निर्णय तो मेरा होगा
निर्णय तो मेरा होगा
त्रिवेणी कला संगम के प्रांगण में बैठी पृथा गहरी सोच में डूबी थी। उसकी टीम के लड़के लड़कियां जबरदस्त बहस और विचार विमर्श करते हुए उसे घेरे हुए बैठे थे।
कुल दो सप्ताह का समय रह गया था, और अभी तक यह लोग निर्णय नहीं कर पाए थे कि नाट्य प्रतियोगिता के लिए कौन सा एकांकी चुना जाए। विपुल ने दो नाटक लिखे थे और एक एकांकी नियति ने भी लिखा था , पर किसी भी नाटक पर एक राय नहीं नहीं बन पा रही थी।
"सुनो क्यों ना हम पन्ना धाय पर नाटक करें। कितना मार्मिक और कालजयी एकांकी है दीपदान, रामकुमार वर्मा का लिखा हुआ।"
विभा चहक कर बोली।
"यह देखो, यह है हमारे सृजन नाट्य ग्रुप की महान अदाकारा मिस भूली भटकी।
मैडम नियम पढ़ो प्रतियोगिता के। नाटक टीम द्वारा लिखा गया ही होना चाहिए किसी अन्य लेखक का नहीं।"
विधु ने विभा के सिर पर चपत लगाते हुए हंस कर कहा।
"अरे यार, यह तो मैं भूल ही गई थी।" विभा अपनी जीभ काटते हुए बोली।
" पृथा मैम, आप ही कुछ सजेस्ट करो ना। दीप ने पृथा की ओर देखते हुए कहा।
वह काफी देर से सोच-विचार में डूबा, सबकी फालतू की हंसी चुहल देखकर भीतर ही भीतर खींज रहा था।
तभी मृणाली ताली बजाते हुए बोली , "पृथा मैम क्यों ना हम दीप दान को ही बेस बनाकर अपना एक नया वर्जन लिखें। नाटक पहले से ही लिखा हुआ है तो उसे थोड़ा कंटेंपरेरी लुक देने देते हुए बहुत बढ़िया स्क्रिप्ट बन सकती है। बोलिए ना मैम आपकी क्या राय है।"
मृणाली खुशी से चहकती हुई पृथा के कंधों पर झूल गई थी।
सकपका कर पृथा सचेत हुई।
" सॉरी, क्या कह रही थी तुम ? "
" मैम, बड़ा सुंदर आईडिया दिया है मृणाली ने।
" दीप बोला।
"हम दीपदान नाटक को बेस बनाकर अपना एक नया एकांकी बनाएंगे। तुम सब की क्या राय है ? दीप ने ने बाकी के टीम मेंबर्स की ओर देखते हुए पूछा।
" यह तो स्क्रिप्ट सामने आने पर ही पता चलेगा। "विपुल गंभीरता से बोला।
" तो ठीक है, मृणाली तुम स्क्रिप्ट तैयार करो, अभी बारह बजे हैं हम लंच के बाद तीन बजे यहीं मिलते हैं। यदी सब ठीक लगा तो आज से ही रिहर्सल शुरू कर देंगे।"
"ओके मैम, ठीक है।
मैं अभी लाइब्रेरी में बैठकर स्क्रिप्ट तैयार करती हूं।
पर एक बात माननी पड़ेगी आपको, आप सीनियर हैं तो लीड रोल और डायरेक्शन का जिम्मा आपका।"
"ठीक है देखते हैं।"
एक फीकी सी हंसी हंसकर पृथा ने अपना पर्स उठाया और वहां से बाहर निकल आई। उसके मस्तिष्क में बवंडर मचा हुआ था। सुबह घर से निकलते समय की मां के साथ कहासुनी हो गई थी। पता नहीं क्यों माँ स्वंय माँ होकर भी उसकी व्यथा को समझ नहीं पा रही।
क्या वास्तव में ही जब दो प्राथमिकता सामने हो तो व्यक्ति सबसे सरलतम विकल्प को ही चुनता है ? दरवाजे से बाहर निकलते हुये उसने पिता के मुंह से निकले जो शब्द सुने थे उन्होंने प्रथा को संज्ञा शून्य कर दिया था।
"अचला, समझा दो अपनी इस मुंहफट बेटी को। कहां तो लड़की को एक बार ब्याहने में ही हम जैसे मां-बाप का दम निकल जाता है और कहां यह फिर से आ बैठी है हमारे सिर पर। अब इसे फिर से निबटाये तो ही दूसरी की बारी आएगी ना "
मैम, आप ठीक तो हैं ना ?"
