मेरे पिताजी
मेरे पिताजी
वक़्त जैसे दरवाज़ा खटखटा आगाह करने आया हो। 18 साल बीत चुके हैं, लेकिन अब भी वहीं अटकी हूं मैं। आय दिन बीता हुआ कल मुझे परेशान कर जाता है। गांव का नाम जु़बां पर आते ही पलकें खुद ब खुद, दिन भर की थकान पल भर में गायब कर देती है। गांव में पली-बढ़ी हूं, पर चाहकर भी अब वहां के वातावरण में लौटना मुश्किल है। हालात कुछ ऐसे हैं कि अब गर्मी की छुट्टियों में ही जाना हो पाता है।
मेरे लिए गांव का दूसरा नाम मेरे पिता ही हैं। पिता से जुड़ी यादों के नाम पर मेरे पास केवल एक तस्वीर है, जो अब उम्र के साथ धुंधली होती जा रही है। मुझे अक्सर पिता के साथ भोज में जाने, जामुन के पेड़ पर चढ़ने, खेत खलिहानों में खेलते हुए, के सपने आते हैं और मैं चौंक कर बैठ जाती हूं। ऐसे में मन किसी अपने की तलाश करता है पर मां का रहना न रहना एक बराबर ही है। पिता जी के जाने के बाद मां ने मानसिक संतुलन खो दिया है। अंदाज़ा नहीं था कि उनके जाने के बाद हालात ऐसे हो जायेंगे। नहीं जानती मेरे लिए ही किस्मत दुखों की पोटरी बचाकर रखी थी या उसके हाथों से छिटक कर मेरे आंगन में आ गिरी। जब तक पिता का साया रहा मैं नादान-नासमझ थी, पर कहते हैं न वक्त से बड़ा कोई मरहम और शिक्षक नहीं होता। खुद को संभालना, दूसरों को संभालने के मुकाबले ज्यादा पेंचीदा हो जाता है, वो भी तब जब और कोई परिवार में परिपक्व न हो। हां इतने सालों बाद भाई बहन काफी समझदार हो गए हैं, और मेरी हर बात का मान रखते हैं, फिर भी न जाने क्यूं एक अनकही सी कमी है जो शायद आजीवन रिक्त ही रह जायेगी। छोटा भाई आजकल डाक्टरी की तैयारी कर रहा है और बहन मास्टर्स में एडमिशन ली है। मां अब भी मेरे साथ हैं, दुनिया के दांव-पेंच से अनभिज्ञ अपनी एक दुनिया में जीती है, जिसमें न तो मां मुझे शामिल करती है न ही मैं शामिल होना चाहती हूं।
मैं अभी बिजली विभाग में कार्यरत हूं और कुछ सालों में सेवानिवृत हो जाऊंगी। काश पिता जी आज होते तो बहुत ही खुश होते मुझे देख कर, जिस तरह मैंने जिंदगी में एक मुकाम हासिल किया है और अपने भाई-बहन को, मां और बाप दोनों का प्यार देने की कोशिश की है। तमाम जिम्मेदारियों के बीच मैं खुद के बारे में सोच ही नहीं पाई, या यूं कहें तो वक्त ने सरेआम मुझसे ये हक छीन लिया। मैं अकेले में अक्सर सोचती हूं कि किन चीजों की बदौलत मैं ये सब कर पाई, तो एक ही जवाब पाती हूं 'जिंदगी के प्रति सकारात्मक सोच'।