह चुपचाप मेरे सामने रखी बोतल और गिलास समेटकर मुझे सहारा देकर बिस्तर पर लिटाने के बाद चुपचाप मेरे कमरे का दरवाजा बंद करके निकल गई।


 अगले दिन जब मैं उठा तो मेरा सिर बड़ा भारी था। मुझे उठा देखकर बसंती चुपचाप नींबू पानी बना कर मेरे पास रख गई। नाश्ते के बाद वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई।


" अच्छा साहब, बताओ कब निकलना है।"


" अभी " ।


मैं एकदम से उसकी बात सुनकर उछल पड़ा।


" मैं अभी रेडी होकर आता हूं। "


 बसंती चुप रही। कुछ नहीं बोली। चौकीदार जीप ले आया था। हमें निहि गांव तक जीप में ही जाना था और उसके बाद पैदल। निहि गांव तक के पूरे रास्ते बसंती चुपचाप बैठी रही। वहां मुखिया जी के घर के सामने उसने जीप रुकवा दी। मुखिया राम लला जी को शायद उसने पहले से ही खबर भिजवा दी थी हमारे आने की। सीधे सरल व्यक्तित्व के रामलला जी हमारी राह ही देख रहे थे। बड़ी गर्मजोशी से उन्होंने हमारा स्वागत किया। वह चाहते थे कि हम उनके यहां कुछ देर रुक कर कुछ कलेवा इत्यादि करके आगे के लिए निकले। मेरी बेचैनी मुझे यहां रुकने नहीं दे रही थी। रामलला जी ने इलाके के जानकार एक लड़के को जबरदस्ती हमारे साथ कर दिया।


यहां पहुंच कर मैं हैरान था। बेधक घाटी के सौंदर्य का वर्णन शब्दों में करना असंभव था। विंध्य पर्वत श्रंखला से जुड़े इस घनघोर जंगल में पेड़ों और लताओं से गिरे विचित्र मनमोहक कुंजों और कई अद्भुत आकार की चट्टानों के दिलकश सौंदर्य को देखकर बसंती भी विस्मित थी।इस घाटी के विषय में बचपन से सुनी सुनाई और उसके दिल में घर कर चुकी मान्यताएं एक-एक कर चूर हो रही थी। वह हिरनी की तरह उछलते कूदते मुग्ध होकर यह नजारे देख रही थी। रामलला जी द्वारा हमारे साथ कर दिया गया युवक प्रताप हमें बता रहा था कि डकैतों से प्रभावित इलाका होने के बावजूद यहां आषाढ़ और कार्तिक माह में बड़ा रश होता है स्थानीय लोग यहां पर पूजा-पाठ और लंगर इत्यादि का भव्य आयोजन करते हैं इन दिनों। हालांकि जंगली जानवरों का भी खौफ रहता है यहां। कहते हैं मंदिर के नीचे एक गुफा है और इस गुफा के रास्ते का अंत आज तक कोई नहीं ढूंढ सका प्रताप बता रहा था कि शायद इन गुफाओं का निकास सतना चित्रकूट रीवा होकर निकलता है।


 हम चलते चलते एक जलप्रपात तक पहुंच गए थे। हम सब थके हुए थे। मैं पानी के पास ही एक पत्थर पर बैठ गया। यह वही जगह थी जो हमेशा मेरे सपने में आती थी। झरना, पहाड़, मंदिर , जंगल और फिर जंगल में कुछ नकाबपोश जिनके हाथों में कुल्हाड़ियाँ होती थी। मैं अक्सर ऐसे सपने ही देखता था कि वे लोग पेड़ों को बेदर्दी से काट रहे होते थे। खून के फव्वारे छूटते थे और तभी तभी मेरे बाबा का कटा हुआ सर मेरी आंखों के सामने घूमने लगता था, और एक आवाज गूंज गूंज उठती थी तर्पण करना ....तर्पण ...।


