पुकारा है जिन्दगी को कई बार
पुकारा है जिन्दगी को कई बार
प्रिय साथियों,
चार फरवरी को विश्व कैंसर दिवस के रूप में मनाया जाता है।
मैं एक कैंसर सर्वाइवर हूँ।
मैने जो भोगा, उस संघर्ष की, जीजिविषा की सकरात्मकता की कहानी लिखी है ....
" पुकारा है जिन्दगी को कई बार ...dear cancer "
एक बार जब हम नकारात्मक सोच के चक्र में फंस जाते हैं तो वहां से निकलना कठिन होता है। जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों के मध्य हमें खुशी के पल कम याद रहते हैं और कष्टों में बिताए पल शिला की भांति छाती पर जमे रहते हैं।आत्मा दया हमारा कि स्थाई भाव बन जाता है , और रोग के समय तो दूसरों से सहानुभूति पाने की चाह में यह भाव अपने चरम पर पहुंच जाता है।
कैसर जैसे रोग का नाम सुनते ही रोगी के प्रति बेचारगी, नकारात्मकता एंव निराशा के मनोभाव घरे लेते है। रोगी रोग से नही नही, अपनी एंव अपने प्रिये जनों के इन्हीं चिन्त्य प्रतिक्रियाओं के चलते मृत्यु द्वार पर पहुँचने से पहले ही हथियार डाल देता है। जोकि मृत्यु से भी अधिक भयावना है। मेरे साथ सदा उल्टा ही होता है।
मैं ऐसी ही हूं, या कहें कि जीवन और उसकी हर परिस्थिति के प्रति एक स्वीकार भाव संचारित रहता है और यह भाव जूझने की ओर प्रेरित करता है बजाय कि हाथ पर हाथ धरे आने वाली हर समस्या को कोसते नकारते हुए उससे मुंह छुपाते रहने के।
यकीनन, जब मुझे कैंसर जैसे रोग से ग्रसित होने का पता चला तब मैं ऐसी परिस्थितियों में फंसी थी कि आत्म घात का रास्ता सबसे सरल जान पड़ता था।
जब व्यक्ति धन से रिश्तो से, संबंधों से विप्पन हो और जीवन के किसी दूरूहतम मोड़ पर एकाकी संघर्षरत हो तो बस उसका आत्मबल की एकमात्र संबल होता है।यह आत्मबल कैंसर ने क्षीण कर दिया था।पर यह चिंता का, नकारात्मकता का , हार का भाव क्षणिक ही था।
यह यकीनन मेरी हठधर्मिता थी, मेरी जिजीविषा थी कि मैंने हार नहीं मानी।मैंने सोचा जीवन जितना भी जिया है , संपूर्ण था। अतिशय सुख, प्रेम , रास रंग और उत्सवों से भरे जीवन के किसी मोड़ पर आगे की सड़क पर यदि कुछ नुकीले कंकड़ बिछे हैं और नंगे पांव चलना ही पड़ेगा, ना तो पीछे मुड़ने की गुंजाइश होती है, ना ही उस मोड़ पर ठहर जाने का विकल्प, तो क्या किया जाए ? रास्ता तो बस एक ही होता है कि पांवों को कठोर बना लिया जाए।
मेरे पांव कठोर हो चुके थे
दरअसल हमारे मस्तिष्क की संरचना ही इस प्रकार की है कि हम वह नहीं देखते जो हमारे पास है, हमारी समस्त ऊर्जा उसी एक अप्राप्य वस्तु को पाने में क्षीण होती रहती है जो हमारे पास नहीं है। मेरे जीवन का यह पल ऐसा था जब मुझे मैं अटक भटक नहीं सकती थी। मुझे वह दिखाई दे रहा था जो मेरे पास है।
मेरे पास मेरे बच्चे थे, मुझे प्रेम करने वाले मेरे पति थे , मेरा घर था जिसे मेरी जरूरत थी। मुझे नहीं पता था कि इस रोग का अंत क्या होने वाला है पर यह पता था कि जो सूर्य आज निकला है मैं उसे देख पा रही हूं, रात जो ढल रही है मेरी सांसे उस ढलती रात के साथ ढल नहीं रही है, चल रही हैं। इस पल में मैं हंस सकती हूं या रो सकती हूं, मैंने हंसना चुना। जितना भी था जो भी था उसे भरपूर जी लेना चाहा , केवल जी लेना ही नहीं अपने आसपास के माहौल को भी जीवन के स्पंदन महसूस करवाना चाहा ।मृत्यु के खौफनाक साय को भला कोई कैसे अपने इन अनमोल पलों के ऊपर मंडराने दे सकता है।
मृत्यु कम से कम मेरे इन पलों का शाश्वत सत्य तो नहीं ही हो सकती थी। यह पल तो जीवन के जीवन से भरपूर उल्लास के थे। जिंदगी देने का नाम है। मुक्त हस्त से उन्मुक्त होकर स्वंय से निरपेक्ष होकर लुटाने का नाम है। जीवन और मृत्यु के मध्य बहती क्षीण सी उम्मीद की धारा में बहती वे दोनों अपने नैसर्गिक प्रेम और माधुर्य को जीवन्त रखे थी.।
एक उत्साह था, हिम्मत थी, कुछ कर गुजरने की लगन थी।
अब इस मुकाम पर क्या खोया क्या पाया जैसे प्रश्न संदर्भ हीन थे। आगे आने वाली हर चुनौती हर खुशी हर परिस्थिति के लिए स्वीकार भाग था।
जीवन का मूल्य समझा गया कैंसर।
वो सब पल, जब हम जिन्दा हैं
हंस सकते है
महसूस कर सकते है
खिलखिला सकते है...
तब तक हम मरे नही जिन्दा है।इसी भाव को ले कर लिखा गया...
पुकारा है जिन्दगी को कई बार ... dear cancer