Ranjana Mathur

Tragedy

5.0  

Ranjana Mathur

Tragedy

पटाक्षेप

पटाक्षेप

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" तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी?", लोग उससे जब- तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।"

उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे।

जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आंखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या?

" संदली!, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा।

" जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।", मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बैंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी।

" कैसी हो ?क्या चल रहा है आजकल ? ", जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा।

" बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई....", संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।"

" बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।", चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा।

" अरे वाह! क्या सीख रही हैं इन दिनों?", संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।


संदली की मम्मी अंजलि जी की बाल सखी जानकी जी।अंजलि जी के देवलोक गमन के पश्चात् उनकी बेटी संदली पर मानों वे अपना सम्पूर्ण ममत्व उंडेल देना चाहती थीं।उड़ती चिड़िया को भांपने का माद्दा रखती हैं वे मगर संदली के सम्मुख जैसे सब प्रयास विफल।

बस इतना जानती थीं कि संदली के मन में देश भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। बचपन का संदली का प्रिय गीत

"ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन"था जिसे वह हर बार फर्माइश पर उन्हें ज़रूर सुनाती जब भी जानकी जी अंजलि से मिलने जातीं।

"बेटी बड़ी होकर क्या बनोगी?"

पूछने पर तुरंत बोलती- "सैनिक" .जानकी जी उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहाँ आना वाला ठहराव अपने आप में अनुभवों के कई अनमोल रत्न समेटे हुए इस अवस्था तक अपनी अबाध गति को पूर्णविराम देकर अपनी चमक से नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन करता है।काश संदली के लिए भी वे कुछ कर पातीं !


संदली का प्रतिदिन का वही रटारटाया रुटीन......सुबह साढ़े नौ बजे कालेज के लिए निकलना और डॉट तीन बजे दोपहर को कार घर के वराण्डे में दाखिल करना।आश्चर्य की बात यह कि संदली अब किसी मित्र या रिश्तेदारों के घर भी नहीं आती-जाती।कभी हर वक़्त मुस्कुराता रहने वाला सुन्दर मासूम-सा मुखड़ा।अब इतना उदास। ये मायूसी किसी के गले नहीं उतरती थी।कोई उसकी मीठी मुस्कान कैसे छीन सकता है ?और आखिर कौन?

घर के साथ-साथ पूरे मोहल्ले की लाड़ली थी संदली।किसी को भी उसकी इस हालत के विषय में हकीकत का कुछ भी अंदाजा नहीं।जानती थी तो सिर्फ़ और सिर्फ़ संदली या उसका रब।

मासूमियत भरी सुहानी डगर ने न जाने कब धीर-गंभीर राहों का रूप अख्तियार कर लिया खुद संदली भी न जान पाई।


जैसे कल की ही बात हो....आमने-सामने खड़ा हो उसे एकटक देख रही थीं कोई अनजान दो आँखें । वो भी अपने बचपने वाले अंदाज़ में चहक उठी-"ओ हलो! किस से मिलना है जनाब। ऐसे दीदे फाड़ कर क्या देख रहे हैं ?"पता चला कि संदली की बुआ के देवर का बेटा था सौरभ ।

सौरभ के पिता रिटायर हो कर अपने पुश्तैनी मकान में सैटल हो गये जो संदली के शहर में ही था।

सौरभ.. 6 फुट लंबा, गोरा चिट्टा, खूबसूरत, गबरू जवान।आर्मी में लेफ्टिनेंट.... संदली को देश से अटूट प्यार था यही वजह थी सैनिकों का आकर्षण था ही। नौकरी ऊधमपुर में....जब भी छुट्टियों में आता, घर आना-जाना लगा रहने लगा।संदली के सुन्दर रूप व हँस मुख स्वभाव ने उसे आकर्षित किया।संदली कब सौरभ से घुलमिल गई पता ही नहीं चला।दिन बीतते गये.... नज़दीकियाँ भी बढ़ती गईं दोनों के बीच।दोनों मिलते परन्तु सबसे छिप कर....मर मिटा था सौरभ संदली पर। प्राण न्योछावर करता था।और संदली.... वो तो अपना सर्वस्व सौंप बैठी थी उसे।

"सौरभ....." सौरभ की मजबूत बांहों में सिमटी संदली ने कहा।

"हुं... संदू...."

"तुम जल्द लौट आना....."

"मैं तुम्हारे बिना कुछ नहीं....."

"सुनो सौरू..."

संदली ने उन अंतरंग पलों में आज जो कहा वह सौरभ को पशोपेश में डाल गया।

"मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली....."

"क्या ?????"

सौरभ हक्का-बक्का...