और मैं पसीने से भीगा डर कर उठ बैठता था।


अभी भी अचानक ही जागती आंखों से मुझे वही सब दिखाई देने लगा। मैं कांप गया ठंडे पानी के छींटे मैंने अपने मुंह पर मारे। फिर संयत होकर बसंती की ओर देखकर बोला , " बसंती तुम पूछ रही थी ना कि मैं यहां क्यों आना चाहता था, तो सुनो, आज मैं भी मुक्त हो जाना चाहता हूं अपने सपनों के भ्रमित जाल से।  मेरे बाबा एक स्वतंत्र पत्रकार के साथ ही प्रकृति प्रेमी भी थे। वे चित्रकूट में ही रहते थे। तब मैं 15 वर्ष का रहा होऊँगा। बाबा को पता चला कि इस बेधक घाटी में पुलिस और वन विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से जंगल काटे जा रहे हैं। आदिवासियों को शराब और रुपयों का लालच देकर ठेकेदार दिन में पेड़ कटवाता था और रात को ट्रकों में भर भर कर लकड़ी उठा ली जाती। मेरे बाबा ने एक स्टिंग ऑपरेशन करने की ठानी। उन्होंने एक दिन यहां के थानेदार को फोन किया और किसी फर्जी केस की जांच पड़ताल करने के बहाने उनसे मिलने का समय तय कर लिया। उन्हें पता था कि उस समय फॉरेस्ट ऑफिसर और ठेकेदार इत्यादि सब मिलकर यहां थाने में शराब और कबाब का लुफ्त उठा रहे होते हैं। बाबा ने उन सब की सारी बातें रिकॉर्ड कर ली। पर एक गलती हो गई बाबा से।


उन्होंने अगले दिन थानेदार को फोन किया और कहा कि आप लोग इस अवैध रूप से जंगलों की कटाई का काम तुरंत रोक दो नहीं तो मैं अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई कैसेट मीडिया में दे दूंगा। थानेदार घबरा गया। वह तुरंत बाबा की बात मान गया और उसने बाबा को हनुमान मंदिर में बुलाया। कहा यह था कि बाबा के सामने ही वह सब लोग जो इन कामों में जुटे हैं, हनुमान मंदिर में कसम खाएंगे कि आगे से वे कभी इस प्रकार के अवैध कामों में हाथ नहीं डालेंगे। बस बाबा वह रिकॉर्डिंग वाली कैसेट उन्हें लौटा दे। बाबा ने जाते समय मुझे बुलाया था और कहा कि वे किसी जरूरी काम से बेधक घाटी के हनुमान मंदिर में जा रहे हैं। यदि वे ना लौटे तो मैं तुरंत ही अपनी मौसी के पास अमेरिका चला जाऊं और फिर कुछ सालों बाद जब भी कभी मुझे मौका मिले तो मैं यहां आकर उनका तर्पण करूं। बाबा ने कैसेट की एक कॉपी मीडिया में भी दे दी थी, और उन्होंने मीडिया को भी यही कहा था कि यदि वे ना लौटे तो यह कैसेट प्रसारित कर दी जाए।


बाबा कभी नहीं लौटे।


इतना कहकर मैं रुका मैं हांफ रहा था। बसंती और प्रताप की आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे। बसंती ने कातर निगाहों से मुझे देखा।


 मैं आगे बोला," बाबा नहीं लौटे। पुलिस में पता नहीं क्या जांच पड़ताल की, कि बाबा की लाश तक नहीं मिली। मीडिया में बाबा द्वारा की गई रिकॉर्डिंग प्रसारित होते ही हंगामा मच गया। सारे अपराधियों को धर पकड़ा गया। जंगल का बहुत नुकसान तो हो ही चुका था पर जो बचा था उसे बचा लिया गया। मैं अमेरिका में सब कुछ सुनता पढ़ता रहा। बाबा का यूं चले जाना मेरे मन मस्तिष्क में खौफ बनकर बैठ गया था। आज मैं यहां आकर मुफ्त हुआ हूं। जानती हो, बाबा बताते थे कि यह जो झरना है इसका पानी कभी खत्म नहीं होता और जब तक मेरे बाबा जैसे लोग हैं हमारी यह जंगल और प्राकृतिक संपदा भी कभी खत्म नहीं होगी। कभी नष्ट नहीं होगी। "


 मैं अपनी रौ में विभोर होकर बोल रहा था।


" उठो साहब, शाम ढलने वाली है। मंदिर में बाबा का तर्पण सांझ ढले से पहले ही करना होगा।" 

 मैंने बसंती की और भरी आंखों से देखा। वह सरल भोली भाली सी लड़की मेरी और भाव विभोर होकर देख रही थी।



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