विपुल ने अचानक से उसके सामने आकर पूछा तो वह अचकचा गई।
" आपकी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही। आप कहें तो हम कल से शुरू करें रिहर्सल ? "
"नहीं, नहीं मैं बिल्कुल ठीक हूं।
दिन कम है और काम बहुत।
अभी से शुरु करते हैं।
आओ चलें।"
मृणाली ने बहुत बढ़िया काम किया था।
उसका लिखा नाटक बहुत पसंद आया सब को।
अब बारी थी नाटक के पात्रों की कास्टिंग की।
सर्वसम्मति से दीप को सूत्रधार और पृथा पन्ना धाय का रोल दे दिया गया।
बाकी के रोल भी थोड़ी सी बहस और विमर्श के बाद आपस में बांट दिए गए।
" मृणाली तुम स्क्रिप्ट के प्रिंट आउट निकलवा कर सब में बांट दो और मेल भी कर दो।
कल मंडे है तो मेरा ऑफिस भी रहेगा।
पर तुम सब ठीक दस बजे यहां इकट्ठे होकर नाटक की रीडिंग प्रैक्टिस करेंगे। मैं शाम को तुम्हें ज्वाइन कर लूंगी।"
"ठीक है मैम।"दीप बोला।
"और हां, रीडिंग के समय आवाज के उतार-चढ़ाव और टोन वैसी ही रहेगी जैसे तुम्हें सिखाई गई है।
शब्दों और वाक्यों के बीच का गैप और दोहराव कैसे उच्चारण करने होंगे यह सब तुम्हें अच्छे से पता होना चाहिए।"
"आप चिंता ना करें मैम, आखिर हमें आपकी गाइडेंस मिल रही है। गलत कैसे होगा।"विपुल पृथा की चिरौरी करते हुए बोला। सब हंस पड़े।
पृथा ने किंचित मुस्कुरा कर सबको नजर भर कर देखा और फिर बाय बोल कर वहां से निकल गयी।
घर पहुंचते ही मां ने उसे आ घेरा।
" क्या सोचा है तूने पृथा ? कुछ दिमाग सही हुआ या अभी भी वही अटकी है।"
मृदा को अच्छा नहीं लगा।
"मां यह क्या, दीदी अभी भीतर घुसी नहीं कि आप फिर से शुरू हो गई अपना वही राग लेकर। "
पृथा से दो साल छोटी है मृदा।
मां- पिता जी का आजकल पृथा के साथ जो रवैया है वह मृदा को फूटी आंख नही सुहाता । उसे चिढ़ होती है कि दीदी चुपचाप क्यों सहन करती जाती है यह सब।
अपनी जिंदगी को फैसले लेने के लिए उसने दूसरों को इतनी छूट क्यों दे रखी है कि आते जाते सब उस पर इतना दबाव डालते रहते हैं।
मृदा की बात सुन कर मां चिड़ गई।
"तू तो अपना मुंह बंद ही रख मृदा।
बांस जितनी लंबी हो चली है, पर अकल घुटनों में ही है।
तलाकशुदा और उस पर बच्चे वाली ...अभी शुक्र मनाओ कि इतने अमीर और भले घर का रिश्ता आया है। आजकल तो कुंवारियों के लिए जूतियां घिस जाए हैं , अच्छा घर बार ढूंढते और इनके हैं कि नखरे की कम ना होते।"
मां की बुड़बुडाहट चालू थी।
आंगन में स्कूटर खड़ा करते करते पिताजी के कानों तक क्या पहुंच और क्या नहीं, पर उन्हें ये तो समझ आ ही गया था कि ये चीखना चिल्लाना पृथा को ले कर ही है।
खाली टिफिन और दफ्तर से लौटते समय लाई गई सब्जियों का झोला मां को पकड़ाते हुए पिताजी बोले, "अच्छा तो आ गई है तुम्हारी लाडली वापिस। तो उसे अच्छी तरह से समझा दो कि कल अतुल उससे मिलने आएगा शाम को।
घर पर ही रहे वह।
उसे ये भी समझा देना कि कोई ऊंची-नीची बात ना करें अतुल से।
जितनी जल्दी यह झंझट खत्म हो उतना भला।
अगले दिन जब पृथा ऑफिस के लिए निकली तो मां ने फिर से चेता दिया, "छोरी जल्दी लौट आइओ, वहां अपनी नाटक मंडली के साथ रामलीला करने मत बैठ जाना।"
मन कसैला हो गया पृथा का। कैब में बैठते ही उसने दीप को फोन मिलाया, " दीप, मैं आज रिहर्सल पर नहीं आ सकूंगी। कुछ बहुत जरूरी काम आ गया है। तुम लोग जारी रखना रिहर्सल्स, और डायलॉग याद करो।
टेक्निकल काम तो वैसे भी मृणाली संभालती है , वह देख लेगी।
बाकी का काम मैं आऊंगी तब देखते हैं, ठीक है ?"
