तार पर सूखते कपड़ों की दास्तां
तार पर सूखते कपड़ों की दास्तां
पागल कहें या दीवानी, लौकडाउन का असर कहें या कहानियों की ललक, आजकल मुझे निर्जीव वस्तुएं भी बोलती नज़र आती हैं। मानो वे अपनी-अपनी कहानी मुझे सुनाना चाहते हों। शायद कुछ अजीब सा लगे! बहुत अजीब! जाने दीजिए, चलिए देखते हैं आज की कहानी...
आम हो या खास, कपड़े तो सभी हर रोज़ सुखाते होंगे। रानी भी हर रोज़ की भांति कुर्ती को उल्टा फैलाया है, ताकि नीला रंग बरकरार रह सके। कुर्ती ने रानी के हाथ में रखे पजूमी की ओर दया भाव से देखा, और बदले में पजूमी ने तौफिए को। तौफियास बिचारा अक्सर ही देर से सूखा करता। रानी हमेशा अपने छोटे-छोटे कपड़ों को, माफ कीजिएगा मैं साफ बोलने से बच रही हूं। दरअसल रानी जब उन्हें खुले में नहीं फैलाती, तो मैं नाम लेकर शर्मिंदा नहीं होना चाहती। खैर, कहानी पर आते हैं। तो बात ये है कि परिधान मुहल्ले में एक प्रतियोगिता का आयोजन होना था। सभी अड़ोसी-पड़ोसी ने मिलकर तय किया कि आने वाले महीने की दस तारीख को सबसे पहले सूखने वाले को इनाम दिया जाएगा। शुरू हो गई मस्ती और माहौल में घुलने लगा प्रतिस्पर्धा व असमंजस। दादा जीनस व्याकुल हो उठे थे, पर हारना उन्होंने बचपन में ही सीख लिया था। हां, सालों तक दौड़ लगाने की प्रतियोगिता होती तो बात कुछ और थी। तैयारी में लगे सभी अपनी बारी का इंतजार करने लगे। बातूनी रुमालीन तो खुद को कबका विजेता घोषित कर चुकी थी। पर सफेदक सभी कपड़ों से दूर रहकर खुद को भीड़ का हिस्सा मानने से इनकार करने लगा और नतीजतन प्रतियोगिता से। मुहल्ले की आंटी, जिन्हें सब मुचुन्नी चाची कहा करते थे, खुद को पहली बार रोका था, मन ही मन बस मुस्कुराए जा रही थी, वरना मुहल्ले की ख़बरें रखने और गॉसिप की खोज करने में माहिर हैं अपनी चाची। कुछ अन्य सदस्य जैसे चाचा पैंटून, ब्लाउज़ी मौसी और हमारा प्यारा पर्दाल, जोश ऐसा कि पूछिए मत।
आखिरकार वह दिन आ ही गया जिसका पूरे परिधान मुहल्ले को इंतज़ार था। किसी ने प्रतियोगिता से पहले यज्ञ व होम की सलाह दी थी, पर इस बार कोरोना की वजह से धोतीम्मा ने हेड होने के नाते मना कर दिया। सबने मुहल्ले के एकमात्र पार्क को सजाया गया, गुब्बारों और रंगीन कागजों से तार को। आखिर उन्होंने आधी से ज़्यादा ज़िंदगी जो यहां काटी थी, और अब यह प्रतियोगिता, बहुत से लोगों के लिए यह यमपुरी के नदी को पार कर लेने जैसा था। चद्दरसन जीजा आज पूरे एक हफ्ते बाद सिर्फ फीता काटने के लिए ही शहर से आए थे। जैसे ही उन्होंने घोषणा की, गगन से कोलाहल सुनाई पड़ी, पल भर में काले घुंघराले बादलों ने आसमान घेर लिया, मानो मुहल्ले के लोगों से दुश्मनी निकालने के लिए आज का ही मुहुर्त निकला हो। सब परेशान हो रहे थे, न जाने कैसे प्रतियोगिता सम्पन्न होगी। फिर भी एक उम्मीद लिए पवन चाचा का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे। करीब एक घंटे तक वे आपस में कुड़कुड़ाते रहे पर चाचा की कोई खबर नहीं मिली। पर अचरज की बात यह कि ना तो बादल बरस रहे थे और ना ही हटने को तैयार थे, लगा वे भी प्रतियोगिता का हिस्सा बनने आए हो। जिस प्रकार वे जलमग्न बेकरार थे, उसी प्रकार सभी प्रतिभागियों का मन भी कुछ बेकरार सा था। परिधान मुहल्ले के लोगों का समय ठहर चुका था, न इस तरफ और न उस तरफ, किसी नतीजे की घोषणा करना खतरा मोल लेने से कम नहीं था। हेड धोतिम्मा ने कुछ कहना चाहा पर मौके की नज़ाकत को समझते हुए उन्होंने खामोश रहना ही ठीक समझा।
दो घंटा बीत गया, पर कोई नतीजे की बात नहीं कर रहा था। एक दूसरे को पीड़ा न पहुंचे इसलिए वे नतीजे पर नहीं पहुंच रहे थे। निर्णय तो फिर भी लेना ही था। हुआ यूं कि धोतिम्मा, चाचा पैंटून, दादा जीनस और मुचुन्नी चाची को परिणाम घोषणा करने को कहा गया। करीब दस मिनट तक उन्होंने मिलकर यह निश्चय किया कि इस साल कोई एक व्यक्ति विजेता नहीं होगा, बल्कि सारे प्रतिभागियों को पुरस्कृत किया जाएगा। पूरे साल जिस प्रतियोगिता का इंतज़ार किया उसका रुख़ ऐसा होगा किसी ने सोचा भी नहीं था। यह सुनकर कहीं उल्लास और उत्साह तो कहीं उदासी छा गई। छा गई से याद आया कि घोषणा के बाद ही बादल बरस पड़े, मानो सभी को बधाईयां देने आए हो। कहते हैं न अंत भला तो सब भला।