तेरे हाथों में जीवन डोर

तेरे हाथों में जीवन डोर

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"तूने पिछले जनम में कोई पुण्य कर्म किए थे जो सास अच्छी मिली वर्ना तूने अपनी दादी को देखा ही था इतने वर्षों तक अपनी आंखों से।"

किरणजी ने बिटिया के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।

वे कहती थीं - "बहू... हुं... बहू को तो कठपुतली के माफिक नाचना चाहिए पूरे घर परिवार के लिए। यही धर्म है उसका।"

अंशिका ससुराल से दूसरी बार मायके आई थी। माँ से अपनी सासू की तारीफ करते नहीं थकती थी वह।

"माँ दादी तो मेरी सास जैसी कतई नहीं थीं।"

"बल्कि वे तो अपने अंतिम समय में 79-80 की उम्र में भी आपको जली कटी ही सुनातीं थीं।"

"साॅरी माँ! मैं भी मारे डर के उनसे आपकी बुराई सुन लेती थी। भैया नहीं सुनता था पलट कर बोल देता था।"

"हमारी सासू माँ!" किरणजी ने गहरी सांस लेकर कहा।

"नारी जाति के जीवन के समस्त पक्षों की जानकारी में पारंगत विशेषज्ञ और अच्छे शब्दों में कहा जाए तो मानो नारी पर डाक्टरेट किया हो उन्होंने।"

"बहू तो उनकी नज़र में संसार की निकृष्टतम प्राणी थी जिसका पद घर में घर के भृत्य से भी कमतर था। यदि बहू को बुखार भी हो जाए तो उसकी तबियत के विषय में पूछना सास की सरासर तौहीन की श्रेणी में आता था। घर के नौकर के सिरदर्द भी हो तो सौ बार उसके हालचाल पूछतीं।"

"मुझसे कहतीं थी तुम्हारे ननद और देवर भले ही उम्र में तुमसे छोटे हों पर ये सब और इस घर के सारे छोटे-बड़े सदस्य पद में तुमसे बड़े हैं और यदि बाज़ार से नयी चूड़ियां भी पहन कर आती हो या कुछ खरीदकर लाती हो तो इन्हें बताओ और हर त्यौहार पर इनके पैर छुओ। यह तुम्हारा धर्म है।"

उनका मानना था कि हम नारियाँ संसार में ईश्वर की कठपुतलियाँ हैं।

"बहू के साथ-साथ बेटी भी उनकी नज़र में बहुत घटिया प्राणी थी। बेटियों का क्या। कठपुतलियाँ हैं। कठपुतलियों की तरह सबकी सुविधानुसार काम करना चाहिए क्योंकि देर सवेर उन्हें किसी न किसी घर की बहू बनना ही है।"

कभी कहतीं, "औरत को तो मर्दों को खिलाकर उनकी थाली का बचा खुचा खाना चाहिए।"

मैंने उनके समान औरतों को गर्त में समझने वाली दूसरी महिला आज तक नहीं देखी।"

उनकी सारी बातों का सार तत्व था स्त्री एक कठपुतली है जिसकी डोर पुरुष के हाथों में रहती है और वे उस डोर को पुरुष के हाथ में देकर बहुत खुश थीं।

अंशिका माँ से बोली, "माँ आपने तो अपनी ससुराल में सदैव यही देखा है। आप अपनी बहुओं के साथ कैसा व्यवहार करना पसंद करेंगी?"

"बेटा जिस दुर्व्यवहार से आज तक मेरा दिल आहत है यदि वही व्यवहार मैं अपनी बहुओं से करूंगी तो उनका भी दिल इतना ही आहत होगा। फिर मुझे में व तेरी दादी में क्या फर्क रहा ?"

"बेटा ! नारी कोई कठपुतली नहीं एक जीता जागता इंसान है।"

"मैं चाहती हूँ कि जो चोट मेरे मन को लगी वह किसी नारी को न लगे और फिर मेरी बहुएं तो मेरी बेटियां होंगी तेरे समान। सहेजूंगी मैं तो उन्हें और उनकी इच्छाओं को। उनके आने की प्रतीक्षा में पलकें बिछा रखी हैं मैंने।" किरणजी अत्यंत भावपूर्ण स्वर में बोलीं।

"वाह माँ ! मुझे गर्व है कि मैं आपकी बेटी हूँ," अंशिका माँ के गले से लिपट कर बोली।


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