"परन्तु संदू! आज ही हेडक्वार्टर से काॅल आ गया है। सरहद पर वार के हालात हैं। फ्रंट पर लद्दाख में ड्यूटी लगी है।"

"पाँच माह तक शांत ही बैठना होगा हमें।" सौरभ बोला ।

नहीं सौरू......"

"इतना नहीं रुक सकते। अलरेडी दो मंथ कम्प्लीट हो चुके हैं।"

सौरभ कुछ करने में अपने आपको असमर्थ पा रहा था वहीं दूसरी ओर ओर अपनी प्राणप्रिया संदली के लिए बेहद चिंतित था।

"यह क्या सौरू। इतना पसीना क्यों।क्या हो रहा है आपको।"संदली सौरभ के सीने में सिर रख फूट-फूटकर रोई।

कुछ बात न बनी।सौरभ फ्रंट पर चला गया और संदली गुमसुम रहने लगी।


पापा की चहेती संदली किसके साथ अपनी आपबीती शेयर करे।जब वह पाँच वर्ष की थी तभी माँ तोस्वर्गवासी हो गयी थीं। पापा ने जी- जान से पाला-पोसा था उसे।उसकी हर बात के राज़दार थे उसके पापा। परन्तु यह बात.....लज्जा व मर्यादा के साथ-साथ पापा के स्वास्थ्य की भी फिक्र हो उठी उसे।पापा की लाड़ली संदली उनसे यह बात कैसे कहे ?हृदय जोरों से धड़क रहा है आज उसका।करे तो क्या करे...

आज सुबह से वह पापा से कुछ कहना चाह रही थी। पापा भी उसकी परेशानी से नावाकिफ न थे।

"संदली।"

"क्या बात है बेटू ! तू कुछ परेशान सी है।"

"पापा"

"हाँ बेटा"

"पापा मुझे माफ कर दीजिए। मैं आप की गुनहगार हूँ।मैंने बहुत बड़ी बात आपसे छिपाकर रखी। "

क्या हुआ बेटी बोल तो।"

"पापा....." और सिसक पड़ी संदली।

"पापा मैं और सौरभ एक दूसरे से...."

"हम शादी करना चाहते हैं.....पापा मैं उसके बच्चे की..... "

"बेटा। यह क्या बोले जा रही है तू। तुझे होश तो है न"

संदली के पापा जो हार्ट के मरीज़ थे यह बात सहन न कर सके और उन्हें सीवियर अटैक आया।

सिविल हास्पिटल के आई सी यू में पाँच दिन पश्चात्...... डाॅ ने संदली को बुलाकर उससे बात की और पिता की बीमारी की गंभीरता जताई तथा पिता की बात मान जाने का ही मशविरा दिया ।संदली से मिलने पर पापा बोले -    " बेटा।" फिर वे रोने लगे।

"तू अबार्शन करवा ले। मैंने तेरे वास्ते एक लड़का पसंद कर रखा है। युद्ध विराम कब हो कुछ कह नहीं सकते। सौरभ पाँच महीने बाद भी आ पाता है या नहीं किसे पता ? इस कंडीशन में पाँच महीनों में तो तेरी दुनिया ही बदल जाएगी बेटा "

"जी पापा। आप जो कहेंगे मैं कर लूंगी। बस आप ठीक हो जाइए।" संदली रो पड़ी।

उसने भी काफी सोचा था इस विषय में।

"मैं ठीक हो जाऊँगा।"डाॅक्टर्स को पूरा केस पता चल गया था। उन्होंने संदली को पूरा सपोर्ट दिया। उसका अबार्शन उसी हास्पिटल में कराया गया व फर्दर एडवाइजेज भी दी गई ।किसी को कानोंकान खबर न लगने दी।प्यार की पहली और अंतिम परमप्रिय निशानी को अपने तन से अलग करना संदली को गवारा न था परन्तु पापा के लिए बर्दाश्त करना था।आखिरकार नारी थी बर्दाश्त करना तो फर्ज़ था।वह मन ही मन सौरभ की याद कर उससे माफी मांग रही थी सुबक- सुबक कर।


"मुझे माफ़ करना बेटू। "उधर पापा की आँखों में आँसू थे।

पापा भी मजबूर थे सामाजिक मर्यादा में बंधे वर्ना इतनी बड़ी चोट देकर बेटी की अंतरात्मा दुखाना आसान न था उनके लिए।नियति की निष्ठुरता के खेल निराले.......हास्पिटल से घर लौटने के एक घंटे बाद ही पापा को पुनः अटैक.....और सब कुछ खत्म......पड़ोसियों व दूर के रिश्तेदारों के सहयोग से संदली ने पिता की अर्थी को कंधा भी दिया और मुखाग्नि भी।बदकिस्मती की मार अभी बाकी थी संदली की ज़िन्दगी में.....