" जी मैम।
पर आप कल जरूर आना।"
दीप के स्वर में छिपी निराशा पृथा से छिप ना सकी थी।
शाम को अतुल अकेले ही आए थे। तीस - चालीस वर्ष के सौम्य, ठहरे हुए शांत व्यक्तित्व वाले अतुल को देखकर पृथा को कुछ हौसला मिला। चाय इत्यादि के पश्चात उन्होंने पृथा से अकेले में बात करनी चाही।
पृथा उन्हें लेकर टेरेस पर आ गई। उत्तरायण का सूर्य, ढलती सांझ में नारंगी छोटा लिए विरल बादलों की ओट में लुका छुपी खेल रहा था।
पृथा के उलझे हुए मन में दो सर्वथा विपरीत भावानुभूतियां उमड़ घुमड़ रही थी।
अतुल ने बात शुरू की, "देखो पृथा हम दोनों अपने जीवन के अहम हिस्से जी चुके हैं और आज लगभग एक सी ही परिस्थिति में एक दूसरे के सामने खड़े हैं। बेहतर है कि हम खुलकर बात करें, और एक दूसरे को समझने का प्रयास करें।"
" जी " पृथा बस इतना ही बोल पाई।
"देखो, रुचि से मेरी लव मैरिज हुई थी। कैंसर ने उसे मुझसे छीन लिया "
अतुल कुछ देर के लिए चुप रहे फिर बोले, "मेरी एक बेटी है छः साल की, लावण्या, मैं पिछले दो सालों से नौकरों की मदद से उसे अकेले ही पाल रहा हूं।
अब थक गया हूं अकेले सब कुछ संभालते संभालते।"
"जी।"पृथा असमंजस में थी कि क्या बोले।
"आप बताएं अपने बारे में, तलाक क्यों हो गया था आपका।"
"जी... वह ..."सांस रुकने लगी थी पृथा की।
सारे शब्द गड्डमड्ड से होकर आंखों के सामने तारे बनकर नाचने लगे। अंधेरा सा छा गया आंखों के आगे।
"देखो, खुलकर बात नहीं करेंगे तो हम सही डिसीजन कैसे ले पाएंगे अपने आने वाली जिंदगी का।"अतुल बोले।
"जी, वह ... उन्हें मेरा नौकरी करना, थिएटर में काम करना पसंद नहीं था।"
"बस यही कारण था ?"
