सपनों की टोपी
सपनों की टोपी
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हर रोज़ मैं स्कूल प्राय: उसी रास्ते जाया करती, पर उस दिन भीषण जाम की वजह से शहर की 'स्लम'वाली गलियों से गुजरना पड़ा। वह दिन मेरे लिए वाकई स्मरणीय रहा। अक्सर उस रास्ते गुज़रते हुए नाक मुंह ढक लिया करती थी, परंतु उस दिन मेरी आंखें खुली की खुली रह गई। मैं ऑटो से बार-बार मुड़कर देखती रही, मानो उस पल को अपनी आंखों में समा लेना चाहती हूं।
मैंने देखा कि एक औरत अपनी बेटी के सिर पर 'पुलिस' की टोपी पहना रही थी। मुझे नहीं मालूम कि वह उनके पास कहां से आई, किसने दी या कहीं पड़ी मिली; शायद उस समय मैं जानना भी नहीं चाहती थी। उनके घर की ओर एक झलक देख मैं समझ गई थी कि उनके पास न तो पर्याप्त साधन है, न ही सुविधा। किसी तरह दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते होंगे। एक बात मुझे सराहनीय लगी कि इनकी गरीबी इनसे सपने देखने का हक नहीं छीन सकती। और एक यह कि एक मां कैसे भी जी लेती है, पर अपने बच्चे के लिए सदा उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है। इस सोच में ही थी कि ऑटोवाले ने ब्रेक लगा मेरे ख्यालों पर अर्ध विराम लगा दिया।
आज करीब अठारह साल बाद उस रास्ते गुज़र रही हूं, दफ्तर के कुछ काम से। मैं उस घर को तलाश रहीं हूं, उस बच्ची को, उसकी मां को, पर सभी कोशिश नाकाम हो गई मेरी। खैर, जब मैं दफ्तर पहुंची तो सामने एक आइ. पी. एस. अफसर खड़ी थी। मैंने उसे उसके साथ खड़ी उसकी मां से उसे पहचान लिया है। जी चाहता उसे बताऊं, उसे गले लगा उसका अभिनंदन करुं, पर डरती हूं वह असहज महसूस करने लगेगी। मैंने इस पल को भी संजोकर दिल के किसी कोने में रख लिया है।