पापा को गये तीसरा दिन भी नहीं बीता होगा कि.....आर्मी हेडक्वार्टर से कर्नल गोस्वामी ने जो दुखद समाचार दिया उसे सुनकर संदली सुधबुध खो बैठी।परन्तु ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य......बाहरी दुनिया संदली की इस अंदरूनी कहानी और पीड़ा दोनों से अनजान थी। वह किसके सम्मुख करे अपने दुख का इज़हार।लेफ्टिनेंट सौरभ शत्रुओं से मोर्चा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे ।पार्थिव शरीर तो सौरभ के घर भेजदिया गया। संभवतः घर में सौरभ ने अभी तक इस बात का जिक्र नहीं किया था।


"कैसा क्रूर मज़ाक किया विधाता?"

संदली आज जी भरकर रोई और रोए भी क्यूँ न। कौन बचा था उसके आँसुओं को समेटने के लिए।

यह राज़ किसी से साझा भी नहीं कर सकती थी वह।अब वह हँसती खिलखिलाती संदली नहीं अपितु एक शांत और गंभीरता की प्रतिमूर्ति थी जिसकी झील सी उदास आँखों में कई अधूरी अनकही कहानियों की नौकाऐं आँसुओं के संग बह-बह कर समय- असमय अश्कों के सैलाब लाती रहतीं।कभी वह पिता की मृत्यु के लिए स्वयं को दोषी मानती तो कभी सौरभ से बच्चे के लिए क्षमा मांगती और कभी अजन्मी संतति के प्रति ग्लानि से भर उठती। इस त्रिकोणीय दुःख से वह उबर नहीं पा रही थी और न ही उबरना चाहती थी। संदली इस त्रिकोण से बाहर नहीं निकलना चाहती थी।रिश्तेदारों, पड़ोसियों व परिचितों को तो एक ही आभास था पिता की मृत्यु का असहनीय दुःख।

त्रिकोणीय दुखों का पहाड़ सिर्फ उसी तक सीमित था जिसे वह किसी भी कीमत पर किसी के साथ साझा नहीं करना चाहती थी।शनैः-शनैः समय का मरहम घावों के भरता जा रहा था। वह, उसके कालेज की नौकरी और उसका घर। यही छोटा सा दायरा रह गया था अब।


न्यूज पेपर में संदली ने इंडियन आर्मी हेडक्वार्टर से "सोल्जर जनरल ड्यूटी" के पदों के लिए विज्ञापन देखे। एप्लाई किया और किस्मत से चयन भी हो गया।

"जानकी आंटी। आज मैं बहुत खुश हूंँ।"

"अरे वाह। एक लम्बे अर्से के बाद तुझे खुश देखकर अच्छा लगा बेटी।"

"सुनूं तो क्या खुशखबरी है? "

"आंटी मेरा सलेक्शन आर्मी में सोल्जर जनरल ड्यूटी की पोस्ट के लिए हो गया है ।"सहसा जानकी जी को उसका गाया बचपन का गीत याद आ गया।आज संदली ने दस माह की ट्रेनिंग फर्स्ट पोजिशन लेकर उत्तीर्ण की है।पहली पोस्टिंग लद्दाख में ही मिली।लद्दाख का पहाड़ी इलाका।

दुश्मन की धज्जियाँ उड़ाती हमारी पराक्रमी सेना। एक जवान को दुश्मन की गोली लगी और वह संदली के बैरक के बाहर कराह कर पानी की मांग कर रहा था। संदली सिंह (सोल्जर जी डी) ने पानी की बोटल लेकर गेट खोला और सिपाही को पानी पिलाकर उसे बाँहों से खींच कर केबिन के भीतर कर दिया।

तभी दो ओर सैनिकों को देखा। दूसरे सैनिक को भी धीरे-धीरे खींच कर केबिन के अंदर लाकर उनके घावों पर कपड़े बांधे।इसके बाद जैसे ही वह तीसरे सैनिक को घसीट कर केबिन के भीतर आधा ही पहुंचा पाई थी कि तभी शत्रु सेना की गोली सरसराती हुई संदली की बांयी कनपटी को चीरती हुई निकली।तभी एक और गोली आकर छाती में जा धंसी।संदली वहीं गिर पड़ी।

उस क्षण उसने आँखों के सम्मुख ऐसा महसूस किया कि जैसे आज साक्षात् उसका सौरभ खड़ा उसे पुकार रहा था।

संदली मुस्कुरा कर हाथ बढ़ाते हुए बोली - "मेरे सौरभ। मैं आ रही हूँ तुम्हारे पास।"

फिर बुदबुदाई-"ऐ मेरे प्या.. रे... व... तन... तुझ... पे..... दिल... कुर्बान....

आज हुआ था अद्भुत पटाक्षेप उसकी अनूठी प्रेम कहानी का।


 


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