"नहीं, उन्हें शक था कि दफ्तर में मेरा किसी के साथ रोमांस चल रहा है।"
उत्तेजना में भरी पृथा के मुंह से यह शब्द इतनी तेजी से निकले कि वह हांप गई।
"अच्छा, चलिए कोई बात नहीं, नौकरी तो वैसे भी करने की जरूरत नहीं आपको और आपके थिएटर के शौक से मुझे कोई एतराज नहीं।
बल्कि आपके किसी भी शौक से मुझे कोई एतराज नहीं, जब तक कि आप मेरी बेटी को सगी मां सा प्यार दे। "
पृथा ने नजर भर कर पहली बार अतुल को देखा।
वह तौलना चाह रही थी उसके शब्दों को। एक तरफ यह शब्द थे तो दूसरी तरफ उसकी भाव भंगिमाऐं।
पृथा किसी एक नतीजे पर पहुंच नहीं पाई। अतुल के जाने के बाद पृथा गहरी सोच में डूबी थी। उसका जीवन एक ऐसे कागार पर खड़ा था जहां एक गलत फैसला उसे उम्र भर के लिए पश्चाताप की अग्नि में झोंक सकता था। अतुल के जाने के बाद मां पृथा से पूछती रही कि क्या बातें हुई दोनों में, अतुल की बातों से क्या लगा पृथा को, क्या वह राजी है शादी के लिए ? पर पृथा के भीतर जो मौन पसरा था उसका अक्स बाहर तक छाया था।
इसका प्रतिफल यह था कि वह मौन, सन्नाटा बनकर पूरे घर में आ पसरा था। हर किसी की अपनी दुविधा थी, अपना उहापोह था।
तभी लैंडलाइन फोन की घंटी बजी, जिसने इस सन्नाटे को भंग किया। फोन माँ ने उठाया। अतुल का फोन था। पृथा अतुल को पसंद थी। अब वह मां से पृथा की राय जानना चाह रहा था।
"पृथा क्या कहेगी बेटा। इतना अच्छा घर, वर तो किस्मत से मिलता है।"
मां की आवाज में खुशी की खनक थी।
पृथा दरवाजे से लगी खड़ी, सब कुछ सुन रही थी।
"पर एक बात कहना चाहता हूं।" अतुल बोले।
"हां- हां, कहो ना बेटा।"
"बात यह है कि मैं पृथा के साथ शादी के बाद उसके बेटे मृदुल को अपने साथ नहीं रख पाऊंगा।"
मां का चेहरा फक्क रह गया। मां को पता था कि पृथा पीछे खड़ी सब सुन रही है।
उन्होंने एक बार पीछे मुड़कर उसे देखा फिर बोली, "पर यह कैसी बात है। बेटा हम कैसे संभालेंगे उसके छोटे से बेटे को। तुम तो जानते ही हो हमारे घर की माली हालत और फिर पृथा की छोटी बहन की शादी के बाद तो मैं बिल्कुल अकेली रह जाऊंगी। अब इस उम्र में बच्चे संभालना...."।
"देख लीजिए आप लोग, दरअसल यदि मृदुल पृथा के साथ रहेगा तो वह लावण्या की और उतना ध्यान नहीं दे पाएगी जितना उसे देना देना चाहिए, और रही बात मृदुल की परवरिश की तो मैं आपको उसके लिए दस लाख रुपए दूंगा।
उसकी पढ़ाई लिखाई और जरूरतों के लिए आपको चिंता नहीं करनी पड़ेगी।"
" दस लाख " ! मां का मुंह खुला का खुला रह गया।
फिर वह सचेत होकर जल्दी से बोली, "हां - हां तुम कहते हो तो ठीक है।
यही ठीक रहेगा । हमें मंजूर है बेटा।"
" तो ठीक है, हम अगले शनिवार शादी की डेट रखते हैं। छोटी सी गैदरिंग रहेगी, ज्यादा तामझाम मुझे पसंद नहीं।"
"जैसा तुम कहो बेटा। "
प्रसन्नता से खिली माँ ने पृथा को गले से लगा लिया।
"अगले शनिवार शादी है तुम्हारी बेटा, बधाई हो।"
पृथा ने मां को अपने से अलग करते हुए गुस्से से पूछा, "और यह दस लाख की क्या बात हो रही थी ? और मृदुल के लिए वह क्या कह रहे थे ?"
"कुछ नहीं बेटा, तुम नए घर जाओगी, नई जगह, नई लोग। सब कुछ देखने समझने में वक्त तो लगेगा ना। तो मृदुल हमारे ही पास रहेगा।"
" यह शर्त रखी है शादी की उन्होंने ? "
पृथा बिफर पड़ी, "और दस लाख ?"
"अरे बेटा, शादी के बाद अतुल का सब कुछ तुम्हारा ही तो है। तो मृदुल के लिए वह दस लाख बैंक में जमा करवा देगा, बस इतनी सी बात है।
पृथा माथे पर हाथ रखकर चौखट पर दोहरी होकर गिर पड़ी।
अगले दिन पृथा ऑफिस ना जाकर सीधे मंडी हाउस पहुंच गई। पूरी टीम रिहर्सल में जुटी थी। पृथा को देखकर सब खुश हो गए।
"अरे वाह मैम , आप इस समय।
अब तो समझो नाटक पूरी तरह से तैयार हो ही जाएगा।" विपुल बोला
"हां, तुम लोग बताओ, कहां तक पहुंचे ?" पृथा ने बेंच पर बैठते हुए कहा।
" मैम, देखिए नाटक की शुरुआत में पर्दा उठने से पहले सूत्रधार मंच पर आता है।
" मृणाली ने कहा।
फिर वह दीप की और देख कर बोली, "दीट, तुम आगे आओ और पृथा मैम के सामने अपने डायलॉग पढ़कर दिखाओ।"
"मैम, आप सुनिए, और जहां आवाज का उतार-चढ़ाव गलत हो वहां तो दीजिएगा।"दीप ने कहा और अपने डायलॉग पढ़ने लगा।
"यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।"
इतना कहकर वह जोरदार अट्टहास करता है।
फिर सोच में डूबा इधर-उधर चक्कर काटता है।
उसके बाद सामने देखता हुआ फिर से कहना शुरू करता है।
"सच ही तो लिख गए हैं हमारे पूर्वज।
देवता अब इस समाज में होंगे भी तो क्यों कर? दोगला समाज है यह।"
जोर से हंसता है।
"दोगला समाज, दोगली नीतियां। एक और तो कहते हैं कि नारी की पूजा करो दूसरी और मैत्री संहिता में नारी को झूठ का अवतार तक कह दिया। और सुनो, ऋग्वेद में तो स्त्री हृदय को भेड़ियों का हृदय कह दिया।
दासों की सेना का अस्त्र शस्त्र कह दिया
क्या उम्मीद रखोगे यार , इस समाज से ।कौन समझेगा यहां। ढोते जा रहे हैं हम सभी यह अभिशाप पीढ़ी दर पीढ़ी।
अरी नारी, बलिहारी है तेरे संयम, त्याग और बलिदान की, जिसे पुरुष समाज तुम्हारी दुर्बलता और अपना अधिकार मानता आ रहा है।
सदियों से जकड़ी बेड़ियों में, अरी नारी, तू कब जाने गी दारुण दशा अपनी। कभी देवी तो कभी अबला जो भी बनाया तुझे इस पितृसत्तात्मक समाज ने तू बनती गई। अब जाग, उठ, अपने अपने हौसलों से अपनी तकदीर बदल।"
पृथा ध्यान से सुन रही थी।
उस की आँखों में पनीली बदलीयाँ तैर रही थी।
ये वह बदलियाँ थी जिन में विद्धुत लहली की चमकार हिलोरे ले रही थी।
पृथा कांप रही थी।
दीप की इतनी बढ़िया परफॉर्मेंस पर सब ने तालियां बजाई।
" ठीक लगा आप को मैम ?"दीप ने पुलकित होकर पृथा से पूछा।
" हां बहुत अच्छा " पृथा कुछ सहज हो कर बोली।
"पर सूत्रधार को पर्दे के आगे नहीं पर्दा उठने पर स्टेज पर आने दो मृणाली।
" पृथा ने सुझाया।
" साथ ही डॉयलाग और भाव भंगिमाओं के उतार-चढ़ाव के साथ लाइट और बैकग्राउंड म्यूजिक रखो यहां।"
" वाह, क्या बात सुझाई है मैम।
मैं कर लूंगी यह सब।
" मृणाली बोली।
इसके बाद वह पृथा को आगे के दृश्य समझाने लगी।
"मैम, इसके बाद नियति और विपुल के बेडरूम में दोनों की बहस का दृश्य है।
विपुल चाहता है कि उनके तीन महीने के बच्चे को क्रैच में डालकर नियति जॉब करें। लंबी बहस के बाद विपुल कहता है कि पन्नाधाय जैसी नारी भी तो थी जिन्होंने अपने बच्चे को अपने कर्तव्य के लिए मौत के मुंह तक में धकेल दिया और एक तुम हो कि अपनी डगमगाती गृहस्थी को संभालने के लिए बच्चे को क्रश में नहीं भेज सकती। "
बहुत बढ़िया जा रहा है सीन, क्यों मैम क्या कहती हैं आप ?"दीप बोला।
पृथा आपे में नहीं थी।
रह रह कर वही कल की बाते उसके मस्तिष्क में हथौडे सी बज रही थी।
उस की आंखें पता नहीं किस शून्य में खोई थी। नाटक की रिहर्सल में जी-जान से जुटे इन लड़के लड़कियों को क्या मालूम कि पृथा किन झंझावातों को अपने सीने में दबाए सहज होने का पूर्ण प्रयत्न करते हुए भी फिर फिर उन्हीं अंधेरी गलियों में भटक रही है।
"पृथा मैम, इसके बाद दृश्य बदलता है बैकड्राप पर प्रोजेक्टर से पन्ना धाय के अंतःपुर का दृश्य उभरेगा। बैकग्राउंड में सैड म्यूजिक रहेगा।
अब पन्नाधाय यानि कि आप की ऐंट्री मंच होगी।
ये रहे आप के डॉयलाग।
" मृणाली ने एक पेपर पृथा को पकड़ाते हुये कहा।
" हां हां ठीक है " कहकर पृथा खड़ी हो गई और पेपर पर लिखे अपने डायलॉग पड़ने लगी।
" यह कैसी काली अंधेरी रात है।
पूरा नगर मयूर पंख कुंड में दीपदान करता हुआ नृत्य और संगीत में मग्न है।
यह नूपुर ध्वनियां कैसी कर्कश सुनाई पड़ रही है।
चित्तौड़ तो राग रंग की भूमि नहीं है, यह कैसा सर्वनाश हो रहा है।
महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी उस निर्दयी बनवारी ने।
अब तुलजा भवानी मेरे कुंवर की रक्षा रक्षा करें। "
पन्न घाय के रोल में डूबी पृथा व्याकुल होकर इधर-उधर देखती है।
फिर आगे पढ़ती है।
" थोड़ी ही देर बाद वह कुंवर जी को भी मारने आएगा। मुझे कुछ करना होगा। मैं कुंवर की शैया पर अपने बेटे चंदन को सुला दूंगी। "
पृथा सिसकियों की आवाज उभरती है।
" चंदन का बलिदान दे दूंगी मैं।
हां कुंवर जी पर मैं अपने चंदन को वार दूंगी।
हे मां तुलजा भवानी, मेरे ह्रदय को वज्र सा बना दो, मां के ह्रदय को पत्थर का बना दो, ममता के सारे स्रोत्र बंद कर दो ताकि मैं अपने कर्तव्य ....."
इतना पढ़ते-पढ़ते पृथा एकदम विक्षिप्तों की तरह रोती हुई जमीन पर दोहरी होकर गिर पड़ी। सिसकियों में डूबे अस्फुट शब्दों में वह एक ही बात दोहरा रही थी .... नहीं नहीं मैं पत्थर नहीं हो सकती, मैं नहीं दूंगी यह बलिदान ...मैं नहीं होने दूंगी यह सब ...मैं नहीं होने दूंगी ....मृदुल को मैं किसी भी कीमत पर नहीं छोडूंगी।
सभी उसकी इस दशा को देखकर हतप्रभ और सन्न से रह गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक पृथा मैम को क्या हो गया है।
विभा और नियति ने बेहाल पृथा को जबरदस्ती उठाकर बेंच पर बिठाया।
"शांत हो जाओ पृथा मैम।
सब ठीक है।"
नियति ने पानी की बोतल पृथा की और बड़ाई।
पृथा ने दो घूँट पानी पिया और पल्लू से अपना चेहरा पौंचा।
कुछ संयत होकर वह बोली, "हां मैंने सब सोच लिया है। अब सब ठीक ही होगा।"
पृथा के चेहरे पर एक दृढ़ता छा गई थी।
उसके चेहरे पर एक स्निग्ध नमी थी, जैसे खूब पानी बरसने के बाद सारी प्रकृति नवल धवल होकर संपूर्ण वैभव के साथ अपनी हरीतिमा से लक दक हो उठती है।
पृथा के आसपास उपस्थित सृजन नाट्य ग्रुप के सदस्यों को चाहे कुछ समझ में आया हो या ना आया हो पृथा को समझ आ चुका था कि अब उसे क्या करना है।
" मुझे अपनी जिन्दगी में क्या करना है और क्या नहीं, इस बात का अंतिम निर्णय तो मेरा है होगा।"
उलझावों के घुप अंधेरे छंट चुके थे।